सुधीन्द्र कुलकर्णी की मोदी को बिन माँगी सलाह - आरएसएस पर साधा निशाना

आपको सुधीन्द्र कुलकर्णी तो स्मरण ही होंगे | अरे वे ही सुधीन्द्र जी जिनकी सलाह पर चलते हुए आडवाणी जी जिन्ना की मजार पर लौटपलौट हुए और वृद्धावस्था में अपनी जीवन भर की गूंजी गँवा बैठे | कुलकर्णी साहब का प्रयास अब मोदी जी का सलाहकार बनने का है | उन्होंने अपनी इच्छा इन्डियन एक्सप्रेस में एक आलेख लिखकर कुछ इस अंदाज में व्यक्त की है, मानो उनसे ज्यादा शुभचिंतक मोदी जी का कोई हो ही नहीं सकता | आरएसएस और शिवसेना के लोग मोदी जी के सबसे बड़े विरोधी हैं | उनसे अगर कोई मोदी जी को बचा सकता है तो वह केवल और केवल सुधीन्द्र कुलकर्णी जी ही हैं | देखें उनके लेख के कतिपय अंशों का हिन्दी अनुवाद -

गणतंत्र दिवस विज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वागत योग्य व विवादरहित संदेश है : "लोकतंत्र लोगों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता।" किन्तु जो छायाचित्र विज्ञापन में दर्शाया गया उसने विवाद को जन्म दिया | छायाचित्र की प्रस्तावना में 1976 में संशोधन द्वारा जोड़े गए दो शब्द, "धर्मनिरपेक्ष" और "समाजवादी" लापता हैं |
........ धर्मनिरपेक्षता का अर्थ माना जाता है गैर धार्मिक राज्य, जिसमें सभी धर्मों के लिए समान सम्मान हो | अगर इसे आयातित बताया जाता है तो क्या संसदीय लोकतंत्र भी पश्चिम से आयातित नहीं है ? यह सही समय है जब मोदी इस अनावश्यक बहस बंद करें और इसके स्थान पर व्यवहार में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के आधार पर सरकार चलाने पर ध्यान दें |  

इस संदर्भ में भाजपा नेताओं को दो महत्वपूर्ण सत्य याद दिलाने की जरूरत है । पहला तो यह कि इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान किये गए अनेक लोकतंत्र विरोधी संविधान संशोधनों को बाद में जनता सरकार द्वारा रद्द कर दिया गया था, किन्तु तब भी धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को निरस्त नहीं किया गया था, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी दोनों उस सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे।

दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह कि भाजपा ने स्वयं, 1980 में अपने स्थापना के समय जो संविधान अपनाया, उसमें स्पष्ट रूप से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के प्रति अपनी निष्ठा की पुष्टि की ।

पार्टी ने बाद में कई बार अपने संविधान में संशोधन किये, किन्तु यह समझदारी दिखाई कि इन दो शब्दों से छेड़छाड़ करना उचित नहीं समझा । क्या मोदी को पार्टी संविधान से इन दो शब्दों को हटाने के लिए अपनी पार्टी का समर्थन मिल जाएगा? और मान लो मिल भी जाए तो उसके नेता इतने समझदार तो है ही कि जानते हैं कि "बुनियादी संरचना" के रूप में सम्मिलित इन शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाया नहीं जा सकता । सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से बुद्धिमानी पूर्वक अनुच्छेद 368 के तहत संसद के अधिकारों में कटौती की है | अतः इस तरह के संशोधन जिससे संविधान के दिल और आत्मा में परिवर्तन हो संभव नहीं है | प्रधानमंत्री द्वारा "धर्मनिरपेक्षता" शब्द के प्रति अपनी नापसंदगी को उनके समर्थकों ने धर्मनिरपेक्षता की आलोचना के रूप में लिया है तथा एक ऐसा बौद्धिक वातावरण बनाने में मदद मिली है, जैसे कि सोशल मीडिया बहुतायत से धर्मनिरपेक्षता के स्थान पर अपमानजनक शब्द "sickular" से अटा पड़ा है।

