राजनियंत्रित शिक्षा का परिणाम - एकलव्य के साथ अन्याय !



वैदिक काल में शिक्षा स्वतंत्र थी, उस पर राज्यसत्ता का नियंत्रण नहीं था | इन गुरुकुलों के आचार्यों का एक ही लक्ष्य होता था – मानवता के स्तर को ऊंचा करना | ये लोग वेतनभोगी नहीं होते थे, अतः उनमें दब्बूपन भी नहीं होता था | केवल भोजन और वस्त्र भर ही उनकी आवश्यकता होती थी, जिसकी स्वतः पूर्ति समाज ही कर देता था | सभी अध्यापक वान्यप्रस्थी होने के कारण उनपर पारिवारिक उत्तरदायित्व भी नहीं होता था | इनमें से कोई यदि राज्यसभा में जाता तो राजा सहित सारी सभा खड़े होकर उनका सम्मान करती | इन निर्धन लोगों का इतना आदर हुआ करता था |

इन गुरुकुलों में समानता का व्यवहार होता था | बालक राजा का हो, सरदार का हो अथवा किसी महादरिद्री का, एक बार गुरुकुल में प्रविष्ट हुआ तो फिर उसका एक ही दर्जा होता था और वह था विद्यार्थी का | यही कारण था कि राजाधिराज कृष्ण और दरिद्रता की प्रतिमूर्ति सुदामा गुरुकुल में समानता से रहे | रहना, खाना, वस्त्र और विद्या अध्ययन, सब समान होने के कारण पारस्परिक बैमनस्य का कोई प्रश्न ही नहीं होता था |

लेकिन इस स्थिति में धीरे धीरे परिवर्तन आया | भीष्म पितामह ने सोचा कि हमारे घर में ध्रतराष्ट्र के 101 और पांडू के 5 पुत्र तो हैं ही, कुछ बालक अन्य सरदारों के भी इकट्ठे हो जायेंगे | इन राजपुत्रों को किसी गुरुकुल में भेजने के बजाय उनके लिए घर में ही अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था करवाई जा सकती है | यह सोचकर भीष्म ने अपना ही महाविद्यालय हस्तिनापुर में प्रारम्भ करवा दिया | सौभाग्य से उन्हें द्रोणाचार्य जैसे सुयोग्य आचार्य भी मिला गए |

बस यहीं से शिक्षा का स्वरुप बदलना प्रारम्भ हुआ | बैयक्तिक योग्यता की दृष्टि से द्रोणाचार्य, कृपाचार्य अत्यंत प्रामाणिक व महान थे, किन्तु वेतनभोगी होने के कारण ओजस्विता का क्षय हो गया | दुर्योधन द्रोण का शिष्य तो था, किन्तु साथ ही युवराज भी था, जिसका अभिमान उसके ह्रदय में सदा जागृत रहता था | कौरवों के राजमहल में चलने वाली राजनीति ने इस शिक्षा केंद्र पर भी अपना असर दिखाया | वनवासी एकलव्य को इस गुरुकुल में प्रवेश नहीं मिल पाया | दुर्योधन के दंभ से आहत द्रोणाचार्य के मन में उसके प्रति नाराजगी पनपने लगी तथा इसी कारण अर्जुन के प्रति अनुराग भी बढ़ने लगा | स्वाभाविक ही इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप दुर्योधन का अर्जुन के प्रति द्वेष भी बढ़ने लगा | 

हालत बदतर होते गए | यहाँ तक कि शिक्षण संस्था में आचार्य द्रोण का अनुशासन चलने के स्थान पर दुर्योधन की राजाज्ञा चलने लगी | इस हद तक कि उसकी आज्ञा से द्रोणाचार्य व कृपाचार्य को दूसरे के गौधन पर डाका डालने भी जाना पडा | अगर आचार्य वेतनभोगी न होकर स्वतंत्र होते, तो क्या इस प्रकार दूसरे की गाय चुराने जाते ? या वनवासी एकलव्य का अंगूठा माँगते ? यह अवनति राजनियंत्रण के कारण ही हुई |

आज की शिक्षा प्रणाली भी राज्य नियंत्रित होने के कारण अध्यापक उसमें कोई सुधार करने में असमर्थ रहते हैं | न तो वे विद्यार्थियों के देश के अच्छे नागरिक बनाने के लिए नैतिक शिक्षा दे सकते और ना ही उनकी योग्यतानुसार विषय का सुझाव दे सकते | महज लकीर के फकीर बनकर उन्हें राजाज्ञा का पालन करना होता है | कई बार तो शिक्षा के इतर कार्य भी उनसे करवाए जाते हैं, जिसे जन गणना या चुनाव ड्यूटी आदि | भला इनका शिक्षा से क्या सरोकार ? 

बेहतर हो कि अब स्वाधीन भारत में शिक्षा भी स्वाधीन हो |

एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें