स्वाधीनता दिवस पर विशेष : जंगे आजादी की अनकही दास्तान - पूनम नेगी


आजादी पाने के लिए देश में कई तरह के आन्दोलन हुए और हर आन्दोलन को सफल बनाने के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। आजादी का युद्ध एक साथ राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक सभी मंचों से लड़ा गया था। समूचा राष्ट्र अपनी प्रतिरोधक शक्तियों के विरुद्ध एक साथ उठ खड़ा हुआ, तब कहीं जाकर हम विजयी हुए। 15 अगस्त 1947 में ब्रिटिश राज की गुलामी से मुक्त होकर राष्ट्र जीवन में एक नये युग की शुरुआत होने तक जंगे आजादी के संघर्ष के अनेक अध्याय हैं। 

जानना दिलचस्प होगा कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पूर्व विदेशी दासता के खिलाफ की प्रतिरोधक घटनाओं को छिटपुट वारदातों का नाम देकर दबाने की कोशिश की गयी थी, उनमें राष्ट्रीयता के प्रखर स्वर निहित थे। इस बात की पुष्टि बीते दो-तीन दशकों में हुए विभिन्न शोध अध्ययनों में हुई है। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि सन् 1857 तक देश के विभिन्न भागों में अंग्रेजों की कम्पनी सरकार के खिलाफ लगभग 100 के विद्रोह हो चुके थे। यह एक ऐसा संघर्ष था, जिसमें साधु संन्यासियों से लेकर किसानों, बुनकरों, कामगारों व आम जनता ने एकजुट होकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष छेड़कर ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेशवादी विस्तार को तगड़ी चुनौती दी थी। स्वाधीनता के महासंग्राम की पृष्ठभूमि 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल और बिहार के संन्यासी और किसान विद्रोह से ही बननी शुरु हो गयी थी। 

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि तमाम राष्ट्रवीरों के नाम के वक्त के गुबार में धूमिल हो गये। देश आजाद होने के बाद धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के स्वर्णिम इतिहास को विकृत करने का जो सुनियोजित षड्यंत्र शुरु हुआ, उसी का दुष्परिणाम रहा कि स्वाधीनता संग्राम में अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले हजारों क्रांतिकारियों की घोर उपेक्षा। अनेकानेक अमर शहीदों को गुमनाम सा बनाकर स्कूली पाठ्यक्रमों से दूर रखा गया। सन् 1857 व इससे पूर्व क्रांति की जिस चिंगारी को अंग्रेजों व उनके रहनुमाओं ने सिपाही, संन्यासी विद्रोह और सामंतवादी प्रतिक्रिया बताकर माहौल को गर्म होने से रोकने का असफल प्रयास किया था; उसे वीर सावरकर ने ही नहीं वरन कार्ल मार्क्स ने भी भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी थी। हास्यास्पद है कि हमारे कुछ इतिहासकारों ने भी इसे मात्र दंगा करार दिया किंतु वृंदावन लाल वर्मा और अमृतलाल नागर सरीखे देशप्रेमी साहित्यकारों ने "झांसी की रानी" और "गदर के फूल" जैसी रचनाओं के द्वारा राष्ट्रचेतना जागृत करने के साथ यह संदेश देने का प्रयास किया कि यह सामान्य विद्रोह नहीं था, बल्कि उस चेतना का प्रतीक था, जो देश के किसानों में अंग्रेजी शासन व शोषण के खिलाफ जाग्रत हुई थी। 

इतिहासकार रणजीत गुहा लिखते हैं कि इन उग्र आंदोलनों में कोई भी बात ऐसी नहीं थी जो कि राष्ट्रीय न हो। आम जनता में इस विद्रोह का नेतृत्व सदैव राष्ट्रीयता का प्रतीक और अंग्रेजों से संघर्ष का प्रेरक तत्व बना रहा। तीर्थ स्थानों पर आने-जाने के अंगेजी प्रशासन के प्रतिबन्ध के खिलाफ क्षुब्ध साधु -संन्यासियों ने किसानों व ग्रामीण जनता के साथ मिलकर कंपनी सरकार के ठिकानों पर धावा बोल कर जो विरोध प्रदर्शन किया था; सन् 1763-1800 ई. के मध्य के इस आन्दोलन को संन्यासी-किसान विद्रोह के नाम से जाना गया। गौरतलब हो कि उसी दौरान 1770 ई. में बंगाल में भीषण अकाल भी पड़ा था। बावजूद इसके विदेशी शासकों के खिलाफ इन आंदोलनकारियों के विरोधी स्वर जरा भी मंद नहीं पड़े। दिलचस्प तथ्य यह है कि सुप्रसिद्ध उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी की "आनन्दमठ" की वास्तुकथा संन्यासी आन्दोलन पर ही आधारित है। ब्रिटिश सैन्य अधिकारी वारेन हेस्टिंग्स ने इस आन्दोलन का क्रूरतापूर्वक दमन किया था। 

