प्रीत को रंग चढ़े जो परस्पर - स्व. निर्भय हाथरसी
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राधा कही मुसकाय लजाय,
अकेले में ऐसे न छेड़ो मुरारी,
प्रीत को रंग चढ़े जो परस्पर,
तू होगो गोरो, मैं होऊँगी कारी |
कान्हा कही समुझाय बुझाय,
कहा हमसों बरजा बरजोरी,
मन मन भावत मूड हिलावत,
काहे को बात बनावत छोरी |
प्रीत को रंग चढ़े जो परस्पर,
आन के भेंटियो फेर किशोरी,
मैं फिर होउंगो कालो को कालो,
तू फिर होयेगी गोरी की गोरी |
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काव्य सुधा
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