श्रावणी पूर्णिमा - अनूठा ज्ञान पर्व अंतस के जागरण का - पूनम नेगी

उत्सवधर्मिता हमारी भारतीय संस्कृति का सनातन संस्कार है। वैदिक साहित्य के विवरण बताते हैं कि प्राचीन आर्यावर्त के चार प्रमुख राष्ट्रीय पर्व थे-श्रावणी, विजयादशमी, दीपावली और होली। इनमें पहला श्रावणी अर्थात रक्षाबंधन का पर्व ब्राह्मण वर्ग द्वारा राष्ट्र की आध्यात्मिक शक्ति को पूंजीभूत करने का पर्व था। दूसरा विजयादशमी क्षत्रिय वर्ण द्वारा राष्ट्र की सैन्य शक्ति को सुसज्जित करने का पर्व। तीसरा महालक्ष्मी पूजा का दीपावली पर्व वैश्य वर्ण द्वारा राष्ट्र की अर्थशक्ति को व्यवस्थित करने का पर्व और चौथा होली शूद्रवर्ण के संयोजन में भेदभाव व बुराई के दहन के साथ राष्ट्र की समरसता को जागृत करने के पर्व के रूप में प्रचलित था। वैदिक मनीषियों ने श्रावणी को ज्ञानपर्व के रूप व्याख्यायित किया है। वैदिककाल में इस दिन निपुण आचार्यों के मार्गदर्शन में वेदाध्ययन से पूर्व श्रावणी उपाकर्म के क्रम में दश स्नान, हेमाद्रि संकल्प, प्रायश्चित विधान व यज्ञोपवीत धारण आदि के कर्मकांड कराये जाते थे। इसके पीछे वैदिक मनीषियों का दर्शन था कि अंतस में ब्राह्मी चेतना के अवतरण के लिए साधक में "द्विजत्व" का जागरण जरूरी होता है। प्राचीन काल में इस द्विजत्व धारण के प्रतीक रूप में इस पर्व पर यज्ञोपवीत धारण की परम्परा बनायी गयी थी। आज के समय में तीन लड़ों के यज्ञोपवीत के दर्शन को समझने की जरूरत है। यज्ञोपवीत (जनेऊ) में नौ तार होते हैं। यह तीन लड़ें बताती हैं कि मानव जीवन तीन क्षेत्रों में बंटा है -आत्मिक, बौद्धिक और सांसारिक । इनमें से हर एक में जो तीन-तीन तार होते हैं उनका तात्पर्य उनके तीन-तीन गुणों से है। आत्मिक क्षेत्र के तीन प्रमुख गुण हैं- विवेक, पवित्रता व शान्ति। बौद्धिक क्षेत्र के साहस, स्थिरता और कर्तव्यनिष्ठा तथा सांसारिक क्षेत्र के लिए जरूरी है-स्वास्थ्य, धन व सहयोग। जरा विचार कीजिए कि जिस जनेऊ को आज की युवा पीढ़ी व तथाकथित सभ्य व उन्नत समाज दकियानूसी सोच का प्रतीक मानता है उसके पीछे कितना गहन तत्वदर्शन निहित है हमारे पूर्वजों का। 