इस किसान विद्रोह के उपरांत सन् 1800-01 में हुआ मरुद पांडयन का विद्रोह, सन् 1835 में पालिगारो का विद्रोह और इसके बाद विभिन्न समयों पर हुए उड़ीसा-छत्तीसगढ़ के कोल, संथाल, सिद्ध, कानू व मनज्याम के विद्रोहों ने अंग्रेज शासकों की नींद हराम कर दी थी। 1817 में ओडिशा में हुए पाइका विद्रोह ने कुछ समय के लिए पूर्वी भारत में ब्रिटिश राज की जड़ें हिला दी थीं। पाइका ओडिशा के उन गजपति शासकों के किसानों का असंगठित सैन्य दल था जो युद्ध के समय राजा को सैन्य सेवाएं मुहैया कराते थे और शांतिकाल में खेती करता था। इन लोगों ने 1817 में बक्शी जगबंधु विद्याधर के नेतृत्व में ब्रिटिश राज के विरुद्ध बगावत का झंडा बुलंद किया था। गणपति शासक परंपरागत रूप से जगन्नाथ मंदिर के संरक्षक थे। ब्रिटिश राज ने ओडिशा के उत्तर में बंगाल प्रांत और दक्षिण में स्थित मद्रास प्रांत पर अधिकार करने के बाद 1803 में जब ओडिशा को भी अपने अधिकार में करने का प्रयास किया,उस वक्त ओडिशा के तत्कालीन गजपति राजा मुकुंददेव द्वितीय अवयस्क थे मगर उनके संरक्षक जयराजगुरु ने बहुत बहादुरी से मोर्चा लिया किंतु क्रूर ब्रिटिश सैनिकों ने जयराजगुरु के जिंदा शरीर के टुकड़े कर दिये। उनकी सोच थी कि इस घटना से भयभीत होकर विद्रोहियों का हौसला पस्त हो जाएगा। मगर हुआ उल्टा। कुछ समय बाद ही गजपति राजाओं के असंगठित सैन्य दल के वंशानुगत मुखिया बक्शी जगबंधु के नेतृत्व में पाइका विद्रोहियों ने आदिवासियों और समाज के अन्य वर्गों का सहयोग लेकर बगावत कर दी। पाइका विद्रोहियों को कनिका, कुजंग, नयागढ़ और घुमसुर के राजाओं, जमींदारों, ग्राम प्रधानों और आम किसानों का समर्थन प्राप्त था। 1817 में आरंभ हुआ यह पाइका विद्रोह आसपास के क्षेत्र में बहुत तेजी से फैला। यह पाइका विद्रोह तब मुखर हुआ जब घुमसुर के 400 आदिवासियों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बगावत करते हुए खुर्दा में प्रवेश किया और ब्रिटिश राज के प्रतीकों पर हमला करते हुए पुलिस थानों, प्रशासकीय कार्यालयों और राजकोष में आग लगा दी। अंग्रेज चकित रह गए। हालांकि बाद में उन्होंने अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए इन पाइका विद्रोहियों के खिलाफ कठोर दमन चक्र चलाया जिसमें अनेक राष्ट्रवीरों को जेल में डाल दिया गया और कइयों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी, बहुत बड़ी संख्या में लोगों को क्रूर अत्याचारों का सामना करना पड़ा। कई विद्रोहियों ने 1819 तक गुरिल्ला युद्ध लड़ा, लेकिन अंत में उन्हें पकड़ कर मार दिया गया। साक्ष्य बताते हैं कि इनके मुखिया बक्शी जगबंधु को 1825 में गिरफ्तार कर लिया गया और कैद में रहते हुए ही 1829 में उनकी मृत्यु हो गयी। 

यह आंदोलन इस बात की ताकीद करता है कि सन् 1857 के प्रथम स्वाधीनता समर से पहले ही अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध भारतीयों में संघर्ष की मानसिकता पूरी तौर पर विकसित हो चुकी थी। इस आंदोलन को दबाने में अंग्रेजों का पसीना छूट गया था। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण ही माना जाना चाहिए कि भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम पर ठीक से शोध अध्ययन हुआ ही नहीं। इससे संबंधित रहस्य व घटनाएं अभी भी अभिलेखागारों में दबी पड़ी हैं। न जाने ऐसे कितने शहीद हैं जिनके नाम भी हमें पता नहीं हैं। 

यह सत्य है कि सन् 1857 में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की हुकूमत बस चांदनी चौक की कुछ गलियों तक सीमित हो गयी थी लेकिन नाना साहब, कुंवर सिंह, झांसी की रानी, तात्या टोपे आदि भारतीय रणबांकुरों ने उन्हें अपना बादशाह मानकर भारत की एकता, एकरूपता, राष्ट्रीयता के जिन नये मानकों को गढ़ा था, वे वाकई बेमिसाल हैं। 1857 का संघर्ष कोई आकस्मिक विद्रोह नहीं था। इसके लिए सुनिश्चित योजना बनाई गयी थी। यदि सामरिक दृष्टि से विचार करें पाएंगे कि प्रथम जनक्रांति के महानायक इस तथ्य को भलीभांति जानते थे कि गरम मौसम में अंगरेज नहीं लड़ पाएंगे और फिर बरसात में तो उनकी रसद की लाइनें भी कट जाएंगी। इसलिए क्रांति की चिंगारी सुलगाने के लिए उन्होंने मई का महीना चुना था। गांव-गांव में रोटी व कमल का घूमना, पेड़ों से उनकी छाल हटा देना आदि कुछ ऐसे परंपरागत तरीके थे, जिनका प्रयोग विद्रोह का संदेश भेजने के लिए इन क्रांतिवीरों द्वारा किया जाता था। 

