आरएसएस कल और आज : वाल्टर के. एंडरसन

वाल्टर के. एंडरसन “Brotherhood in Saffron” के सह लेखक हैं | उनका मानना है कि हिंदुत्व का पुनरुत्थान, आरएसएस और संघ परिवार का मौलिक काम है | वर्तमान में एंडरसन 1987 में प्रकाशित अपनी उसी पुस्तक के नए संस्करण पर काम कर रहे हैं | उन्होंने अपनी इस पुस्तक के विषय में निस्तुला हेब्बार से न्यूयार्क में बातचीत की । उन्होंने दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार और मोदी राज में हिंदुत्व जैसे विषयों पर भी अपनी राय दी ।
28 वर्ष बाद आप पुनः आरएसएस पर लिख रहे है, आपका प्रारंभिक अभिमत क्या है?

मुझे लगता है कि अब आरएसएस और उसका नेतृत्व, और उससे भी कहीं अधिक उसकी सदस्यता, पहले से कहीं अधिक कार्यकर्ता उन्मुख है। इससे पूर्व यह अत्यधिक दार्शनिक और लगभग धर्म उन्मुख था | अब यह नीतियों की ओर अधिक उन्मुख है और मुद्दों को कैसे हल किया जाये, इसके प्रति इनका दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक है । संगठन में भागीदारी और राजनीतिकरण की प्रवृत्ति बढी है जिसके कारण इसकी संरचना में एक प्रकार का तनाव उत्पन्न हुआ है।

किस प्रकार का तनाव ?

अच्छा प्रश्न है, अभी भी आपको ऐसे लोग मिल जायेंगे जो पूर्व सरसंघचालक एम.एस. गोलवलकर के पुराने रुख का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि कुछ दूसरे प्रकार के भी हैं | लेकिन जहाँ तक विशेष रूप से गोलवलकर का सवाल है, उनका मानना था कि आरएसएस एक चरित्र निर्माण संस्था होना चाहिए - कुछ कुछ स्कूलों की तरह – जबकि राजनीति चरित्र को कई प्रकार से कलंकित करती है, साथ ही आपको नैतिक रूप से कमजोर भी, और चूंकि आरएसएस एक नैतिक संस्था है, अतः उसे अपने चरित्र और नैतिकता को प्रधानता देते हुए, स्वयं को उसके प्रभाव से अछूता रखना चाहिए ।

मुझे लगता है कि अब उस अभिमत को महत्वहीन तो नहीं माना जा रहा, किन्तु उसके प्रति ज्यादा सक्रियता नहीं है | उसके स्थान पर कार्यकर्ता उन्मुखीकरण के प्रति ज्यादा रुझान है ।

राजनीतिक शाखा भाजपा के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के रिश्तों के संदर्भ में, आप क्या बदलाव अनुभव करते हैं?

खैर, 2014 के आम चुनाव में आरएसएस कैडर और नेतृत्व, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए उत्साह से सक्रिय हुआ और कुछ हद तक जीत में उनका भी योगदान रहा ।

और अगर आप वरिष्ठ नेतृत्व को देखें तो मंत्रालयों में या हरियाणा के नए मुख्यमंत्री जैसे कुछ लोग स्पष्ट तौर पर आरएसएस के सदस्य हैं। उनके लिए नौकरियों या समाज को प्रभावित करने के अवसर खोल दिये गए है, जबकि पहले इस प्रकार के अवसर नहीं थे । वे अक्सर कहते रहे हैं कि वे अंतिम आश्रय के न्यायाधीश हैं किन्तु अब वे खुद भी बैसे ही दिखाई दे रहे हैं | इस कारण राजनीतिक विंग और आरएसएस के बीच तनाव स्वाभाविक है । अगर आप न्यायाधीश है तो आपको हर विवाद से ऊपर होना चाहिए, आप विवाद का हिस्सा नहीं हो सकते |

मोदी सरकार को एक वर्ष से अधिक हो गया है। आप इसका कैसे मूल्यांकन करते हैं?