द्विज यानी पापकर्मों का प्रायश्चित कर सद्ज्ञान से आलोकित मानवी काया का दूसरा जन्म। प्राचीन काल में इसी दिन से ऋषि आश्रमों वेद पारायण आरंभ होता था। वेद अर्थात ईश्वरीय ज्ञान और ऋषि अर्थात ऐसे आप्तकाम महामानव जिनकी अपार करुणा के कारण वह ज्ञान जन सामान्य को सुलभ हो सका। हमारे महान ऋषियों ने हमारे समक्ष यह गूढ़ तथ्य उद्घाटित किया कि हर व्यक्ति अपने लिए एक नई सृष्टि करता है। यदि यह सृष्टि ईश्वरीय योजना के अनुकूल हुई, तब तो कल्याणकारी परिणाम निकलते हैं, अन्यथा अनर्थ का सामना करना पड़ता है। हमारे आंतरिक जगत, हमारे, कर्म, विचार यदि कहीं भी विकार आ गया हो, तो उसे हटाने व पुन: नयी शुरुआत करने के लिए उन्होंने इस पर्व पर श्रावणी उपाकर्म व हेमाद्रि संकल्प का विधान बनाया था। तद्युग में श्रावणी पर्व पर अग्निहोत्र व वृक्षारोपण का भी बड़ा महात्म्य था। इस अवसर पर तुलसी के बिरवे रोपना अत्यन्त पुण्यदायी माना जाता था। फल फूलों व तरकारियों के पौधे रोपने की परम्परा थी। यदि फल फूलों के बीज नही मिल पाते थे घर की महिलाएं गेहूँ, जौ आदि अन्न को ही बो लेती थीं और नवांकुरों से की श्रावणी पूजन किया जाता था। "वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहित:" का सूत्र हमारे पुरातन आचार्यों के इसी महान उत्तरदायित्व का जयघोष करता है। अज्ञान से अशान्ति पनपती है और अशक्ति व अभाव को जन्म देती है। इससे मुक्ति के लिए वैदिक युग में इस पर्व पर रक्षा सूत्र बंधन के द्वारा इंद्रियों का संयम करने एवं सदाचरण करने की प्रतिज्ञा ली जाती थी। ऋषि- मुनि, आचार्य व पुरोहित वैदिक मंत्रों से अभिमंत्रित रक्षा सूत्र अपने शिष्यों-यजमानों को बांधते थे और शिष्य व अनुयायी अपने गुरुओं को चरणस्पर्श कर उनकी शिक्षाओं पर चलने का वचन देते थे। कालान्तर में कन्याओं, ब्राह्मणों व स्त्री द्वारा रक्षा सूत्र बंधन की परम्परा पड़ गयी। 

वर्तमान समय यह पर्व भाई-बहन के त्योहार के रूप में लोकप्रिय है। पर्व के इस वर्तमान स्वरूप का शुभारम्भ पौराणिक युग में ही हुआ था। कहा जाता है सर्वप्रथम देवी लक्ष्मी ने दानवराज बलि को रक्षासूत्र बांधा था। भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़े उस कथा प्रसंग से हम सभी भली भांति विज्ञ हैं। इसके अलावा देव-दानव युद्ध में देवों को विजय दिलाने के लिए इंद्राणी द्वारा देवराज इंद्र व देवों को अभिमंत्रित धागा बांधने, देवगुरु बृहस्पति का इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधना, द्रौपदी का कृष्ण की कलाई पर चीर बांधना पर्व की पौराणिकता को प्रमाणित करते हैं। पत्नी महारानी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधि-विधान से व्रत का अनुष्ठान कर रक्षासूत्र तैयार किये और स्वास्ति वाचन के साथ वह सूत्र इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधा था। उस रक्षासूत्र की शक्ति ने इन्द्र को विजय दिलायी। वह रक्षासूत्र आज भी बोला जाता है-"येन बद्धोबली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। दानवेन्द्रो मा चल मा चल ।।" मंत्र का भावार्थ है कि दानवों के महाबली राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधती हूँ। हे रक्षासूत्र! तुम चलायमान न हो, चलायमान न हो। इस पर्व की महत्ता से जुड़ी मध्यकालीन इतिहास की एक घटना भी काफी प्रसिद्ध है। चित्तौड़ की हिन्दू रानी कर्णावती ने दिल्ली के मुग़ल बादशाह हुमायूं को भाई मानकर उसके पास राखी भेजी और हुमायूं ने उस राखी के सम्मान में गुजरात के बादशाह बहादुर शाह से युद्ध किया। कहा जाता है उसके बाद से बहनों द्वारा भाइयों की कलाई पर रक्षा बंधन की यह परम्परा देखते देखते राष्ट्रव्यापी हो गयी। 

