कांग्रेसियों को नए साल का तोहफा राहुल मुक्त कांग्रेस ????


रविवार को कांग्रेस ने अपना 130 वां स्थापना दिवस मनाया । यद्यपि उसमें मनाने जैसा ज्यादा कुछ था नहीं, लेकिन फिर भी कभी कभी परंपरा के नाम पर स्वयं को सक्रिय दिखाना आवश्यक होता है | लेकिन जहां तक राहुल गांधी का सवाल है, उनके लिए वह भी आवश्यक नहीं था ।
जब श्रीमती सोनिया गांधी ने पार्टी ध्वज फहराया तब राहुल गांधी की अनुपस्थिति सबको खटकी | क्या राहुल की तबियत गड़बड़ थी, क्या वे विदेश में थे, या वे अपनी घड़ी में अलार्म लगाना भूल गए थे ? इन्डियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार कोई कांग्रेसी इन सवालों का जबाब देने की स्थिति में नहीं था |
जहां एक ओर राजदीप सरदेसाई ने इंडियाटुडे में नरेंद्र मोदी को वर्ष 2014 का न्यूज़मेकर निरूपित किया है, वहीं दूसरी ओर राहुल की केवल एक विशेषता बताई जा सकती है कि वे “अवसर को चूकना कभी नहीं चूकते” | यही राहुल की वास्तविक पहचान है | 2012 में हुए दिल्ली सामूहिक बलात्कार के बाद जो हंगामा बरपा उसमें वे अपनी एंग्री यंग नागरिक की छवि भुना सकते थे, किन्तु वे कहीं दिखाई भी नहीं दिए | उसके स्थान पर उनका मजाक बना | कहा गया – “सारे युवा यहाँ हैं, राहुल गांधी कहाँ है ?”
राहुल की समस्या यह नहीं है कि वे एक चुनाव हार गए है। चुनाव में कोई जीतता है तो कोई हारता है । कांग्रेस के लिए सर्वाधिक विनाशकारी स्थिति यह है कि राहुल दिशा खो चुके हैं और कांग्रेस को भी उसी दिशा में ले जा रहे हैं । जम्मू कश्मीर में जितना अनुमान था, उतने बुरे परिणाम कांग्रेस के लिए नहीं रहे | किन्तु इसके बाद भी कांग्रेस जैसी पुरानी और बड़ी पार्टी आराम से ठंडी पडी है | इन दिनों पार्टी एक फेससेवर की तलाश में है किन्तु दुर्भाग्य से राहुल गांधी में वह क्षमता दूर दूर तक दिखाई नहीं देती ।
पांच महत्वपूर्ण अवसर पर जिन्हें गंवाने के कारण पार्टी लोकसभा में चुनाव में महज 44 सीटें जीतने जैसी शर्मनाक स्थिति में पहुंची _
राहुल द्वारा मुहावरों का प्रयोग -
टाइम पत्रिका ने एक बार राहुल गांधी के विषय में लिखा कि मुहावरों पर ज्यादा और समाधान पर कम विश्वास करते हैं | जैसे कि राहुल गांधी द्वारा समय समय पर बोले गए शब्द - हाथी, छत्रक, जहर का प्याला, एस्केप वेलोसिटी, पतलून में राजनीति (पोलिटिक्स इन योर पेंट), गरीबी मन की एक स्थिति आदि आदि | जब जब राहुल गांधी ने इस प्रकार अपने मनोभाव व्यक्त किये आम भारतीय और उलझन में पड़ गया | 2013 में सीआईआई में उनके भाषण को सुनने के बाद, टाइम्स की क्रिस्टा महर भी सामान्य बात को भी ना समझा पाने की उनकी महारत देखकर चकरा गई थी |
जैसे कि उन्होंने जॉन एफ कैनेडी की वह लाइन उद्धृत की जिसमें कहा गया था कि “समुद्र में उठने वाला ज्वार उस इंसान को नही उठा सकता जिसके पास नाव नहीं है | इसलिए हमें चाहिए कि हम उन्हें एक नाव बनाने में मदद करें, बजाय इसके कि हम ज्वार उठायें | हमें चाहिए कि हम उन्हें बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराएं ताकि वे ज्वार के साथ उठ सकें |”
वे इतने पर ही नहीं रुके, कुछ समय बाद वे अपने निर्वाचन क्षेत्र की महिलाओं के बारे में बोले कि "वे (महिलायें) कहती हैं कि वे न केवल हमारे लिए नाव बना रही हैं, बल्कि वे स्वयं लहरें हैं“ |
कोई आश्चर्य नहीं कि 2014 के चुनाव अभियान में राहुल का हर भाषण गंभीरता, द्रष्टि या उत्साह के बजाय मिसफायर मुहावरों के कारण मजाक का विषय बना ।
राहुल की असामाजिकता
