एक ज्वलंत प्रश्न - आरक्षण, एकलव्य और अंगुलीमाल - सुनील अग्रवाल


सबसे पहले यह डिस्क्लेमर कि मुझे आरक्षण से कोई दिक्कत नहीं है. जिन-जिन क्षेत्रों में करना हो, आप शत-प्रतिशत आरक्षण कर दीजिये. और फिर दो टुक हमें बता दीजिये कि शेष क्षेत्रों के लिए ही अनारक्षित वर्ग के लोग कोशिश करें. एक बार मोहभंग होने पर ये वर्ग किसी नए खांडवप्रस्थ में चले जाएंगे, इन्द्रप्रस्थ बना देंगे उसे ही अपने सामर्थ्य से. तय मानिए.

अब मूल बात पर आते हैं. एकलव्य का कथानक आखिर क्या बताता है हमें? ज़ाहिर है वह योग्यता पर जाति को प्राथमिकता देने की शिकायत ही करता है? है न? जातिभेद के कारण ही तो उन्हें अंगूठा देना पड़ा था न? अब ये बताइये, आरक्षण का आधार क्या है? जाति ही न? तो क्या बदला आखिर? आज भी अंततः योग्यता पर जाति को ही प्रश्रय देने की प्रथा कायम है न? बस गर्दन और हाथों की ज़रा अदला-बदली हो गया है. खंजर तो बिलकुल वही है, जातिवादी-सामंतवादी. 

तब किसी एक पीड़ित की अंगुली चली गयी और उसकी लानत-मलानत इतिहास से लेकर वर्तमान तक सभी करते हैं. एक स्वर में उसे असंवैधानिक-असंसदीय ठीक ही कहा जाता है. लेकिन आज जाति के आधार पर करोड़ों अंगुली काट लेना (सवर्णों को अवसर से वंचित कर देना) बजाप्ता संवैधानिक आधिकार है. कल के द्रोण को हम सभी लांछित करते हैं, आज के बाबा साहब को हम सब एक स्वर में अपने करोड़ों अंगुलियों से रिसते, नासूर बने जख्मों को छिपाकर भी जय-जय कार करते हैं. अफ़सोस यह कि फिर भी आपको न संतोष है और न ही हमारे जय-जयकार से कोई ख़ुशी. बिलबिला भी रहे हैं आप हमारे द्वारा जय भीम बोलने मात्र से. मानो आपकी बपौती रहे हों बाबा साहब. हमने उन्हें 'आंबेडकर' बनाया तो कुछ नहीं, आपने नोच-नोच कर खाया केवल तो वो आपकी जायदाद हो गए. खैर.

ठहर जाओ..... वन्य प्रांतर में इस कर्कश आवाज़ ने कोलाहल मचा दिया था. सैकड़ों अंगुलियों की माला पहने एक अनार्य सीधे बोधिसत्व के सामने उनका मार्ग रोक कर खड़ा था. दुनिया भर की शान्ति अपने चेहरे पर समेटे बुद्ध का विनम्र सवाल था, मैं तो ठहर गया, तुम कब रुकोगे मित्र? न जाने क्या चमत्कार था उन शब्दों में, कटे अंगूठों की माला नोंच, अपना कटार फेक शरणागत हुआ अंगुलिमाल. तमाम खग-मृग और मधुकर की वेणी मानो गाने लग गये हों वहां, 'बुद्धं शरणम गच्छामि, संघम शरणं गच्छामि, धम्मम शरणं गच्छामि.' बौद्ध भिक्षु बन गये उस अंगुलिमाल ने दस हज़ार अंगूठे काटने का संकल्प लिया था, अधूरा छोड़ दिया उसने अपना संकल्प, उत्तरीय धारण करते ही. आपने दस वर्ष तक 'अंगूठा काटने' का तय किया था. आप भी बुद्ध के शरण में आये. पर वह दस साल उलटे अनंत साल में परिवर्तित हो गया था. इस बार जाति जीता था, जातक कथाएं हार गयी थी.

फिर भी हम जय-जय कार करते हैं अन्य योगदान के लिए इस नए बने बौद्ध भिक्षु का. हम ये भी नहीं पूछते आपसे कि तुम कब ठहरोगे सकपाल? हम सारे सवर्ण एकलव्य अपने कटे अंगूठों के बावजूद अपनी योग्यता साबित करने के लिए कोशिशरत हैं और रहेंगे. फिर भी हम ही शोषक और आप शोषित? हम ही सामंत और आप वंचित? हम ही पीडक और आप पीड़ित? इतना तो अन्याय मत करिए न प्रभु प्लीज़. हम सब अपने एकलव्य की भूमिका स्वीकार करते हैं, आप अंगुलिमाल भी रहिये तब भी दिक्कत नहीं. अनंत काल तक अपना अनारक्षित अंगूठा आपको भेंट करते रहेंगे. लेकिन इस तरह लांछित तो बिना वज़ह मत कीजिये मालिक. जीने दीजिये हमें भी प्लीज़, हम तैयार हैं बिना अंगूठे के भी धनुर्धर बन जाने को. और आप?

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