भिंड में संघ कार्य और स्व. माणिकचन्द्र वाजपेई - संस्मरण (पूण्यतिथि पर विशेष)



ग्वालियर में संघ कार्य की आधार शिला रखने बाले श्री नारायण विश्वनाथ तर्टे जी ने ही यहाँ भी सन १९३८ में सर्व प्रथम संघ कार्य की नींव रखी | वे शीत काल में ग्वालियर के ही एक प्रमुख स्वयंसेवक व्यास जी के साथ भिंड पधारे तथा यहाँ कन्या पाठशाला की गली में रहने बाले एक महाराष्ट्रीयन परिवार में ठहरे | यहाँ उनका संपर्क वनखंडेश्वर मंदिर के निकट रहने बाले ओवरसियर साठे तथा उनके युवा पुत्र गजानन राव से हुआ | तर्टेजी ने उन्हें संघ कार्य की जानकारी दी व उनके सहयोग से कुछ युवकों को साथ लेकर श्री बटुकनाथ अत्रे के बाड़े में शाखा प्रारम्भ की | भिंड के प्रारम्भिक स्वयंसेवकों में प्रमुख थे गजानन राव साठे, राधामोहन गुप्ता, मुकुंद राव अत्रे, शान्ति दीक्षित, रत्नाकर मिश्रा, रोशन लाल भटनागर तथा तहसील दार परांजपे के भाई आदि |
तर्टेजी तो दो तीन दिन रुककर शाखा प्रारम्भ करवाकर भिंड से बापस ग्वालियर लौट गए किन्तु उनके द्वारा नियुक्त युवक निरंतर शाखा चलाते रहे | बाद में शाखा का स्थान बदलकर ठाकुर नेमीचंद जैन के बाड़े में कर दिया गया | बाद में श्री राम थापक, बसंत सुरंगे, प्रभु दयाल गुप्ता, बाल मुकुंद गुप्ता, श्री नारायण भटनागर आदि की टोली भी संघ कार्य से जुड़ गई तथा संघ कार्य का विस्तार दिखाई देने लगा | इसी समय मूलतः भिंड निवासी किन्तु अध्ययन हेतु लाहौर गए कृष्ण चन्द्र शास्त्री भिंड बापस आये | उन्होंने लाहौर में अध्ययनरत रहते हुए संघ का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया था | उनके आगमन से भिंड में संघ कार्य कुछ अधिक व्यवस्थित हो गया | तथा भिंड नगर में नवादा, ठाकुर लक्ष्मीचंद का बाड़ा, पाठशाला और बटुक नाथ शास्त्री के बाड़े में संघ की शाखाएं लगने लगीं |
उस समय भिंड की आवादी मात्र १४००० के आस पास थी तथा बह एक कस्बा मात्र था | ग्वालियर राज्य के अन्य क्षेत्रों के समान यहाँ की जनता भी राजशाही की भक्त थी | राजनैतिक चेतना ना के बराबर थी | समाज रूढ़ियों से बंधा हुआ था | पूरे देश में कांग्रेस एक जन आन्दोलन बनी थी किन्तु यहाँ श्री यशवंत सिंह कुशवाह तथा श्री हरिकिशन दास भूता उज्जैन से पंजीकृत सार्वजनिक हितकारी सभा के नाम से कांग्रेस की गतिविधियों का संचालन करने को विवश थे | और उन गतिविधियों में भी सामान्य जन की भागीदारी नगण्य थी |
इसी विकट परिस्थिति में जुलाई १९४४ में मुरार के तृतीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक माणिक चंद वाजपेई को यहाँ का जिला प्रचारक नियुक्त किया गया | ग्वालियर के तत्कालीन विभाग प्रचारक भैयाजी सहस्त्र बुद्धे स्वयं उन्हें लेकर भिंड आये तथा उनका स्थानीय स्वयंसेवकों से परिचय कराया | श्री माणिक चंद जी वाजपेयी को सभी मामाजी का आत्मीय संबोधन देते थे | मामा जी के भोजन तथा आवास की व्यवस्था कृष्णचन्द्र शास्त्री के यहाँ की गई | दो शासकीय शिक्षक प्रभुदयाल गुप्ता तथा सूर्य नारायण भटनागर मामा जी के अच्छे सहयोगी बने | उन दिनों शिक्षक ट्यूशन इत्यादि में व्यस्त नहीं रहा करते थे, इस कारण दोनों के पास संघ कार्य हेतु पर्याप्त समय रहता था तथा वे छात्रों के बीच लोकप्रिय भी थे | उनके माध्यम से विद्यार्थियों के बीच संघ कार्य का विस्तार हुआ | राजनैतिक विद्वेष का माहौल