आप आरएसएस से नफरत करने को स्वतंत्र हैं, उस पर कलंक नहीं लगा सकते - मोनिका अरोड़ा

monika arora
सर्वोच्च न्यायालय की वरिष्ठ वकील के अंग्रेजी लेख का हिन्दी रूपांतर
दिनांक 8 अगस्त, 2016 के आउट लुक में ‘ऑपरेशन बेबीलिफ़्ट’ शीर्षक से प्रकाशित कवर स्टोरी पूरी तरह निराधार है। यह किसी बीमार सोच रखने वाले दिमाग़ की विकृत कल्पना से ज़्यादा कुछ नहीं है। ऐसे लेखकों (जैसे कि संबंधित पत्रकार नेहा दीक्षित) से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वे अंग्रेज़ी भाषा के- Service & Virtue (सेवा और भलाई) जैसे सरल, लेकिन गंभीर शब्दों के मतलब समझते हैं। हमें ऐसी सोच रखने वालों पर दया आती है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सुब्रमण्यम स्वामी बनाम केंद्र सरकार केस में स्थापित किया है कि गरिमा/सम्मान मूल मानव अधिकार है और जीवन के अधिकार का मूल तत्व है। अनुच्छेद 21 नागरिकों को प्रतिष्ठा के साथ जीने का अधिकार देता है। अपनी 15 पृष्ठ की पूरी रिपोर्ट में सुश्री दीक्षित ने बार-बार कहा है कि तीन से 11 साल तक की उम्र की बोडो आदिवासी लड़कियां असम से गुजरात और पंजाब में पटियाला के हॉस्टलों में ले जाई जाती हैं और यह काम राष्ट्र सेविका समिति की प्रचारिकाएं करती हैं। आगे वे कहती हैं कि इन लड़कियों को सुबह छह बजे जगाया जाता है। उनसे प्रार्थना कराई जाती है, गायत्री मंत्र बुलवाए जाते हैं, राष्ट्रीय गौरव से जुड़े खेल खिलाए जाते हैं और ‘कश्मीर हमारा है’ जैसे राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत नारे लगवाए जाते हैं। ये लड़कियां गायत्री मंत्र और पौराणिक-साहित्य का प्रभावी ढंग से उच्चारण करती हैं। सुश्री दीक्षित को ये सारे काम कपटपूर्ण लगते हैं। देश के किसी भी परिवार के अभिभावक से पूछिए (अगर लेखिका परिवार और अभिभावक शब्दों का अर्थ समझती हों) कि वे अपने बच्चों के मन में इन परंपराओं, मूल्यों, संस्कारों की स्थापना के लिए कितने कठिन प्रयत्न करते हैं। इसके लिए अक्सर शिक्षक तक नियुक्त किए जाते हैं।
सुश्री दीक्षित लिखती हैं कि बोडो इलाक़ों से इन लड़कियों को चयन करने वाले विशुद्ध चरित्र के बोडो लोग ही हैं। वे महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने वाले लोग हैं। दूसरी लड़कियों के साथ स्थानीय आरएसएस समर्थक लोग भी अपनी बेटियों को असम से दूसरे राज्यों में आरएसएस के स्कूलों में अध्ययन के लिए भेजते हैं। इन आदिवासी लड़कियों में से बहुत सी लड़कियां शिक्षा हासिल करने के बाद इन्हीं इलाकों में आकर आरएसएस से जुड़े और दूसरे स्कूलों में शिक्षिका का काम करती हैं। वे अपने समुदाय, कुनबे, कुटंबों की बेहतरी के लिए काम करती हैं। शिक्षा के सहारे वे अपना जीवन स्तर बेहतर करती हैं। इसे सुश्री दीक्षित कम करके आंकती हैं।
सरल आदिवासी समुदाय के बीच शिक्षा की अलख जगाकर देश को मज़बूत बनाने का काम निस्वार्थ सेवा नहीं, तो और क्या है? ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि आरएसएस और उसके समर्थित शिक्षा संस्थानों को बदनाम करने के पीछे आख़िर मंशा क्या है? कौन सी मानसिकता देश सेवा की भावना की निंदक हो सकती है? और मैडम, आरएसएस की प्रचारिकाएं दुर्गम इलाक़ों में शिक्षा दान के लिए बिना कोई अवकाश लिए साल-दर-साल कड़ी मेहनत करती हैं। इतनी मेहनत आप से एक दिन भी नहीं हो पाएगी।
आपकी पथभ्रष्ट सोच इस परिश्रम का मूल्य नहीं समझ पाएगी। लिहाज़ा ग़रीब आदिवासी लड़कियां अगर विभिन्न राज्यों के हॉस्टलों में जाकर ज्ञान अर्जित कर रही हैं, तो आपकी आपराधिक सोच इसे “Trafficking” यानी मानव तस्करी करार देती है। लड़कियों को शिक्षा के लिए भेजना आपकी नज़र में मानव तस्करी की परिभाषा के तहत आता है। अगर यही आपका मानक है, तो इसका अर्थ हुआ कि अपने बच्चों को दूसरी जगहों पर पढ़ने के लिए हॉस्टलों में भेजने वाले देश के सभी अभिभावक और शिक्षा संस्थान मानव तस्करी का अपराध कर रहे हैं।