मैं कई लोगों को जानता हूँ जो महसूस करते हैं, कि सरकार अत्याधिक सतर्क है, लेकिन मतदातों की अपेक्षाएं बहुत अधिक हैं | सरकार मतदाताओं से किये गए रोजगार सृजन के वादे पर खरी नहीं उतर रही । मुद्दा यह है कि इस प्रकार के मामलों में समय लगता है, और परिणाम देने के लिए नये लोगों को ढूँढना भी मुश्किल काम है । अपेक्षाओं के अनुरूप परिणाम देने की यह एक प्रकार की आंतरिक संगोष्ठी है, उनमें बहुतायत ऐसे लोगों की है भी, जिन्होंने संभलकर राजनीति करते हुए, सरकार वास्तव में क्या है इसका प्रदर्शन किया है ।

उसका एक प्रमुख उदाहरण है भूमि अधिग्रहण का मुद्दा, जिसको लेकर न केवल विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच मतभेद है, बल्कि संघ परिवार के भीतर भी सहमती नहीं है। यह भी ऐसा अद्भुत मामला है, जिसमें मध्यस्थ के रूप में आरएसएस की भूमिका हो सकती है। लेकिन समस्या यह है कि संबंधों के बावजूद पहलुओं से निपटने के संघ परिवार और सरकार के तरीके अलग अलग हैं । जैसे कि संघ की “घर वापसी” और अन्य सांस्कृतिक परियोजनायें, जिन्होंने सरकार के सामने समस्या ही खडी की है ।

लेकिन आर्थिक मुद्दा ऐसा है जहाँ बड़ी गलती की संभावना है । एक ओर तो दुनिया भर की सामाजिक, रूढ़िवादी, राजनीतिक संरचनाएं अलग प्रकार की आर्थिक नीतियां चाहती हैं, किन्तु संघ परिवार का सांस्कृतिक रूढ़िवादी आर्थिक सोच लगभग वामपंथी चिंतन के नजदीक है। इस सरकार को इन दो धाराओं के बीच में से मार्ग निकालना है, और यही लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और उससे जुड़ा हुआ है। सरकार की जो भी आलोचना की गई है और मुझे लगता है कि उस आलोचना को बंद करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए ।

संघ अपनी सवर्ण छवि को तोड़ने की बहुत कोशिश कर रहा है । क्या आपको लगता है कि 2019 में दोनों राष्ट्रीय दलों में जातीय राजनीति की प्रतिस्पर्धा होगी ?

यह बहुत कुछ नेतृत्व पर निर्भर करता है। भाजपा के पक्ष में सबसे बड़ा लाभ आरएसएस और उसका कैडर है। और अब विशाल सदस्यता के साथ स्वयं राजनीतिक विंग भी | महत्वपूर्ण यह है कि उन्हें किस प्रकार प्रशिक्षित किया जाएगा । संगठन बहुत मायने रखता है और उससे महत्वपूर्ण अंतर आता है । लेकिन फिर भी जहाँ तक मेरी धारणा है, 2019 में रोजगार सृजन जैसे मुद्दे अधिक प्रभावी रहेंगे ।

लगता है आम आदमी पार्टी ने जनता की कल्पनाओं पर कब्जा कर लिया है । आप अरविंद केजरीवाल की तुलना में संघ को कैसे देखते हैं, और क्या संघ उन्हें एक चुनौती के रूप में देखता है?

हाँ, और संघ के भीतर भी उनके कुछ प्रशंसक हैं । मैंने संगठन में कई लोगों से बात की है, जो उनके भ्रष्टाचार विरोधी रुख के बारे में गंभीरता से विचार करते हैं, और प्रतिष्ठान को अपनी मुट्ठी में लेने की उनकी क्षमता के प्रशंसक हैं ।

लेकिन वे लोग इस बात से राहत भी महसूस करते हैं कि दिल्ली के बाहर उनकी कोई महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति नहीं है, तथा उनकी पार्टी गहरी संगठनात्मक समस्याओं से जूझ रही है। जिन कुछ लोगों से मैंने बात की, उनका कहना था कि दिल्ली चुनाव में कुछ बड़ी गलतियाँ हुईं, लेकिन उन्हें विश्वास है कि आम आदमी पार्टी कोई बड़ी चुनौती साबित नहीं होंगी |

(साभार : The Economic Times July 19, 2015 में प्रकाशित लेख का हिन्दी अनुवाद |)

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