एक ऐसे चुनाव में जिसमें युवा मतदाताओं और पहली बार मतदान करने वालों की महत्वपूर्ण भूमिका थी, राहुल से 20 वर्ष अधिक आयु के नरेंद्र मोदी उन मतदाताओं से अधिक जुड़े | जैसा कि CSDS के जनमत सर्वेक्षण से पता चला है कि तुलनात्मक रूप में 18-25 के आयु समूह में मोदी को 42 प्रतिशत भारतीयों का जबकि राहुल को महज 16 प्रतिशत का समर्थन प्रधानमंत्री के रूप में मिला |
मोदी ने जहाँ सोशल मीडिया को एक ताकत के रूप में इस्तेमाल किया, वहीं दूसरी ओर राहुल का कोई फेसबुक अथवा ट्विटर एकाउंट भी नहीं था | इसके कारण उनकी छवि जानबूझकर अस्पर्श रहने वाले की बनी । राहुल का चेहरा फोटोजनिक है, वे आकर्षक भी हैं, लेकिन मोदी के सामने टीवी पर फ्लॉप हैं ।
राहुल और अर्नब की चर्चा
बड़ी धूमधाम के साथ दुनिया को अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए राहुल ने निर्णय किया कि वे अर्नब गोस्वामी को बड़ा साक्षात्कार देंगे । किन्तु यह आयोजन भी फ्लॉप हो गया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि "श्री" गांधी, हड़बडाये हुए, अभिव्यक्ति शून्य और पराजित मानसिकता में दिखे । इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार कम से कम ग्यारह बार वे बेहतर जवाब दे सकते थे । और अधिकाँश समय उन्होंने स्वयं का वर्णन एक तीसरे व्यक्ति के रूप में किया ।
जब राहुल रात के खाने पर नहीं पहुंचे
मनमोहन सिंह ने जिस प्रकार लगातार दस वर्ष संप्रग की पतवार चलाई, वे निश्चित रूप से एक सम्मानजनक विदाई के हकदार थे । सोनिया गांधी ने विदाई के अवसर पर आयोजित डिनर पार्टी में सिरकत की, जबकि राहुल वहां भी दिखाई नहीं दिए । शिवसेना के संजय राउत ने व्यंग किया कि जब भी कुछ करना होता है, तब वे वापस विदेश में अपने घर चले जाए हैं |
उनकी अनुपस्थिति इस लिए और अधिक चर्चित रही क्योंकि पूर्व में वे मनमोहन सिंह द्वारा अनुमोदित बिल को सार्वजनिक रूप से फाड़ चुके थे | राहुल ने इस पर कोई सफाई भी नहीं दी जिसके कारण पार्टी में असंतोष को हवा मिली तथा "व्यक्तिगत काम" की फुसफुसाहट चली | चुनाव परिणामों में पराजय के बाद राहुल ने कहा कि "मुझे लगता है कि पार्टी में कोई जवाबदेही नहीं है |” उन्हें इस बात का कोई अहसास ही नहीं है कि जबाबदेही सबसे पहले स्वयं के घर से शुरू होती है | उन्होंने रात्रिभोज में जो प्रदर्शन किया उसकी उन्हें अनुभूति ही नहीं है |
राहुल की असमय मुस्कराहट
कांग्रेस की पराजय के बाद राहुल सामने नहीं आये, वे अपनी मां के साथ कैमरे के सामने नुकसान को स्वीकार करने आये | उस समय जबकि उन्हें गंभीर होना चाहिए था, वे मुस्कुराते दिखाई दिए | फेकिंग न्यूज़ ने व्हाट्सएप पर इसे “रहस्यमई मुस्कान एक घपला” नाम दिया, चुटकी ली । अभिषेक वर्मन ने ET में लिखा कि ऐसा लग रहा था जैसे वे विजय का जश्न मना रहे हों और वह भी ऐसे समय में जबकि कांग्रेस शोकांतिका के दौर में है ।
केंद्र के चुनाव के बाद राज्यों के चुनाव में भी कांग्रेस की खस्ताहालत ने पार्टी के अन्दर इस चर्चा को हवा दी है कि कांग्रेस का पुनर्जीवन कैसे होगा ? गांधी परिवार के साथ या उसके बिना ? एक ही प्रश्न उठ रहा है कि क्या कांग्रेस में गांधी परिवार के प्रति सार्वजनिक विरोध और अमर वफादारी के बीच चल रहा अंतर्विरोध रुकेगा या वह अपने हल्के नेतृत्व के भारी बोझ तले दब जायेगी |मोदी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया है | उसी तर्ज पर दस में से सात कांग्रेसी मानते हैं कि 2014 के अंत में नए साल का उपहार राहुल-मुक्त कांग्रेस है।

- आधार firstpost का आलेख 
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