आपकी कवर स्टोरी से साफ़ हो जाता है कि आप किसी पहले से तय कर लिए गए विचार से बुरी तरह प्रेरित हैं। साथ ही अव्वल दर्जे की लापरवाह भी हैं। आपको मेरी सलाह है कि कम से कम ऑक्सफ़ोर्ड और वैबस्टर डिक्शनरियों में “Trafficking” शब्द का मतलब तलाश करने की ज़हमत उठाएं। आपको पता चल जाएगा कि “Trafficking” का अर्थ होता है किसी आदमी को ग़ैर-क़ानूनी तरीके से ग़ैर-क़ानूनी कृत्य के इरादे से कहीं ले जाना। उससे बेगार कराना या यौन शोषण करना। दुनिया भर में मानव तस्करी पर रोक लगाने, ऐसा अपराध करने वालों को सज़ा देने के मामले में संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकॉल में विस्तृत चर्चा की गई है।
आपके पूरे लेख में आरएसएस और उसकी कल्याणकारी कार्य-योजनाओं के प्रति नफ़रत ही झलकती है, और कुछ नहीं। लड़कियों को दूसरे राज्यों में ले जाया जाना अगर “Trafficking” है, तो फिर आपने इस बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा है कि उन्हें बंधुआ मजदूर बनाने या यौन शोषण के लिए ले जाया जाता है। आप ख़ुद को पत्रकार कहती हैं, तो आपसे व्यावसायिक तकाज़ों पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है। कलम का इस्तेमाल ज़िम्मेदाराना ढंग से करिए। उसे किसी की गर्दन उतारने के लिए कुल्हाड़ी मत बनाइए। बिक्री बढ़ाने और मुनाफ़ा कमाने के इरादे से पत्रिका ने इस बे-सिरपैर की रिपोर्ट को सनसनीख़ेज़ बनाने के लिए कवर पेज पर प्रमुखता से छापा है- “RSS Outfits trafficking girls” यानी आरएसएस के संगठन लड़कियों के तस्कर। ऐसा कथन कुत्सित सोच को ही दर्शाता है।
जिस तरह आपने कवर पेज और रिपोर्ट में भारतीय-अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और दिशा-निर्देशों के उल्लघंन का ज़िक्र ज़ोर-शोर से किया है, उसे देखते हुए मैं आपको इस मामले में शिक्षित होने का मशविरा देती हूं। आरएसएस और उससे जुड़े संगठन कभी किसी भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देश का उल्लंघन नहीं करते। शिक्षा के लिए बच्चियों को हॉस्टलों में ले जाने की इजाज़त उनके अभिभावकों से बाक़ायदा ली जाती है। ऐसे में बाल न्याय अधिनियम 2000 और दूसरे क़ानूनों के उल्लंघन का यह कोई मामला कैसे हो सकता है?
साल 2010 में अनाथालयों और मिशनरियों द्वारा 76 ईसाई लड़कियों को ले जाने के केस के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी इस मामले में लागू नहीं होता।
याद रखिए कि आपने अपने लेख में उस आरएसएस पर कीचड़ उछाला है, जो गौरवशाली ऊर्ध्वगामी नैतिकता का प्रतीक है। आपकी विचारधारा अलग हो सकती है, आप व्यक्तिगत तौर पर आरएसएस विरोधी हो सकती हैं, लेकिन उच्च आदर्शों वाले एक राष्ट्रभक्त संगठन को ग़लतबयानी कर मिथ्या और कपोल-कल्पित तथ्यों के आधार पर बदनाम करने की कोशिश मत कीजिए।
राष्ट्र सेविका समिति देश भर में आदिवासी और दुर्गम इलाक़ों में लोगों की बेहतरी के लिए काम करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। यह संगठन सुख-सुविधाओं से वंचित लोगों के लिए उम्मीदों की रौशनी की तरह है। उसका आदर कीजिए। यह संगठन मातृभूमि भारत की सबसे कठिन सेवा के लिए समर्पित है। इसे बदनाम करने के लिए जानबूझ कर इस तरह की रिपोर्ट तैयार करना और उसका प्रकाशन चरित्र हनन का आपराधिक प्रयास ही माना जाएगा।

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