राहुल गांधी - एक झक्की और शक्की नेता !



आलेख के हैडिंग से चोंकिये मत | यह मेरा कथन नहीं है, यह लब्बोलुआब है आमतौर पर बामपंथी विचार का मानेजाने वाले अंग्रेजी समाचार पत्र में छपे आज के एक आलेख का | द प्रिंट में शिवम विज का निष्कर्ष है कि आम धारणा के अनुसार राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर होने वाले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की विजय सुनिश्चित है | साथ ही राहुल गांधी को अपनी पराजय का बहाना भी मिल जाएगा कि चुनाव में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन पुलबामा काण्ड के कारण हुआ | किन्तु इस संभावित पराजय का मुख्य कारण होगा राहुल गांधी का एक निरर्थक राजनीतिज्ञ होना । तो प्रस्तुत है श्री विज के उक्त लेख पर आधारित यह आलेख – 

भले ही कांग्रेस समर्थक यह कहें कि हम तो जीतने जा रहे थे, लेकिन पुलवामा हो गया। लेकिन सचाई यह है कि आप कभी जीतने वाले नहीं थे। एक नेता के रूप में राहुल गांधी में "सुधार" वास्तविक नहीं बल्कि ख्याली पुलाव थे । 

कांग्रेस के लिए 11 दिसंबर 2018 का दिन एक महत्वपूर्ण मोड़ था जब भाजपा को तीन हिंदीभाषी राज्यों में पराजय का सामना करना पड़ा। राजनीतिक हवा मोदी के खिलाफ बहने लगी थी । यह राहुल गांधी के लिए एक अच्छा अवसर था। 

राहुल गांधी को 11 दिसंबर और 14 फरवरी को हुए पुलवामा हमले के बीच क्या करना चाहिए था - 

सबसे पहले, उन्हें बेरोजगारी और कृषि संकट को लेकर एक राष्ट्रव्यापी अभियान छेड़ना चाहिए था। 

दूसरा, उन्हें देश भर में क्षेत्रीय दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन करना चाहिए था। 

तीसरा, उन्हें सक्रिय चुनाव प्रचार से सोनिया गांधी की अनुपस्थिति के कारण और अपने स्वयं में राजनीतिक करिश्मे की कमी को समझकर प्रियंका गांधी को लॉन्च करना चाहिए था। 

लेकिन उन्होंने तीनों मोर्चों पर कुछ नहीं किया । 

अगर वे यह तीनों कार्य कर लेते तो कांग्रेसनीत गठबंधन नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाले एनडीए के विरुद्ध एक राष्ट्रीय विकल्प बन सकता था । वे मतदाताओं को यह महसूस करवा सकते थे कि मोदी के विरुद्ध सीधी चुनौती है, और कोई अस्थिर तीसरा मोर्चा नहीं है । 

लेकिन वे संतरे बेचते रहे, जबकि लोग सेब चाहते थे 

तीन राज्यों का संदेश स्पष्ट था कि मतदाता विकास, सुशासन, आर्थिक मुद्दे, कृषि संकट जैसी मूलभूत समस्याओं का समाधान चाहते हैं । लेकिन राहुल गांधी राफेल, राफेल, राफेल का बेसुरा राग अलापते रहे । 

एक अच्छे राजनेता का काम जन भावनाएं पहचान कर उनकी आवाज बनना होता है। विरोध पक्ष का काम लोगों की चिंताओं को प्रतिबिंबित करना है, और उन मुद्दों पर सरकार को कठघरे में खड़ा करना है। 

राहुल गांधी राफेल का मुद्दा इसलिए उठा रहे थे क्योंकि उन्हें लगा था कि इसके माध्यम से वे मोदी की ईमानदार छवि को धूमिल करने में सफल हो सकते हैं । लेकिन वे भूल गए कि उनकी व उनके नजदीकियों की कुख्याति इसमें कहीं बड़ा रोड़ा है । 

लोग एक ऐसे नेता की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो बेरोजगारी, किसानों की आय बढ़ाने जैसे संकटों को समझे और उनके समाधान की चिंता करे । लेकिन राहुल गांधी पिछले कुछ हफ्तों से क्या कह रहे हैं ? केवल और केवल राफेल और 'चौकीदार चोर है' के नारे । राहुल लोगों के दिमाग को नहीं पढ़ पा रहे, वे बेरोजगारी और कृषि संकट के मुद्दों पर इस तरह का कोई नारा देने में विफल रहे हैं। 

