मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा नष्ट लोक काव्य "आल्हा" को पुनः प्रकाशित करवाया एक अंग्रेज अधिकारी ने |


प्रबुद्ध समाज में प्रथ्वीराज, उनके कवी मित्र चंद वरदाई और जयचंद को अधिकाँश लोग जानते हैं | प्रथ्वीराज की वीरता का आख्यान, चंद वरदाई लिखित "प्रथ्वीराज रासो" के विषय में भी बहुतों ने सुना होगा | लेकिन उसी समयावधि में एक और जनकवि हुए "चन्द्र भाट", जिनके द्वारा रचित "आल्हा" आज भी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में लोक गायन की एक जानीमानी विधा है | ग्रामीण क्षेत्र में आज भी चौपालों पर ओज और शौर्य के प्रतीक इस कवित्त का जब गायन होता है, तो सुनने वालों का जोश से अंग अंग फड़कने लगता है, रोमांच हो आता है |

इस महाकाव्य का सारांश कुछ इस प्रकार है कि महाभारत युद्ध समाप्ति के बाद पांडवों को यह गर्व हो गया कि सब कुछ उनके पराक्रम से ही हुआ है | एक बार पाँचों पांडव भगवान कृष्ण के पास पहुंचकर बोले कि भगवन कौरव सब समाप्त हो गए, अब कोई युद्ध करने वाला ही शेष नहीं बचा | लेकिन युद्ध की इच्छा अभी शेष है | अतः कुछ ऐसी व्यवस्था करो कि कलियुग में हमारी युद्ध अभिलाषा पूर्ण हो जाए | 

भगवान ने भी विचार किया कि इन लोगों अभिमान नष्ट होना ही चाहिए तभी इन्हें अपने लोक बुलाना उचित होगा अतः उन्होंने एवमस्तु कह दिया | कलियुग में वे ही पांडव आल्हा ऊदल आदि वीरों के रूप में एक बार पुनः अवतरित हुए और अपनी युद्ध अभिलाषा पूर्ण की | 

आज बहुत दिनों बाद मुझे भी आल्ह खंड एक बार पुनः पढ़ने को मिल गया | पहले कभी बचपन में पढ़ा था, तब केवल अच्छा लगता था, समझने की आयु नहीं थी | आज जब पढ़ने बैठा तो प्रस्तावना में ही कुछ ऐसा था कि होश फाख्ता हो गए | 

15 अगस्त आने को है, अतः सुधी मित्रों से ये अंश साझा करने की सहज इच्छा हो आई | आप पढ़िए और गुनिये – 

माहिल राजा की चंगुलिन में, राजा बिगरि गए परिमाल |
रहेउ शूर नहिं भरतखंड में, लूटन लगे यवन महिपाल || 

हुकुम चलायो सब हिंदुन पे, बिद्दति करी यहाँ पर आय |
लाखन हिन्दू मुसलमान करि, बहुतै पुस्तक दिए जलाय || 

अच्छे अच्छे ग्रन्थ नशाये, कीन्हीं बहुत अनीति अघाय |
इतिहासन में लिखो हाल यह, पढ़ी पढ़ी रोम जात थर्राय || 

जब आये अंग्रेज बहादुर, तबते सुचित भये सब लोग |
होत न्याय ते काम यहाँ सब, सिगरी प्रजा करत सुख भोग || 

बंदोबस्त के रहे कलेक्टर, कुछ दिन शहर फर्रुखाबाद |
मिस्टर सी. ई. इलियट साहब, कीन्हीं आल्हखंड मरजाद || 

गावन बाले जो जाहिर थे, तिनते लिखबायो त्यहि काल |
अंगरेजी में करो तरजुमा, लन्दन भेजि दियो तत्काल || 

आज्ञा ले अपने मतबे में, मुंशी रामस्वरूप छपाय |
सम्बत उनईस सै इकतिस में, “असली आल्हा” नाम धराय || 

कियो प्रगट लै मोल लोग सब, बांचत आल्ह खंड सब ठाम |
पंडित भोलानाथ गवैय्या, ताही समय रहे सरनाम || 

यूं तो सुधी पाठक महानुभावों को निश्चय ही उक्त कवित्त का अर्थ समझ में आ ही गया होगा, फिर भी विचार विमर्श की द्रष्टि से एक बार पुनः उस पर चर्चा किये लेते हैं – 

दुष्ट राजाओं की संगत में भले राजा भी बिगड़ गए और हालात यह बने कि भारत भूमि पर कोई शूरवीर बचा ही नहीं | ऐसी हालत में यवन राजाओं की लूटपाट शुरू हो गई | सब हिन्दुओं को उन्होंने अपने अधीन कर लिया और स्थिति बहुत ही विकराल हो गई | लाखों हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया और बहुत सी पुस्तकें जलाकर राख कर दी गईं | अच्छे अच्छे ग्रन्थ नष्ट हो गए, अनीति का बोलबाला हो गया | यह सब कुछ इतिहास में लिखा हुआ है, जिसको पढकर रोम रोम थर्रा जाता है | लेकिन उसके बाद जबसे अंग्रेजों का राज्य आया है, तबसे लोगों को जरा चैन नसीब हुआ है | अब न्याय पूर्वक सब काम होते हैं अतः प्रजा सुखी है | 

(कवित्त का उक्त अंश पढ़कर तत्कालीन आम जन मानस की स्थिति समझ में आती है | वे स्थानीय राजाओं से भी त्रस्त थे और मुसलामानों से तो अत्याधिक घबराये हुए थे | शायद यही कारण है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ | लोगों को लगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद एक बार फिर मुगलों की सत्ता आ जायेगी | और यह वे किसी कीमत पर नहीं चाहते थे | इसलिए उस संग्राम में आम जन की सहभागिता अल्प ही रही |) 

इसके आगे कवित्त में “आल्ह खंड” के प्रकाशन का जो विवरण है, उसमें भी अंग्रेजों की प्रशंसा ही झलकती है  – 

फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर सी. ई. ईलियट ने तत्कालीन लोक गायकों से यह ग्रन्थ लिखबाया | अर्थात उस समय तक यह अद्भुत शौर्य रचना केवल लोक जीवन में ही जीवित थी | इसका कोई लिखित ग्रन्थ रहा भी होगा तो वह मुग़ल बर्बरता का शिकार होकर राख में तब्दील हो चुका होगा | कलेक्टर इलियट ने इस अद्भुत लोक साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद करवाकर लन्दन भी भेजा | सम्बत उन्नीस सौ उनतीस अर्थात आज से एक सौ छियालीस वर्ष पूर्व वर्तमान में प्रचलित “आल्ह खंड” का प्रकाशन स्व. रामस्वरूप जी ने करवाया | उस समय इस पुस्तक का नाम था – “असली आल्हा” | लोगों ने बड़ी रूचि से इसे खरीदकर पढ़ा | उस समय इसके गायक के रूप में पंडित भोलानाथ की बड़ी ख्याति थी | 

कुल मिलाकर स्वतंत्रता पर्व पर विचार होना चाहिए कि हम गुलाम क्यों बने ? प्रथ्वीराज  का संघर्ष केवल जयचंद से ही नहीं हुआ, बल्कि आल्हा ऊदल जैसे वीर योद्धाओं से भी सतत चला | हम आपस में लड़कर ही अपनी बहादुरी दिखाते रहे, और बाहरी शत्रु की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया | तो पराभव तो होना ही था | काश यह स्वतंत्रता दिवस, देश के चिंतन को कुछ सही दिशा दे पाए |

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