एक बी.ए. फ़ैल, गोल्ड मेडलिस्ट वकील, कांग्रेस अध्यक्ष – मोतीलाल नेहरू !



कांग्रेस शताब्दी 1985 समारोह समिति द्वारा डॉ. गौरीशंकर राजहंस लिखित एक पुस्तक प्रकाशित की गई – मोतीलाल नेहरू | पुस्तक की भूमिका स्वयं तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी द्वारा लिखी गई थी | तो प्रस्तुत हैं उस पुस्तक के कुछ अंश मेरी टीका टिप्पणी के साथ – 

पुस्तक का प्रारम्भ प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथा के कुछ अंशों से हुआ है – 

हम लोग कश्मीरी थे | करीब दो सौ साल पहले, अठारहवीं शताब्दी के शुरू में, हमारे पूर्वज पहाडी घाटियों से मैदानी क्षेत्र में आ गए, धन और प्रसिद्धि हासिल करने के लिए | वे मुग़ल सल्तनत के अंतिम दिन थे | औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सल्तनत तेजी से पतन की ओर जा रही थी | उन दिनों बादशाह फर्रुखसियर मुग़ल सम्राट थे | हमारे पूर्वज का नाम “राज कौल” था और उनकी गिनती उन दिनों संस्कृत तथा फारसी के प्रसिद्ध विद्वानों में होती थी | सन 1716 के आसपास जब बादशाह फर्रुखसियर की नजर पं. राज कौल पर पडी | उन्होंने पं. राज कौल को दिल्ली में बसने के लिए राजी कर लिया | बदले में उन्हें एक जागीर दी गई और शहर के बीच से गुजरने वाली नहर के किनारे एक मकान दिया गया | (विचार करें कि एक मुग़ल बादशाह को एक पंडित में ऐसा क्या भाया कि वह मान मनौवल करके उसे दिल्ली ले गया और जागीरदार बना दिया ?) 

नहर के किनारे मकान होने के कारण राज कौल के परिवार को ‘नेहरू’ के नाम से पुकारा जाने लगा | पहले वे लोग कौल-नेहरू कहलाते थे | बाद के वर्षों में कौल की पदवी लुप्त प्राय हो गई और ये लोग केवल नेहरू के नाम से जाने जाने लगे | (पदवी कौल थी या नेहरू?) 

बाद के वर्षों में नेहरू परिवार ने बहुत संघर्ष पूर्ण समय देखा | मुग़ल बादशाह ने उन्हें जो जागीर दी थी, वह भी समाप्त हो गई | राज कौल के पौत्र मौसाराम अंतिम व्यक्ति थे, जिन्होंने नाम मात्र के लिए जागीर संभाली थी | मौसाराम के पुत्र लक्ष्मीनारायण नेहरू मुग़ल दरबार में ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले वकील नियुक्त हुए | सन 1857 के सिपाही विद्रोह के समय लक्ष्मीनारायण नेहरू के पुत्र गंगाधर नेहरू दिल्ली में पुलिस के कोतवाल थे | (यहाँ दो बातें विचार को विवश करती है – पहली तो यह कि जवाहर लाल नेहरू की नजर में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम सिपाही विद्रोह था | और दूसरी यह कि उस दौरान इनके पूर्वज अंग्रेजों के अधीन कोतवाल थे |) 

1857 के सशस्त्र विद्रोह ने नेहरू परिवार को बुरी तरह झकझोर दिया | परिवार ने न केवल सारी संपत्ति गँवा दी, बल्कि पुराने कागजात भी जाते रहे | ग़दर के कारण हजारों परिवार शरणार्थी बनकर दिल्ली से आगरा चले गए | उन्हीं परिवारों में पं. गंगाधर नेहरू का भी परिवार था | परिवार की अवर्णनीय क्षति को पं. गंगाधर बर्दास्त नहीं कर सके | फलस्वरूप 34 वर्ष की उम्र में ही, 1861 के प्रारम्भ में, उनकी मृत्यु हो गई | उनकी मृत्यु के तीन महीने बाद 6 मई को उनकी पत्नी जियो रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया – मोतीलाल | (स्मरणीय है कि 1857 के दौरान केवल अंग्रेजों के पिट्ठुओं को ही दिल्ली से भागना पड़ा था) 

पं. गंगाधर की मृत्यु से परिवार को बहुत बड़ा धक्का लगा और भरण पोषण का पूरा भार दो नौजवान लड़कों वंशीधर और नंदलाल, पर आ पड़ा | दोनों नवयुवकों ने बड़े साहस और धैर्य के साथ परिवार पर आई विपत्ति का सामना किया | मोतीलाल के बड़े भाई वंशीधर ने कुछ दिनों बाद ब्रिटिश सरकार की दीवानी अदालत में नौकरी कर ली | वे परिश्रमी और लगनशील थे | अतः क्रमशः पदोन्नति पाते हुए उन्होंने सबार्डिनेट जज का स्थान प्राप्त कर लिया | वंशीधर की नौकरी ऐसी थी, जिसमें उनका प्रायः तबादला होता रहता था | इसलिए दोनों भाईयों ने यह तय किया कि मोतीलाल का पालन-पोषण मंझले भाई नंदलाल करें | (यहाँ भी अंग्रेजों की नौकरी का ही इतिहास है ) 

नंदलाल ने राजस्थान के खेतड़ी रियासत में एक छोटी सी नौकरी कर ली और अपनी कार्य कुशलता, निष्ठा और परिश्रम के बल पर धीरे धीरे तरक्की करते हुए वे उस रियासत के दीवान हो गए | इस पद पर वे दस वर्ष तक बने रहे | (यहाँ आकर जवाहरलाल जी ने एक तथ्य को छुपाया कि आखिर नंदलाल को रियासत क्यूं छोड़ना पड़ी | हकीकत यह है कि नंदलाल ने 1870 में तत्कालीन राजा फतेह सिंह की मौत की खबर को छिपा लिया था और पास स्थित अलसीसर से एक नौ वर्षीय बालक अजित सिंह को गोद लिया हुआ बताकर उनका उत्तराधिकारी बनवा दिया | इस मामले को लेकर दीवान नंदलाल नेहरू विवाद ग्रस्त हो गए और उन्हें खेतड़ी छोड़ना पड़ा |) 

बाद में उन्होंने क़ानून का अध्ययन किया और आगरा में वकालत शुरू की | आगरा में हाईकोर्ट स्थापित हुए अधिक समय नहीं हुआ था | नंदलाल ने इसी नव स्थापित हाई कोर्ट में अपनी वकालत शुरू की | बाद में जब यह हाई कोर्ट आगरा से इलाहाबाद चला गया तो उसके साथ नेहरू परिवार भी इलाहाबाद आ गया | तब से इलाहाबाद नेहरू परिवार का घर बना रहा | इलाहाबाद में एक कुशल वकील के रूप में नंदलाल ने पर्याप्त ख्याति अर्जित की | हाई कोर्ट के वकीलों में वे अग्रगण्य माने जाते रहे | 

उन दिनों मोतीलाल कानपुर और इलाहाबाद में स्कूल और कालेज की शिक्षा ले रहे थे | प्रारम्भ में मोतीलाल कोई मेधावी छात्र नहीं थे | उन्हें घर के बाहर खेले जाने वाले खेलों, खासकर कुश्ती का बहुत शौक था | उन दिनों बी.ए. की परीक्षा में मोतीलाल बिना किसी तैयारी के बैठ गए | पहले पर्चे में ही उन्हें आशंका हुई कि वे परीक्षा में बहुत अच्छा नहीं कर सकेंगे | इसी कारण शेष पर्चे उन्होंने नहीं दिए और बदले में ताजमहल देखने चले गए | बाद में उनके प्रोफ़ेसर ने उन्हें बुलाकर फटकारा और कहा कि उनका पहला पर्चा बहुत अच्छा हुआ था और शेष पर्चों में शामिल न होकर मोतीलाल ने भयानक भूल की | परन्तु मोतीलाल दुबारा बी.ए. की परीक्षा नहीं दे सके और इस तरह वे स्नातक नहीं बन पाए | 

किन्तु मोतीलाल ने हाईकोर्ट के वकीलों की परीक्षा में कठिन परिश्रम किया, फलतः इस परीक्षा में वे न केवल उत्तीर्ण हुए बल्कि सर्व प्रथम भी घोषित किये गए और उन्हें स्वर्ण पदक भी प्राप्त हुआ | (स्मरणीय है कि उस समय तक बड़े भाई नंदलाल बड़े वकील बन चुके थे, अतः एक बी.ए. फ़ैल का सीधे गोल्ड मेडलिस्ट वकील बनना ????) 