जहाँ राहुल 11 दिसंबर की गति को बनाए रखने में विफल रहे, वहीँ मोदी ने इन मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए, उच्च जाति के गरीबों के लिए नौकरी में आरक्षण और छोटे किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये देने की न केवल घोषणा की, बल्कि उन्हें अमल में भी लाना शुरू कर दिया । 

गठबंधन बनाने में विफलता 

अब किसी भी समय चुनाव की तारीखों की घोषणा होने वाली है, लेकिन कांग्रेस ने केवल दो राज्यों, तमिलनाडु और झारखंड में चुनाव पूर्व गठबंधन को अंतिम रूप दिया है। कांग्रेस अभी तक बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र या किसी भी अन्य राज्य में अपने गठबंधन को अंतिम नहीं दे पाई है। 

इसके विपरीत, भाजपा ने तमिलनाडु जैसे राज्य में भी अपने गठबंधन पर मोहर लगा दी है, जहां उसका प्रभाव नगण्य कहा जा सकता है। एकमात्र प्रमुख राज्य जहां भाजपा को चुनाव पूर्व गठबंधन पर मुहर लगाना बाकी है, वह उत्तर प्रदेश है, जहां वह ज्यादातर सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। 

उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन से राहुल गांधी के अहंकार के कारण कांग्रेस अलग थलग हो चुकी है । अन्य राज्यों में सुस्ती के लिए भी पुलवामा और बालाकोट को कारण नहीं कहा जा सकता । जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा संकट के समय कांग्रेस के पास पर्याप्त खाली समय था, क्योंकि उनके बहुत सारे सार्वजनिक कार्यक्रमों को निलंबित कर दिया गया था। 

लेकिन उन्हें तो खाली समय में छुट्टियां मनाना पसंद है । जनवरी-अंत में वे गोवा की सैर कर रहे थे । दुबई में उन्हें अनिवासी भारतीयों के साथ बातचीत करने की आवश्यकता थी, लेकिन वे वहाँ से कई दिनों के लिए गायब हो गए। कहाँ नरेंद्र मोदी जो विगत पांच वर्षों में बिना एक भी छुट्टी लिए, लगातार चौबीस में से अठारह घंटे काम में जुटे रहे, कहाँ राहुल, जिनकी प्राथमिकता निजी मनोविनोद है । मानसरोवर यात्रा पर भी गए तो “पहले पेटपूजा फिर काम दूजा” | 

ब्रह्मास्त्र की बर्बादी 

गजब की रणनीति है - प्रियंका गांधी वाड्रा के औपचारिक राजनीति प्रवेश की घोषणा तब हुई, जब वे अमरीका में थीं । प्रियंका गांधी का लखनऊ रोड शो हुआ, लेकिन कोई भाषण नहीं, इससे सार्वजनिक जीवन में उनकी किरकिरी ही हुई । 

शायद राहुल गांधी मन से चाहते ही नहीं, कि प्रियंका राजनीति में सक्रिय हों, क्योंकि उनके सामने वे स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं । 11 दिसंबर को तीन राज्यों का चुनाव जीतने के बाद, उन्हें लगा कि प्रियंका को लाना ही क्यों ? उनके शक्की स्वभाव ने उन्हें एक अच्छे अवसर से वंचित कर दिया, क्योंकि वर्तमान में कांग्रेस के पास एक स्टार प्रचारक की बेहद कमी है । ना तो कोई वक्ता है, ना कोई संगठक । जबकि सामने है मोदी जैसे प्रखर वक्ता और कार्यकर्ताओं को साधने के लिए अमित शाह और सबसे बढ़कर संघ टोली | 

प्रियंका कार्ड जिस तरह से खेला गया है, उससे वह फुस्सी बम बनकर रह गई जिससे कोई धमाका नहीं होने वाला । शायद, राहुल गांधी भी यही चाहते थे । 

जिस तरह से वे मनमानी कर रहे हैं, उससे यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी न केवल कांग्रेस के सबसे निरंकुश राजनेता बन गए हैं, बल्कि उनकी झक और असुरक्षा की भावना के चलते यह राष्ट्रीय पार्टी अपने सबसे खराब दौर की ओर अग्रसर है । जी हाँ कोई अचम्भा नहीं कि इस बार वे न्यूनतम सांसदों का नया कीर्तिमान स्थापित करें | 

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