क्या कश्मीर में भाजपा का दुस्साहस देगा महबूबा को राजनैतिक अवसर ? - प्रवीण गुगनानी



जम्मू कश्मीर में नवगठित सरकार के नौ माह पूर्ण होते होते ही मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया. सामान्यतः यह माना जा रहा था कि मुफ़्ती के बाद उनकी राजनैतिक पूंजी को पूर्व से ही संभाल रही महबूबा मुख्यमंत्री बन जायेगी. महबूबा मुख्यमंत्री बन भी रही है किन्तु यह सब सामान्यतः नहीं हुआ. घटनाओं, समीक्षाओं, शर्तों, मान-मनौवलों के दौर के बाद ऐसा हो पाया. 

गत वर्ष जम्मू कश्मीर में हुए विसचुनावों के बाद मैनें वहां की नवगठित भाजपा-पीडीपी सरकार के गठन पर एक आलेख लिखा था – “कश्मीर में दुस्साहसी किन्तु प्रतिबद्ध भाजपा”. इस लेख में मैनें इस युग्म सरकार को पंचामृत की संज्ञा दी थी और भाजपा को दुस्साहसी किन्तु प्रतिबद्ध की. पंचामृत भारतीय परम्परा का वह मिश्रण पदार्थ है जिसे नितांत विपरीत स्वभाववाली वस्तुओं के सम्मिश्रण से बनाया जाता है. गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, शर्करा व शहद जैसी भिन्न व विरोधी प्रकृति से बननें वाला पंचामृत, भगवान को अर्पित होकर चरणामृत बन जाता है. उसे भक्तों को वितरित करते समय पुजारी जिस मन्त्र का जाप करता है उसका अर्थ भी कश्मीर की मुफ़्ती सरकारसे प्रासंगिक है. अर्थ है - 

“अकाल मृत्यु का हरण करने वाले और समस्त रोगों के विनाशक, श्रीविष्णु का चरणोदक पीकर पुनर्जन्म नहीं होता वह चराचर जगत के बंधनों से मुक्त हो जाता है.” माना गया था कि दूध की शुभ्रता, दही जैसी दूसरों को अपनें तत्वमें विलय कर लेनें की क्षमता, घी की स्निग्धता अर्थात स्नेह, शहद की शक्ति और शक्कर की मिठास के भाव से बनी यह सरकार अटलबिहारी वाजपेयी के विजन व मुफ़्ती के हीलिंग टच नीति को कश्मीर में साकार करनें का लक्ष्य लिए हुए होगी. किन्तु दुर्भाग्य से मुफ़्ती सरकार ने अपनें गठन के दस दिनों के भीतर ही हीलिंग टच पालिसी का नाम ही विकृत कर दिया और कई अपराधी, अलगाववादियों को रिहा कर दिया. इतना ही नहीं तो आगे भी ऐसा ही करनें का संकल्प भी प्रदर्शित किया ! 

अफजल गुरु, पाक प्रशंसा और मसरत जैसे कांड भाजपा के लिए कटुक-बटुक स्मृतियां बन गए थे. मुफ़्ती द्वारा मुख्यमंत्री बननें के तुरंत बाद किये गए इस बड़े निर्णय से भाजपा सकते में आ गयी थी. भाजपा को मुफ़्ती के साथ सरकार बनानें के निर्णय हेतु अपनें परम्परागत समर्थकों की पहले ही कभी दबी तो कभी मुखर आलोचना झेलनी पड़ रही थी. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के कश्मीर में हुए बलिदान, धारा 370, एक ध्वजा एक विधान जैसे मुद्दों पर चुप्पी साधे भाजपा को सत्ता लोलूप तक कहा जा रहा था. कश्मीर में अलगाववादियों की रिहाई से भाजपा की कश्मीर नीति उसके अपनें समर्थकों के ही तीक्ष्ण निशानें पर आ गई, तब भी उसनें धेर्य नहीं छोड़ा और इस विषय को आगे और रिहाई न होनें देकर संभाल लिया था. 

भाजपा ने पिछले नौ दस माह में कश्मीर सम्बंधित सभी आग्रहों, संकल्पों पर धेर्य रखकर पीडीपी को परिपक्व व दीर्घकालीन मानस का परिचय दिया है. अब जब भाजपा को महबूबा के साथ कश्मीर में भागीदारी निभानें की संभावना है, तब स्वाभाविक ही उसे अधिक सावधान व चैतन्य रहना होगा. यह स्पष्ट है कि महबूबा प्रारम्भ से ही भाजपा संग सरकार बनानें को राजी नहीं थी और यह उन्होंने यह विरोध मुखर रूप से मुफ़्ती मोहम्मद के सामनें प्रकट भी किया था. अपनें पिता की मज़बूरी में गठबंधन सरकार को चलानें वाली महबूबा का हालिया व्यवहार यह स्पष्ट प्रदर्शित कर चुका है कि भाजपा संग सरकार नहीं बनानें का उनका आग्रह अब भी उनमें पैनेपन के साथ उपस्थित है. किन्तु महबूबा यह भी जानती है कि यदि वर्तमान परिस्थितियों में वह भाजपा के साथ सरकार न बना कर विस चुनाव का मार्ग प्रदर्शित करती है तो उसके लिए कश्मीर में पहले जितनी सीटें पाना असंभव जैसा होगा. पीडीपी को वर्तमान स्थिति में तिहरी हानि झेलनी पड़ रही है- 