प्रारम्भ में मोतीलाल ने कानपुर के जिला न्यायालय में वकालत शुरू की और कठिन परिश्रम से भारी सफलता प्राप्त की | तीन वर्ष के बाद वे इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करने लगे | दुर्भाग्य से कुछ दिनों बाद ही उनके बड़े भाई नंदलाल का अचानक देहावसान हो गया तथा पूरे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी उन पर आ गई | किन्तु नन्दलाल के मुवक्किल भी उनके पास आने लगे और धन की वर्षा शुरू हो गई | वे और उनका परिवार बड़े ठाट बाट से पश्चिमी तौर तरीके से रहने लगा | वकालत के पेशे में मोतीलाल को अभूतपूर्व सफलता मिली | 35 वर्ष की उम्र में उनकी आमदनी लगभग 2000 रु. महीने थी, जो अगले पांच वर्षों में दस हजार रुपये हो गई | 

मोतीलाल के पहले विवाह का अंत दुखद हुआ | मां और पुत्र दोनों की मृत्यु हो गई | उसके शीघ्र बाद मोतीलाल का फिर विवाह हो गया | उनकी दूसरी पत्नी स्वरुप रानी थीं | उनके पहले पुत्र भी जीवित नहीं रहे | 14 नवम्बर 1889 को दूसरे पुत्र का जन्म हुआ, जिसका नाम जवाहर लाल रखा गया | नेहरू परिवार के लिए यह अत्यंत ही प्रसन्नता का अवसर था | 

सन 1900 में नंबर एक चर्च रोड पर एक खंडहर नुमा विशाल भवन खरीदा गया, जिसका पुनर्निर्माण कर “आनंद भवन” नाम रखा गया | इस भवन में फर्नीचर और सजावट का बहुमूल्य सामान विदेशों से लाया गया था | मोतीलाल का रहन सहन पश्चिमी ढंग का था, इसका कारण उनकी विदेश यात्राएं थीं | 1899 और 1900 में उन्होंने दो बार यूरोप का भ्रमण किया | कश्मीरी पंडितों की नजर में यह महापाप था, अतः उन्हें समाज बहिष्कृत कर दिया गया | लेकिन मोतीलाल ने उनकी कोई परवाह नहीं की | इतना ही नहीं तो 1905 में सपरिवार तीसरी बार यूरोप गए और अपने 16 वर्षीय बेटे जवाहर लाल को इंग्लेंड के प्रसिद्ध स्कूल “हैरो स्कूल” में दाखिला दिलवा दिया | 

मोतीलाल प्रारम्भ में राजनीति से लगभग अनमने ही थे | किन्तु 1888 और 1889 में उन्हें कांग्रेस अधिवेशन के दौरान उनका नाम कांग्रेस प्रतिनिधियों की सूची में था | अगले दस वर्ष तक वे पूरी तरह वकालत में डूबे रहे | अगस्त 1912 में जवाहरलाल अपनी पढाई पूरी कर केम्ब्रिज से वापस आये और महात्मा गांधी के सानिध्य में रम गए | स्वाभाविक ही पिता मोतीलाल का भी सद्भाव महात्मा गांधी के प्रति बढ़ने लगा | 

इस बीच बंग भंग, रोलेट एक्ट, होम रूल के चलते पूरा देश उबलने लगा | 13 अप्रैल बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग़ में जनरल डायर द्वारा किये गए नर संहार तथा बाद में मार्शल लॉ की ज्यादतियों ने मोतीलाल के ह्रदय पर गहरी छाप छोडी | अपनी वकालत छोडकर, बिना फीस लिए वे उन लोगों की सहायता में जुट गए, जिन्हें या तो फांसी की सजा सुना दी गई थी, या आजीवन कारावास की | तब तक मोतीलाल को लगता था कि वैधानिक तरीकों पर विश्वास करने वाली अंग्रेज सरकार, इस प्रकार का दमन नहीं कर सकती | मोतीलाल और गांधी जी की निकटता बढ़ती गई | इस काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, मोतीलाल इसके अध्यक्ष चुने गए | 

असहयोग आन्दोलन में भाग लेने के कारण दिसंबर 1921 में मोतीलाल और जवाहर लाल दोनों पिता पुत्र को कैद कर, लखनऊ जेल में रखा गया | कहाँ वैभव पूर्ण जीवन और कहाँ यह जेल का कठोर जीवन | जवाहरलाल प्रतिदिन जल्दी उठते, झाडू लगाते, सफाई करते, अपने व पिता के कपडे धोते | दिन में चरखा कातते और शाम को कैदियों को पढ़ाते | 

4 फरवरी 1922 को चौरीचौरा में लोगों की भीड़ द्वारा एक पुलिस थाने में आग लगा दिए जाने के बाद गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन समाप्त घोषित कर दिया | राष्ट्र की आत्मा में स्वराज्य प्राप्ति का जो जोश पैदा हुआ था, उस पर तुषारापात हो गया | मोतीलाल भी अत्यंत क्षुब्ध हुए | जेल से निकलने के बाद मोतीलाल ने सी.आर. दास के साथ मिलकर स्वराज्य पार्टी नाम से एक अलग दल बनाया, हालांकि कहा यही कि यह कांग्रेस का ही अंग है | 

इस पार्टी ने आगामी चुनावों में भाग लिया और पर्याप्त सफलता भी पाई | केन्द्रीय विधानसभा में उसे 101 में से 42 स्थान मिले | मध्य प्रांत में बहुमत मिला, तो बंगाल में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी | किन्तु जून 1925 में दास की मृत्यु के बाद स्वराज्य पार्टी का कांग्रेस में अधिकृत विलय हो गया | 

1928 के अंत में कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में एक बार फिर मोतीलाल नेहरू ने अध्यक्षता की | उनका भव्य स्वागत हुआ | एक अद्भुत घटना चक्र हुआ और अगले वर्ष 1929 में लाहौर कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए जवाहर लाल को चुना गया | वल्लभ भाई पटेल ने गांधीजी की इच्छा का सम्मान करते हुए, नाम वापस लिया | कांग्रेस के इतिहास में यह पहली बार हुआ, जब पिता का स्थान पुत्र ने लिया | (यह अलग बात है कि आजादी के बाद तो यह परिपाटी ही बन गई और कांग्रेस नेहरू परिवार की जागीर में तब्दील हो गई |) 

1930 में एक बार फिर नैनी जेल में पिता पुत्र साथ साथ रहे | मोतीलाल का स्वास्थ्य तेजी से बिगड़ता जा रहा था, स्वास्थ्य के आधार पर मोतीलाल रिहा कर दिए गए, क्योंकि अंग्रेज नहीं चाहते थे कि उनकी मृत्यु जेल में हो | 11 सितम्बर को उन्हें जेल से रिहा किया गया | जवाहरलाल 11 अक्टूबर को रिहा हुए, 18 अक्टूबर को पुनः गिरफ्तार हुए और फिर 26 जनवरी को रिहा हुए |

अंततः 6 फरवरी को प्रातः काल अपने पुत्र की उपस्थिति में मोतीलाल का मुख मंडल शांत हो गया | जवाहर लाल को लगा कि उनके पिता को रात भर की बेचैनी के बाद गहरी नींद लग गई है | किन्तु मां ने रोना शुरू कर दिया | तब उन्हें समझ में आया कि यह पिता की चिर निद्रा है | 

(अंतिम टिप्पणी – एक आलोचक के समान लिखना शुरू किया, किन्तु प्रशंसा के साथ समापन | कौन बड़ा आदमी इस प्रकार संघर्ष का मार्ग चुनता है ? सादर श्रद्धांजलि !)

The family of Motilal Nehru, who is seated in the center. Standing (L to R) Jawaharlal Nehru, Vijaya Lakshmi Pandit, Krishna Hutheesing, Indira Gandhi and Ranjit Pandit; Seated: Swaroop Rani, Motilal Nehru and Kamala Nehru (circa 1927).


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