न होने के कारण स्थानीय हाई स्कूल के प्रांगण में शाखा लगती थी | यहाँ तक कि विद्यालय भवन में ही बैठक इत्यादि होने पर कोई आपत्ति नहीं करता था | कुछ समय के लिए यह विद्यालय ही संघ की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा | अनेक मेधावी छात्र इस दौरान संघ के स्वयंसेवक बने | हाई स्कूल संघमय हो गया | स्थिति यह थी कि संघ का कोई कार्यक्रम होने पर अधिकांस विद्यार्थी उसमें सहभागिता करते तथा विद्यालय का अघोषित अवकाश सा हो जाता | मामाजी के प्रयत्नों से संघ की शाखाओं में सभी आयु, वर्ग वा जातियों के लोग आने लगे संघ स्वयंसेवकों में "हम सब हिन्दू" भाव इतना प्रबल हुआ कि रूढ़ियों को ठोकर मारकर सब कंधे से कंधा मिलाकर संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे | हरिजन तथा पिछड़े वर्ग के समाज वन्धु भी शाखा पर आने लगे | एकत्रीकरण की संख्या ३०० से अधिक रहने लगी | समाज में व्याप्त छुआछूत का असर शाखाओं पर नहीं रहता था |
क्षेत्र की डकैत समस्या कार्य विस्तार में सबसे बड़ी वाधा थी | कोई भी कार्यक्रम तय करते समय इस बारे में पहले विचार करना पड़ता था | एक बार तो अडोखर कस्बे के स्कूल से बहादुरा डाकू का गेंग एक बालक को कक्षा में से ही उठाकर ले गया था और बाद में फिरौती ना मिलने पर उस बालक की गोली मारकर ह्त्या कर दी थी | अतः अभिभावक अपने बच्चों को बाहर होने बाले कार्यक्रमों में भेजने में संकोच करते थे | शीत शिविर तथा जिला बैठकें या तो स्वयंसेवकों की निजी बंदूकों के साए में होती थीं या पुलिस अभिरक्षा में |
भुतहा हवेली बनी कार्य विस्तार का आधार –
संघ कार्य के लिए कार्यालय की आवश्यकता थी किन्तु अर्थाभाव के कारण कठिनाई थी | एसे में भुतहा माना जाने बाला एक बड़ा भवन मात्र १५ रुपये मासिक किराए पर उपलव्ध हो गया | क्योंकि उस मकान में कोई रहने को तैयार नही होता था | उस भवन का उपयोग कार्यालय के साथ साथ छात्रावास के रूप में किया जाने लगा | मामाजी को भी गणित, अंग्रेजी आदि विषय पढ़ाने का खासा अभ्यास था | इस कारण इस कार्यालय नुमा होस्टल में रहने बाले ग्रामीण विद्यार्थियों को मामा जी पढ़ाया भी करते थे | धीरे धीरे ये विद्यार्थी संघ की शाखाओं में भी आने लगे | इतना ही नही तो उनके माध्यम से भिंड के आसपास के ग्रामीण अंचल में भी संघ शाखाए प्रारम्भ हो गई | अनेकों ग्रामीण परिवार संघ से जुड़ गए | जब ग्वालियर सहित अन्य जिलों में संघ कार्य केवल नगरों तक सीमित था तब भिंड के ४० गाँवों में शाखाएं प्रारम्भ हो चुकी थीं | सम्पर्कित गाँवों की संख्या तो १०० से भी अधिक थी |
उत्साह के इस माहौल में तरुण स्वयंसेवकों के साथ साथ बड़ी आयु के कार्यकर्ताओं में भी जोश आने लगा | तथा उन्होंने भी शाखा विस्तार के लिए समय देना प्रारम्भ कर दिया | कृष्णचन्द्र शास्त्री कुछ समय के लिए मिहोना गए और बहां कुछ अच्छे स्वयंसेवक तैयार करने में सफल हुए | प्रभुदयाल गुप्ता ने लहार में समय दिया तो राधामोहन गुप्ता दबोह की और गए | ग्वालियर संघ कार्यालय में रहकर अध्ययन करने बाले मुरारी लाल बोहरे ने प्रचारक का बाना धारण किया और क्षेत्र में शाखाओं का जाल फैलाया | १९४६ आते आते भिंड जिले में संघ कार्य पूरे यौवन पर था | गोहद को छोड़कर शेष सभी तहसीलों में १० से १५ ग्रामीण शाखाएं लगने लगी थीं |
सन १९४७ में कुछ प्रचारक भी भिंड जिले को मिले, जिनमें रामेश्वर दयाल गुप्ता ने अटेर का कार्य संभाला | श्री गुप्ता ने बाद में चिरगांव जिला झांसी में स्वयं का विद्यालय चलाया | खरगौन से आये कवीश्वर जी ने लहार में संघ कार्य विस्तार में उपयोगी भूमिका निबाही | कुछ समय तक रामदत्त सिंह जी ने भिंड में कार्य किया, उसके उपरांत उन्हें व्यावरा में नियुक्त किया गया | इन सबने अपनी अपनी क्षमता के अनुसार कार्य विस्तार किया किन्तु भिंड के गृहस्थ कार्यकर्ताओं का भी कार्य विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान रहा |
सन १९४८ में प्रतिबन्ध लग जाने पर मामा जी के राज्य से निष्कासन हेतु आदेश प्रसारित हुए | यद्यपि संघ कार्य उस समय जिले में अत्यंत प्रभावी एवं व्यापक हो चुका था किन्तु प्रचार वा प्रसिद्धि से दूर रहने के कारण कोई भी पुलिस अधिकारी या शासकीय कर्मचारी मामा जी को नही पहचानता था | इसके चलते एक मजेदार घटना घटी | भिंड में कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता भूता जी के साले को भी जन सामान्य में मामाजी कहकर पुकारा जाता था | गड़बड़ करने बाले संघ के मामाजी यही होंगे यह मानकर पुलिस के लोग भूता जी के पास पहुंचे और बड़े ही संकोच से सरकारी आदेश की जानकारी उन्हें दी | विनोदी स्वभाव के भूताजी ने कहा कि साले ने कोई गड़बड़ कर दी होगी, पकड़ लो | बस फिर क्या था ? नाम के आधार पर पुलिस ने उन्हें धर दबोचा और हवालात में बंद कर दिया | तब कही चिल्लपों मची और भूताजी ने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों को फोनकर बताया कि आदेश संघ प्रचारक मामाजी के लिए है और पुलिस ने उनके साले को बंद कर दिया है | तब कहीं जाकर वे महाशय मुक्त हुए | और मजा यह कि जब यह सब नाटक चल रहा था, तब मामा माणिक चंद जी वाजपेई कोतवाली के सामने ही सूर्य नारायण भटनागर के मकान के दालान में खुले आम आराम फरमा रहे थे | 
इस दौरान ही एक और वाकया हुआ | संघ पर प्रतिवंध तथा जिलाबदर के आदेश हो जाने के बाद भी मामाजी भिंड में ही रह रहे थे | तब उनका निवास झांसी मोहल्ले के मंसाराम शर्मा के घर पर था | कार्यकर्ता भी उनसे मिलने के लिए बहां आते जाते रहते थे | एक कांग्रेसी नेता ने बहां हलचल होती देखकर पुलिस को सूचना दे दी कि यहाँ से संघ की गतिविधियाँ संचालित हो रही हैं | इस खबर के बाद पुलिस ने उस मकान की निगरानी शुरू कर दी | मंसाराम का मकान एक पतली गली के छोर पर था | इस गली के अलावा मकान से बाहर जाने का कोई रास्ता भी नही था | आसपास ३-४ मुस्लिम परिवार रहते थे | पुलिस की गतिविधियाँ देखकर मामाजी पडौस के मुंसी खान के घर चले गए | मकान मालिक ने उन्हें दरबाजे के सामने ही चारपाई पर लिटाकर ऊपर से चादर ओढा दी | कुछ देर बाद जब पुलिस ने मंसाराम के मकान पर छापा मारा तो बहां मामाजी तो नही हाँ कुछ गणवेश की नेकर और टोपी जरूर बरामद हुई, जिन्हें जब्त कर पुलिस ने पंचनामा बनाया | एक गवाह तो मुंसी खान को ही बनाया गया | दूसरे गवाह के रूप में जब चादर ओढ़कर सामने लेटे हुए मामाजी को बुलाने को कहा तो मुंसी खान ने उन्हें अपना बीमार रिश्तेदार बताकर मना किया | किसी मुसलमान के यहाँ संघ प्रचारक हो सकता है, यह पुलिस सोच भी नहीं सकती थी | इसलिए उन लोगों ने इस बात पर सहज यकीन भी कर लिया | इस प्रकार मामाजी पुलिस की गिरफ्त में आने से बच गए |नरसिंहराव दीक्षित कांग्रेस के जाने माने नेता थे | उनकी कोठी के पीछे ही उनके चचेरे भाई का आवास था | नरसिंहराव जी का भतीजा हरनारायण संघ का बाल स्वयंसेवक था | प्रतिवंध के दौरान कई बार मामाजी उस घर में भी रहे | पडौस में ही एक पुलिस हवलदार भी रहते थे, जिनका छोटा भाई भी संघ का स्वयंसेवक था | यद्यपि हवलदार ने अपने भाई से कहा हुआ था कि जब भी मामाजी दिखें बह उसे बतादे, जिससे मामाजी को पकड़कर उसे उच्चाधिकारियों की निगाह में चढने का अवसर मिले | किन्तु उस बाल स्वयंसेवक ने अपने भाई को मामाजी की जानकारी देना तो दूर, उलटे मामाजी के सन्देश अन्य कार्यकर्ताओं तक पहुंचाने की जिम्मेदारी बखूबी निभाई | बह खिड़की के रास्ते हरनारायण के घर आता और मामा जी के सन्देश अन्य कार्यकर्ताओं तक पहुंचाता | हवलदार के भाई और हरनारायण ने मामाजी के घर में होने की जानकारी ना तो पुलिस को होने दी और ना ही नरसिंहराव दीक्षित को | 
उस दौरान अनेकों किवदंतियां भी मामाजी के नाम पर प्रचारित हुई | पुलिस का मानना था कि मामाजी के साथ कई तलवार धारी अंग रक्षक भी रहते है | पुलिस उन्हें ढूँढने की भरसक कोशिस कर रही थी, किन्तु मामाजी थे कि पकड़ में ही नहीं आ रहे थे | उनका जिलाबदर का आदेश भी पुलिस फाइलों में धूल खा रहा था | एसे में पुलिस को सूचना मिली कि गौरी तालाब के पार शाला में मामाजी का अड्डा है | पुलिस ने अपने गुप्तचर सक्रिय किये तो मालूम हुआ कि कुछ नौजवान बहां आये हुए हैं | पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में बहां छापा मारा गया तो दीवाल फांदकर कुछ लोग खेतों में भागने लगे | भागते हुए एक ने तलवार भी निकाल ली और पुलिस को डराते हुए चम्पत हो गया | पुलिस के हाथ केवल एक जोड़ी जूता आया | लेकिन पुलिस को विश्वास हो गया कि हो ना हो यहाँ मामाजी जरूर थे और उनके साथ तलवार धारी अंग रक्षक भी | जब प्रतिवंध हटा तब पुलिस अधीक्षक की मामाजी से भेंट हुई और उसने कहा कि उस रात तो आप तलवार दिखाकर भाग निकले, लेकिन आपके जूते हमारे कब्जे में हैं | मामाजी आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगे, क्योंकि एसी कोई घटना उनके साथ हुई ही नहीं थी |कुछ समय बाद संघ अधिकारियों ने वाजपेई जी को ग्वालियर बुला लिया और क्लब आदि के माध्यम से संघ कार्य करने को कहा | उस रूप में मुरार में प्रभावी रूप से कार्य चलने लगा | क्लब के रूप में लगने बाली शाखा में दैनिक उपस्थिति १०० तक रहने लगी | होली के अवसर पर कम्पनी बाग़ में आयोजित एक कार्यक्रम से लौटते समय इनको पहचानने बाले एक पुलिस बाले ने इन्हें पकड़ लिया और थाने ले गया | बहां से इन्हें भिंड भेजा गया तब कहीं जाकर राज्य निष्कासन संबंधी शासकीय आदेश की तामील हो सकी | इन्हें २४ घंटे के अन्दर राज्य छोड़ने के आदेश हुए | मामाजी को राज्य में रहना अनुपयुक्त मानकर इन्हें बुंदेलखंड के जालौन भेज दिया गया | प्रतिवंध के पूर्व झांसी के संभागीय प्राथमिक वर्ग (आई टी सी) में शिक्षक रहने के कारण मामाजी का जालौन के स्वयंसेवकों से पूर्व परिचय हो चुका था |
सत्याग्रह प्रारम्भ होने पर उन्हें भिड में भूमिगत रहकर संचालन करने बापस बुला लिया गया | प्रगट रूप से नारायण सिंह गुरू को संचालक बनाया गया | मामाजी ग्रामीण क्षेत्रों में प्रवास कर स्वयंसेवकों को सत्याग्रह के लिए तैयार कर भिंड भेजा करते थे | सत्याग्रह की योजना जिला केंद्र पर ही थी | जिले से लगभग १५० स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह में भाग लिया |सन १९५१ में भारतीय जनसंघ की स्थापना होने के बाद मामाजी माणिकचंद्र जी वाजपेई को उत्तरी मध्य भारत के संगठन मंत्री का दायित्व दिया गया |

संस्मरण -

प्रारम्भिक दौर में ग्वालियर के प्रमुख स्वयंसेवक वा प्रचारक श्री महीपति बालकृष्ण जी चिकटे को मौ में विद्यालय स्थापित करने हेतु भेजा गया | योजना यह थी कि उस दुर्गम क्षेत्र में वे शिक्षा के माध्यम से संघ कार्य करेंगे | अत्यंत परिश्रम से उन्होंने लोकमान्य तिलक विद्यालय प्रारम्भ किया | किन्तु बहां विद्यालय संचालन समिति के अध्यक्ष तथा प्रमुख कांग्रेसी नेता भूता जी से मतभेद के चलते मामाजी, चिकटे जी तथा गंभीर सिंह जी आदि ने तय किया कि एक नया विद्यालय प्रारम्भ किया जाए | इस हेतु से अडोखर, टपरा तथा लहार के बीच एक स्थान का चयन कर विद्यालय भवन का निर्माण प्रारम्भ किया गया | अडोखर से अ, टपरा से ट तथा लहरा से ल अक्षर मिलाकर इस स्थान का नाम अटल नगर रखा गया | तत्कालीन कलेक्टर आर सी राय मामाजी से अत्याधिक प्रभावित थे | उनके सहयोग से ८ बीघा भूमि विद्यालय हेतु प्राप्त हो गई तथा जन सहयोग से विद्यालय निर्माण का कार्य प्रारम्भ हुआ | आज भी उस स्थान पर पहुँचना काफी कठिन होता है, फिर उस समय तो बह बिलकुल ही दुर्गम क्षेत्र था | सड़क से ३० कि.मी. पैदल चलकर अथवा बैलगाड़ी से ही बहां जाया जा सकता था | बहां प्रारम्भ में सरस्वती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय तथा बाद में राजमाता विजयाराजे सिंधिया महाविद्यालय प्रारम्भ होना संघ स्वयंसेवकों के अथक परिश्रम का ही प्रतिफल है | महापुरुषों के श्रम सीकरों से सिंचित उस क्षेत्र में संघ कार्य की जड़ें गहरी हैं | 
शाखा प्रारम्भ करते समय बहुत रोचक प्रसंग उपस्थित होते हैं | भिंड की मौ तहसील का लुहारपुरा गाँव यादव बहुल है | बहां अधिसंख्य किसान ही हैं | घी दूध की प्रचुरता के कारण आम तौर पर लोग बलिष्ठ व स्वस्थ होते हैं | भिंड के द्वितीय वर्ष शिक्षित स्वयंसेवक मेहमंत सिंह की छेकुरी में रिश्तेदारी थी अतः उसके माध्यम से ही लुहारपुरा में शाखा प्रारंभ करना तय हुआ | उसने बात करके बैठक का दिन तय कर लिया | मेहमंत सिंह के साथ मामा जी भी लुहारपुरा गए | उन्होंने बैठक में उपस्थित लोगों को संघ के विषय में जानकारी दी | बातों ही बातों में यह भी बताया कि संघ में लाठी चलाना भी सिखाया जाता है | सारी बातें सुनकर एक बुजुर्ग महाशय बोले कि हम पहले परख तो लें कि कैसी लाठी सिखाई जायेगी | आनन फानन में चार लाठियां मंगबाई गईं | तीन गाँव के नौजवानों को थमाई गईं और एक मामा जी को | मामाजी ने बह लाठी मेहमंत सिंह को दी और उन्हें ही आगे किया | गाँव के तीनों नौजवान थे तो हट्टे कट्टे पर उन्हें लाठी चलाने का कोई अभ्यास नही था | मेहमंत सिंह कुशलता से उनके प्रहारों को बचाते हुए उनकी पिटाई करने लगे | तीनों ने हारकर अपनी लाठियां फेंक दीं | तब उस बुजुर्ग ने कहा कि अच्छी बात है आप गाँव में शाखा लगाओ | उन्होंने गाँव के नौजवानों को भी संघ की शाखा में जाने को प्रेरित किया और इस प्रकार शुरू हुई लुहारपुरा की शाखा |




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