जातिवाद के सर्प से डंसा हुआ बिहार


आज बिहार के मुख्य-मंत्री के एक साक्षात्कार का विवरण पढ़ते पढ़ते मुझे एक प्रसंग सहज स्मरण हो आया | मुख्य मंत्री नीतीश जी कह रहे थे कि जनता ने अगर हमें नकारा तो मेरा क्या नुकसान होगा, नुकसान तो बिहार का होगा | बजा फरमाया नीतीश जी ! चुनाव में किसी दल या व्यक्ति की जीत हार अंततः समाज पर भी प्रभाव छोड़ती ही है | नफा नुकसान समाज का ही होता है |

विगत बिहार विधानसभा चुनाव में देखा गया एक मंजर मुझे ध्यान आ रहा है | ढाका कसबे में नामांकन की गहमागहमी थी | उस दिन चिरैया और ढाका विधान सभा के लगभग सभी प्रमुख प्रत्यासियों ने अपने नामांकन पत्र दाखिल किये थे | सो भारी भीड़ भाड़ का माहौल था | भाजपा प्रत्यासी अवनीश सिंह की प्रथम चुनावी सभा को चलती छोड़कर, मैं चिरैया स्थित पार्टी कार्यालय के लिए निकला | हम चिरैया के लगभग नजदीक पहुँच चुके थे, कि अकस्मात तेज गति से हमारे आगे चल रहा एक मिनी ट्रक बेकाबू होकर पलट गया | ट्रक में आरजेडी के कार्यकर्ता ठूंस ठूंस कर भरे हुए थे | 

मुझे हैरत तब हुई, जब हमारे ड्राईवर ने गाड़ी रोकने के स्थान पर यू टर्न लेकर वापस ढाका की तरफ लौटना शुरू कर दिया | मैंने उसे रोकने की कोशिश की, “अरे भाई, लोगों की मदद करो, भाग क्यों रहे हो ?”

साथ के सब लोग एक स्वर में बोले – “भाई साहब यह बिहार है, आपका मध्यप्रदेश नहीं ! इन घायलों में अधिकाँश यादव हैं, और आसपास यादवों का ही गाँव है | आप मदद करने जायेंगे और यादव आकर आपकी ही धुनाई लगायेंगे | कहेंगे कि इस जीप वाले ने ही कट मारा होगा, जिसके कारण यह हादसा हुआ |”

इतना पारस्परिक अविश्वास ? समझ की ऐसी बेमिसाल कमी ? अगर वे स्थानीय लोग सही थे, तोभी और अगर वे गलत थे, तोभी |

मैंने अविलम्ब ढाका में फोन लगाकर अवनीश सिंह जी तक सूचना पहुंचाई और वहां से भाजपा के स्थानीय नेतागण पुलिस और डॉक्टरों की टीम लेकर दुर्घटनास्थल पर पहुंचे, लेकिन इसमें समय तो निकला ही | बाद में ज्ञात हुआ कि दुर्घटना में ग्यारह लोगों की जानें गईं | अगर हमारा जीप ड्राईवर कुछ घायलों को तुरंत ढाका चिकित्सालय ले जाता तो शायद एक दो लोगों की जान बच सकती थी | मुझे इतना संतोष अवश्य रहा कि दुर्घटनास्थल तक सबसे पहले भाजपा कार्यकर्ता पहुंचे |

अब आप कहेंगे कि इस घटना का नीतीश जी के बयान से क्या साम्य ? बिहार में पिछले अनेक वर्षों से लगातार या तो लालू जी का राज रहा है अथवा नीतीश जी का | दोनों ने ही जातिवादी राजनीति को ही बढ़ावा दिया है | लालू जी ने पिछड़ा और दलित कार्ड खेला तो उनके तत्समय प्रतिद्वंदी नीतीश जी ने तुर्की बतुर्की अति पिछड़े और महादलित के नाम से समाज को बांटा | और यही वह मानसिकता है, जिसमें बंटते बंटते समाज इस हद तक बंट जाता है, कि मानवीय आधार पर किसी की मदद करना भी संदेह की नज़रों से देखा और समझा जाता है |

विगत लोकसभा चुनाव में बिहार की जनता ने जातिवाद से ऊपर उठकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास जताया | बिहार हो या उत्तरप्रदेश या देश के अन्य प्रांत, आवश्यकता इस संकीर्णता से मुक्ति पाने की है | जातिवाद से छुटकारा पाने की है | नरेंद्र दामोदर दास मोदी के अतिरिक्त कोई अन्य यह चमत्कार कर सकता है, या करना चाहता है, मुझे नहीं लगता | 

बेशक यह तुरंत होने वाला काम नहीं है, लेकिन इसकी नियत तो होना चाहिए | अन्य किसी राजनैतिक दल में यह नियत कम से कम मुझे तो नहीं दिखती | इसलिए मैं ह्रदय से चाहता हूँ, कि भाजपा विजई हो और जातिवाद के सर्प द्वारा डँसे हुए समाज पर चढ़े इस जहर को उतारने का मंतर पढ़े |

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