जानना दिलचस्प होगा कि बीती सदी में कुछ पर्यावरण प्रेमी अग्रदूतों ने पेड़ों को रक्षासूत्र बांधने की भी परम्परा शुरू की थी। उत्तराखंड में वनों की रक्षा के लिए "मैती" व "चिपको" सरीखे जो जनान्दोलन शुरू किये थे, उनके नतीजे खासे उत्साहजनक रहे थे। वृक्षों को रक्षा सूत्र बांधने के पीछे पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं की रक्षा का दिव्य भाव निहित था; ताकि हम सब प्रकृति का संरक्षण कर अपने कल्याण व सुख तथा शांति-सद्भभाव की राह पर चल सकें। अनेक कथा प्रसंग हैं जिनमें पेड़ों की रक्षा के लिए लोगों ने अपने जीवन बलिदान कर दिये। राजस्थान में वृक्षों और जीव-जंतुओं की रक्षा के लिए हजारों विश्नोइयों ने अपना जीवन न्योछावर करने में जरा सी भी हिचक नहीं दिखाई। उत्तराखंड का प्रसिद्ध "चिपको आंदोलन" विश्व विख्यात है जहां एक ग्रामीण महिला गौरा देवी के नेतृत्व में पहाड़ की स्त्रियों का हुजूम उजड़ पड़ा पेड़ों की रक्षा के लिए। उनकी एकजुटता के आगे बड़ी संख्या में पेड़ों को काटने का मंसूबा धरा रह गया। एक-एक पेड़ से महिलाएं यहां तक कि छोटी-छोटी बच्चियां भी बाहें फैला कर चिपक गयीं कि पहले हमें काटो तब पेड़ पर आरा या कुल्हाड़ी चलाना। पेड़ों को इन असंख्य बहनों ने राखी बांध दी कि पेड़ हमारे भाई हैं। इन्हें कटने नहीं देंगे। यह विडंबना ही है कि आज विकास के नाम पर लाखों-लाख पेड़ काटे जा रहे हैं, तब जबकि इसके दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं। 

वैदिक युग से प्रचलित यह पर्व हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का पुन:स्मरण कराता है। रक्षाबंधन का महत्व आज के परिप्रेक्ष्य में इसलिए भी बढ़ जाता है, क्योंकि आज मूल्यों के क्षरण के कारण सामाजिकता सिमटती जा रही है। स्त्री की अस्मिता दांव पर है। त्याग, बलिदान, विश्वास, प्रेम व समर्पण की भावनाएं विरल होती जा रही हैं। कुंठा व हताशा में डूबे आत्मकेंद्रितसमाज से स्नेह की इस पावन पर्व की जीवंतता को बनाये रखने की उम्मीद कैसे की जाए! यूरोपीय समाज से निकली फ्रेंडशिप डे और फ्रेंडशिप बैंड जैसी अवधारणाओं ने हमारे पावन पर्वों की गरिमा को धूमिल कर दिया है। रक्षा के पवित्र बंधन पर भी बाजार का ग्रहण लग गया है। कच्चे सूत और रेशम की प्यार व शुभकामनाओं भरी भरी डोर वर्तमान के इंटरनेट युग में भारी भरकम उपहारों की आस में अब सोने चांदी की महंगी महंगी राखियों में तब्दील होती जा रही है। इन्द्रिय संयम, विश्वास व मर्यादा की रक्षा का पाठ पढ़ाने वाला यह त्योहार अब दिखावा व औपचारिकता में बदल रहा है। 

आइए, भाई-बहनों के पवित्र स्नेह का प्रतीक इस पर्व के मूल तत्व को समझें। राखी के स्नेहिल धागों में बहनों ह्मदय की समस्त कोमल भावनाएं साकार हो उठती हैं। बहन भाई के हाथ में राखी बांधकर उनके मन में कर्तव्यपालन, बलिदान एवं निष्ठा की भावना जगाती है और बदले में किसी भी संकट के समय अपनी सुरक्षा व संरक्षण का उनसे आश्वासन पाती है। यह पर्व आत्मीय बंधन को मजबूती प्रदान करने के साथ-साथ हमारे भीतर सामाजिकता के भाव का विकास करता है। परिवार, समाज, देश और विश्व के प्रति अपने कर्तव्यों के प्रति हमारी जागरूकता बढ़ाता है। विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने इस पर्व पर बंगभंग के विरोध में जनजागरण किया था और इस पर्व को एकता और भाईचारे का प्रतीक बनाया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश की सीमाओं पर तैनात हमारे जांबाज सैनिकों की कलाइयों पर सजी राखियां उनके भीतर ऐसी नवऊर्जा भर देती हैं कि कर्तव्य की बलिवेदी पर कुर्बान होने में उन्हें जरा भी भय नहीं रहता। श्रावणी पर्व के इस मर्म को हृदयंगम कर भूल सुधारें और नारी रक्षा, पर्यावरण रक्षा और राष्ट्ररक्षा के पथ पर अग्रसर हों।

पूनम नेगी


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