अब भारतीय जनता पार्टी की महत्वपूर्ण सहयोगी  शिव सेना के एक सांसद ने खुले तौर पर धर्मनिरपेक्षता को स्थायी रूप से संविधान से हटाये जाने की मांग की है। क्यूँ? क्योंकि, उसके अनुसार, भारत एक हिंदू राष्ट्र है। इस प्रकार की विषाक्त मांग करने वाला वह कोई अकेला व्यक्ति नहीं है । संविधान की मूल भावना के प्रति खुली अवमानना व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतागण पूर्व से ही चीखते रहे हैं कि भारत को एक हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए । अतः क्या प्रधानमंत्री को अब इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपना मानस नहीं बनाना चाहिए । उनकी चुप्पी अनेक शंकाओं को जन्म दे रही है, जो स्वयं उनके लिए समस्याओं को पैदा करेगी | साथ ही जैसे जैसे समय बीतेगा, उनके सुशासन और विकास के एजेंडे को भी पलीता लगेगा ।

यह स्वागत योग्य है कि वरिष्ठ मंत्री वेंकैया नायडू ने स्पष्ट किया है कि 'धर्मनिरपेक्षता' शब्द को बदलने का सरकार का कोई इरादा नहीं है । हालांकि, प्रधानमंत्री को स्वयं जोरदार ढंग से इस विचार को व्यक्त करने की आवश्यकता है। यह स्वयं मोदी के भी हित में होगा और देश के भी | देश को अगर प्रगति पथ पर ले जाना है तो धर्म से जुड़े विभाजनकारी मुद्दों के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।हमारे दक्ष राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में धर्म के नाम पर संघर्ष के खिलाफ आगाह किया है।

और हमें समझना चाहिए कि आखिर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को हम भारतीयों और भारत के नेताओं को यह परामर्श देने कि क्या आवश्यकता थी कि देश की सफलता हमारे संकल्प और धार्मिक आधार पर विभाजित न होने की क्षमता पर निर्भर करता है ? यहाँ यह उल्लेख करना भी आवश्यक है कि स्वयं मोदी ने अपने चुनाव पूर्व साक्षात्कार में आश्वस्त किया था कि भारत सरकार की केवल एक पवित्र पुस्तक है और वह है संविधान | अतः यह उनका कर्तव्य है कि वे संविधान में लिखे हर शब्द का सम्मान करें, जिसकी कि उन्होंने शपथ ली है | इसलिए कर्तव्य बाध्य है, कि धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के प्रति भी अपनी निष्ठा व्यक्त करें और अपने ही गंभीर आश्वासन से बंधे। 

व्यावहारिक और नीतिगत रूप से उन्हें और उनकी सरकार को बिना किसी भेदभाव के समान रूप से सभी धर्मों और धार्मिक समुदायों के प्रति व्यवहार करना बाध्यता है । इसके अतिरिक्त भारत के सामाजिक, आर्थिक, प्रत्येक समुदाय के भीतर धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद दोनों का सार है | उनकी सरकार को सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए अवसरों में बढ़ती असमानता दूर करने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने चाहिए | एक और बिंदु है, राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रगति। संक्षेप में, मोदी ने जो कहा था "सबका साथ-, सबका विकास , उन्हें अपने उस वादे को पूरा करने के लिए पवित्र पुस्तक संविधान की प्रस्तावना के प्रति अटूट निष्ठा रखनी होगी । 

(और मजे की बात देखिये कि जनता को बरगलाने के लिए सुधीन्द्र कुलकर्णी जी ने अपने लेख का समापन अपने परिचय के रूप में किया है, और परिचय में लिखा है - लेखक पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी रहे हैं )

वाह वाह सुधीन्द्र जी बेचारे आडवाणी जी का उल्लेख भी नहीं किया, जो आपकी कृपा का भरपूर लुत्फ़ ले रहे हैं |
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