1.भाजपा संग सरकार बनानें के कारण पीडीपी को परम्परागत समर्थकों में जितनी हानि होनी थी वह स्थायी रूप से हो गई है. 

2. पीडीपी के परम्परागत गढ़ दक्षिण कश्मीर में वह सत्ता का समुचित उपयोग नहीं कर पाई और उस पर कुछ रणनीतिक चूक भी कर बैठी. 

3. पीडीपी की छवि जो नेशनल कांफ्रेंस के विकल्प के रूप में विकसित हो रही थी वह एकाएक भंग हो गई है. 

महबूबा की प्रशंसा करनी होगी कि इतनी कमजोर स्थिति में भी उसनें भाजपा संग सरकार गठित करनें के विकल्प को कुछ समय लटकाए रखकर व भाजपा के सामनें कुछ शर्तें रखकर कद्दावर दिखनें का प्रयास किया. यद्दपि स्पष्ट दिख रहा है कि भाजपा महबूबा के झांसें में नहीं आ रही है और वह मजबूती से अपनें स्थान को संभाले हुए है. महबूबा प्रयास कर रही है कि वह भाजपा को उप मुख्यमंत्री का पद न दे, कुछ अधिक वित्तीय सहायता प्राप्त करे, कुछ संवेदनशील विषयों में भाजपा को सीमित भूमिका निभानें का कहे और बड़े मंत्री पद पीडीपी के पास ही रहें. 

इस सब पर भाजपा की चुप्पी और स्थितप्रज्ञता महबूबा को विकल्पहीन करते जा रही है. भाजपा के लिए भी कश्मीर में कांग्रेस की सक्रियता कुछ सिरदर्द तो उत्पन्न कर ही रही है. सोनिया गांधी महबूबा के साथ केमिस्ट्री मिलान करनें का प्रयास दो-तीन माह से कर रही हैं, वे पहले दो बार मुफ़्ती को देखनें के बहानें एम्स पंहुची थी. इतना ही नहीं तो एम्स में महबूबा के उपस्थित नहीं होनें पर सोनिया ने महबूबा की प्रतीक्षा की और उनके लौटनें पर ही वे वहां से वापिस हुई थी. सोनिया ने अपनें राजनैतिक एजेंट के रूप में अहमद पटेल को महबूबा के संपर्क में रहनें का कार्य सौंपा. अहमद पटेल कई बार एम्स गए और महबूबा के सतत संपर्क में रहे, इस कार्य में वे कश्मीरी कांग्रेस नेता आजाद से भी समन्वय बैठाते रहे हैं. कांग्रेस-पीडीपी गठबंधन द्वारा, जो कि बहुमत से चार अंकों की दूरी पर है, संभावनाएं खोजना स्वाभाविक ही है. 

यहां महबूबा को 2002 की कड़वी स्मृतियां ध्यान आ रही होंगी जब कांग्रेस की जिद के कारण महबूबा के नाम पर चुनाव जीती पीडीपी को कांग्रेस नें जिदपूर्वक मजबूर किया था कि गठबंधन सरकार की मुख्यमंत्री महबूबा नहीं बल्कि मुफ़्ती मोहम्मद बनेंगे. कांग्रेस की जिद से मुफ़्ती को मुख्यमंत्री बननें पर पीडीपी समर्थक हैरान हो गए थे क्योंकि उन्होंने महबूबा को मुख्यमंत्री मानकर चुनाव अभियान चलाया था.

महबूबा जानती है कि पीडीपी के भविष्य हेतु नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस दोनों का ही साथ उत्तम विकल्प नहीं है, किसी प्रकार का जोखिम लेनें की स्थिति उनके पास नहीं है और विकल्पहीनता की यह स्थिति उन्हें भाजपा के साथ ला खड़ा करती है. किंतु एक चतुर व अनुभवी राजनेता होनें के कारण उन्हें पता है कि यह नई राजनैतिक कहानी उन्हें दक्षिण कश्मीर की नेता होनें की छवि से बाहर निकालकर समूचे जम्मू-कश्मीर की नेता बन जानें का अवसर भी दे सकती है.

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