ओरछा यात्रावृत्त -



3 सितम्बर 2012 - पुत्रवधू सुगंधा का जन्मदिन परिवार ने ओरछा में मनाने का तय किया ! और हम सब जा पहुंचे रामराजा के दरबार ओरछा ! वेतवा के सुरम्य तट पर स्थित यह देवभूमि, बुन्देला राजाओं के अधिपत्य में रही ! अयोध्या से चलकर ओरछा आये राजाराम की कथा कुछ तो पहले से ज्ञात थी, कुछ यहाँ पहुंचकर गाईड के मुख से और जानने को मिली ! ओरछा का इतिहास जानना जितना कौतुहल प्रद था, उतना ही आप मित्रों से साझा करना आनंद दायक !

ओरछा हम लोग लगभग ३ बजे अपरान्ह पहुँच गए, मालूम हुआ कि भगवान के पट रात्री ८ बजे खुलेंगे और तभी उनके श्रीविग्रह के दर्शन संभव होंगे ! विचार बना कि तब तक यहाँ के पुरातन महलों का अवलोकन कर लिया जाए ! एक गाईड को लेकर चल दिए इस पुरासंपदा के अवलोकन को ! 

गाईड ने ही ओरछा के बसने की कथा भी सुनाई ! गढ़कुंडार के राजा रुद्रप्रताप एक दिन आखेट हेतु इस स्थल पर आये ! वे यहाँ के सुरम्य वातावरण पर मुग्ध हो गए तथा उन्होंने यहाँ ही अपनी राजधानी बनाने का निश्चय किया ! बहां बसने बाले ऋषि से उन्होंने अनुमति माँगी ! ऋषि की सहमति मिलने पर उनसे ही इस स्थान के नामकरण की भी प्रार्थना की ! महात्मा ने कहा कि प्रातः काल जागने पर तुम्हारे मुंह से जो पहला शव्द निकलेगा बही इस स्थान का नाम होगा ! सुबह जब राजा की नींद खुली तब उन्हें सामने से दो विशालकाय सिंह अपनी और आते हुए दिखाई दिए ! घबराकर उन्होंने अपने पालतू कुत्तों को चिल्लाकर निर्देशित किया “ओरछा” ! इस शव्द का बुन्देली अर्थ होता है – आक्रमण ! कुत्तों के भोंकने तथा अन्य सेवकों के शोर से सिंह तो चले गए किन्तु मुनी की आज्ञानुसार इस स्थान का नाम हो गया “ओरछा” !

केवल एक रात को आवाद रहा जहांगीर महल !
और नई राजधानी बन गई यह सुरम्य स्थली ! प्रारम्भ में राजा रानी के महल, दरवार हाल तथा चारों और के परकोटे का निर्माण हुआ ! और यह स्थान आवाद हो गया ! मुग़ल वादशाह जहांगीर के समय यहाँ के राजा थे वीरसिंह ! उन्होंने मुग़ल बादशाह की कुद्रष्टि से बचने के लिए उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयत्न किया तथा इस सुरम्य स्थल के भ्रमण हेतु आमंत्रित किया ! वादशाह की सहमति मिलने पर उनके विश्राम के लिए एक नया महल निर्माण किया गया ! जहांगीर आये तो राजा ने यह नया महल उनकी खिदमत में भेंट किया ! यह जानकर कि उनके एक रात विश्राम के लिए एक नया महल बनबाया गया है जहाँगीर बहुत खुश हुए और उन्होंने बुन्देला राजाओं से मित्रता सम्बन्ध मान्य किये ! यह अलग बात है कि बाद में ओरंगजेब के समय यह मित्रता टूट गई ! किन्तु यह जहांगीर महल आज भी विद्यमान है ! जो केवल एक रात के लिए आवाद हुआ, और उसके बाद उसमें कोई नहीं रहा ! ना तो कभी जहांगीर वापस आये और ना ही राज परिवार के किसी सदस्य ने उसे अपना आशियाना बनाया !

शीघ्र ही दूसरे महत्वपूर्ण घटना चक्र का साक्षी बना ओरछा ! उस समय यहाँ के राजा थे कृष्ण भक्त मधुकर राव ! एक दिन उन्होंने अपनी रानी कुंवरी गणेश से वृन्दावन चलने का आग्रह किया, किन्तु रानी अयोध्या चलने का प्रतिआग्रह कर बैठीं ! राजा ने इसे अपनी अवज्ञा माना ! क्षोभ और क्रोध से भरे राजा ने कहा कि क्या रानी अपने राम को ओरछा ला सकती हैं ! रानी ने भी जोश में आकर कहा कि भक्त के आग्रह पर भगवान कहीं भी आ सकते हैं ! बस फिर क्या था राजा का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया ! उन्होंने आदेश दिया कि अब आप महारानी के रूप में तब ही ओरछा में प्रवेश कर सकेंगी जब आप अपने राम को साथ लेकर आयेंगी ! अन्यथा आपको महल के बाहर भीख मांगने हेतु बैठना होगा ! रानी ने चुनौती स्वीकार की और अयोध्या पहुंचकर सरयू के किनारे तपस्या करने लगीं ! जब सात दिन भूखे प्यासे आराधना करने पर भी भगवान के दर्शन नहीं हुए तब वे सरयू में प्राण विसर्जन को उद्यत हुईं ! भक्त वत्सल भगवान यह कैसे होने देते ? बालरूप में प्रगट होकर उन्होंने रानी को रोक लिया ! गदगद रानी ने उनसे ओरछा चलने की प्रार्थना की ! भगवान ने तीन शर्तों पर उनके साथ चलना स्वीकार किया ! एक तो यह कि ओरछा के राजा वे ही होंगे, दूसरी शर्त यह कि वे केवल पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करेंगे, और अंतिम शर्त यह कि ओरछा पहुंचकर जहां भी उन्हें स्थापित कर दिया जाएगा वे बहीं रहेंगे !

राजा को भी स्वप्न में यह सब वृत्त ज्ञात करा दिया गया ! राजा अत्यंत डरे भी और भगवान के आगमन से प्रसन्न भी हुए ! उन्होंने एक भव्य मंदिर का निर्माण प्रारम्भ करा दिया ! अपने महल के ठीक सम्मुख यह नवनिर्माण प्रारम्भ हुआ ! यहाँ भी राजा का अहंकार था कि उन्हें रोज घर बैठे ही दर्शन लाभ मिले ! और उन्हें दर्शनों के लिए कहीं अन्यत्र ना जाना पड़े ! केवल पुष्य नक्षत्र में यात्रा की शर्त के चलते रानी के साथ भगवान का विग्रह १२ वर्षों में ओरछा पहुंचा ! किन्तु तब तक मंदिर निर्माण में थोड़ा सा काम शेष था ! अतः राजाज्ञा से उन्हें कुछ समय के लिए महल के नीचे रानी की रसोई में अवस्थित कर दिया गया ! मंदिर निर्माण पूर्ण होने पर जब भगवान को बहां ले चलने का प्रयत्न हुआ, तो उन्होंने रानी को उनका तीसरा वचन याद दिलाकर जाने से इनकार कर दिया ! बहुत प्रयत्न करने पर भी भगवान के विग्रह को उस रसोई से नहीं हटाया जा सका और इस प्रकार बह नया मंदिर अनुपयोगी ही रहा तथा इस प्रकार दंभ और अहंकार के हंता भगवान ने राजा को उचित सीख दी !

राजा द्वारा बनबाया गया मंदिर जिसमें रामराजा सरकार ने जाने से इंकार कर दिया !
ओरछा में आज भी राजा राम की सल्तनत चलती है ! रात्री आरती के समय उन्हें सरकार का कोई नुमाइंदा प्रणाम करने उपस्थित रहता है ! तथा सशस्त्र पुलिस द्वारा गार्ड ऑफ ओनर दिया जाता है ! यह क्रम बुन्देला राजाओं के समय से सतत चलता आ रहा है !

बाद में टीकमसिंह ने अपनी राजधानी टीकमगढ बनाई ! आखिर एक जगह दो राजा कैसे रह सकते हैं ? हा हा ! बेचारे अज्ञानी मूढमति राजा ! त्रिलोकीनाथ को एक स्थान पर सीमित मानने की भूल कर बैठे !
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