आजादी की इस पहली जंग से जुड़ी अनेक लोकस्मृतियां आज भी पुराने लोगों के दिलोदिमाग में जीवित हैं। वीर कुंवर सिंह, करतार सिंह सराभा, महावीर सिंह राठौर, राम सिंह कूका, बधू भगत, मातादीन भंगी, उदादेवी, झलकारी बाई जैसे अनेक नाम हैं; स्थानीय स्तर पर मौजूद जिनके स्मारक उनकी शौर्य गाथाओं को बयान करते हैं। गौरतलब हो कि इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम में छोटी कही जाने वाली जातियों के लोगों ने भी बड़े काम किए थे। ऐसे ही एक वीरनायक थे- मातादीन भंगी, जिन्होंने बैरकपुर विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बैरकपुर में मंगल पांडेय को चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सर्वप्रथम मातादीन ने बताया था, और मातादीन को इसकी जानकारी उसकी पत्नी लज्जो ने दी थी, लज्जो अंग्रेज अफसरों के यहां काम करती थी, जहां उसे यह सुराग मिला कि अंग्रेज गाय की चर्बी वाले कारतूस इस्तेमाल करने जा रहे हैं। कानपुर-बिठूर के आस-पास ऐसे ही एक क्रांतिवीर थे गंगू मेहतर, जिन्हें गंगू बाबा के नाम से जाना जाता है। ये गंगू बाता नाना साहब की सेना में नकड़ची थे। ये पहलवान थे। इनका एक अखाड़ा भी था, जहां अनेक युवक इनकी उत्तादी में कुश्ती लड़ते थे। इन गंगू बाबा ने अपने पहलवानों के साथ मिलकर सन् 1857 के स्वाधीनता समर में अंगरेजों के खिलाफ युद्ध करते हुए अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया था जिस पर उन्हें फांसी दे दी गयी थी। हम सब देश की बलिवेदी पर कुर्बान होने वाली झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं बेगम हजरत महल के नाम तो जानते हैं, लेकिन तमाम अन्य के बारे में हमारी जानकारी जरा कमजोर ही है। लक्ष्मीबाई की सेना की एक जांबाज वीरांगना थीं झलकारी बाई जो जाति की कोरी थीं लेकिन रानी लक्ष्मीबाई उन्हें अपनी सहेली का मान देती थीं। उन्होंने रानी के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध संग्राम में कदम से कदम मिलाकर युद्ध किया। कम ही लोगों को पता होगा कि लखनऊ में बेगम हजरत महल की महिला सैनिक दल का नेतृत्व रहीमी के हाथों में था, जिसने फौजी भेष अपनाकर तमाम महिलाओं को तोप और बंदूक चलाना सिखाया। रहीमी की अगुवाई में इन महिलाओं ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। पेशे से तवायफ अजीजनबाईऔर हैदरीबाई ने भी क्रांतिकारियों की संगत में 1857 की क्रांति में लौ जलायी। अवध के पहले स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी ही एक वीरांगना थीं ऊदा देवी। ऊदा देवी ने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर लगभग 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया था। अंग्रेज असमंजस में पड़ गये और जब हलचल होने पर कैप्टन वेल्स ने पेड़ पर गोली चलाई तो ऊपर से एक मानवाकृति गिरी। नीचे गिरने से उसकी लाल जैकेट का ऊपरी हिस्सा खुल गया, जिससे पता चला कि वह महिला है। उस महिला का साहस देख कैप्टन वेल्स की आंखें नम हो गयीं और उसने अपना हैट उतार कर उस भारतीय वीरांगना को श्रद्धांजलि दी। अमृतलाल नागर की कृति "गदर के फूल" में इस घटना का भावपूर्ण चित्रण मिलता है। 

इतिहासकार गौतम मर्दा के मुताबिक 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मात्र क्षणिक सैनिक विद्रोह नहीं था। विडम्बना है कि ऐतिहासिक शोध के लिए प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के इतिहास विभागों ने सन् 1847 व इससे पूर्व के स्वाधीनता संग्राम पर कोई महत्वपूर्ण शोधकार्य सम्पन्न नहीं हुआ। भारत का इतिहास इसके बिना आधा-अधूरा ही रहेगा। इतिहावेत्ताओं, इतिहास के प्राध्यापकों एवं छात्रों के साथ इस विषय के समस्त शोधकर्ताओं को इस दिशा में गहराई से सोचना चाहिए।

पूनम नेगी