मांझी लगायेंगे किसकी नैया पार ?


फिलहाल भले ही मांझी ने स्तीफा देकर नीतीश का रास्ता साफ़ कर दिया हो, किन्तु बिहार की सियासी स्थिति डांवाडोल ही है | वहां ऊँट किस करबट बैठेगा, यह कहा जाना मुश्किल है | इतना तो साफ़ है कि जनता दल यू में बगावत तो हुई है, भले ही ज्यादा बड़ी न हुई हो | अब सबकी निगाहें मांझी और उनके समर्थकों की भावी गतिविधि पर टिकी हैं |सबसे अहम् सवाल है कि मांझी अब क्या करेंगे ? 

इतनी उठापटक के बाद नीतीश के साथ जाने की संभावना तो लगभग शून्य ही है | जिस व्यक्ति ने अपनी अदम्य महत्वाकांक्षा के चलते मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने वाले अपने नेता को नहीं बख्शा, वह राजनीति भी छोड़ने से रहा | बिहार की पेचीदा जातिवादी राजनीति में मांझी भाजपा के साथ भी सीधे तौर पर शायद ही जुड़ें | अब अहम सवाल है कि आखिर वे करेंगे क्या ?

फिलहाल भले ही उन्हें स्तीफा देना पड़ा हो, किन्तु उनकी निगाहें तो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी ही रहने वाली हैं, जो भाजपा उन्हें देने का सोच भी नहीं सकती | इसलिए मांझी के भाजपा से सीधे जुड़ने का भी सवाल ही नहीं पैदा होता |अब अगर न नीतीश के साथ जाना है, न भाजपा के, और राजनीति में भी रहना है तो लेदेकर एक ही संभावना बचती है, और वह है अपनी खुद की अलग पार्टी बनाना | 

अब अगर वे अलग पार्टी बनाते हैं, तो क्या सब सीटों पर स्वयम लड़कर अपनी दम पर सरकार बनाने का दिवा स्वप्न संजोयेंगे ? जिस महादलित वोटबेंक पर सभी सियासी दलों की निगाहें टिकी हैं, उनका कितना साथ मांझी को मिलेगा, यह एक बड़ा सवाल है | उत्तरप्रदेश में जो करिश्मा बहुजनसमाज पार्टी ने किया था, क्या वह अजूबा कारनामा मांझी बिहार में कर पायेंगे ? बसपा ने जिस प्रकार कांग्रेस के परम्परागत वोटबेंक को तोड़कर उसे यूपी में चौथे नंबर की पार्टी बना दिया, क्या मांझी नीतीश को उतना बड़ा झटका दे पायेंगे ?

बहरहाल अगर आगामी विधानसभा चुनाव में सब सीटों पर चुनाव लड़ने का निर्णय लेते हैं, तो उसका सबसे ज्यादा खामियाजा नीतीश को होगा, यह बात दिन के उजाले की तरह साफ़ है | नीतीश का मुख्यमंत्रित्व काल महज चार छः महीने का ही है | फिर तो चुनावी सरगर्मी प्रारम्भ होना ही है | आज भले ही लालू और नीतीश साथ दिखाई दे रहे हों, किन्तु चुनाव में कौन बड़ा भाई रहेगा ? और छोटा भाई बड़े भाई के लिए कितनी कुर्बानी देने को तैयार होगा ? इन सवालों का जबाब क्या इतना आसान है ? 

मेरी नजर में तो लालू और नीतीश का साथ साथ आगामी चुनाव में जाना किसी चमत्कार से कम नहीं होगा | अगर वे साथ साथ रहे भी तो उनकी नजर खुद को ज्यादा सीटें प्राप्त करना और दूसरा ज्यादा सीटें न ले जा पाए, इस पर रहनी लाजिमी है | अब ज़रा विचार कीजिए कि मांझी अगर अलग चुनाव लड़ते हैं, तथा लालू और नीतीश की अपनी अपनी ढपली, अपना अपना राग रहता है तो इसका सीधा लाभ किसे मिलेगा ? उत्तर एक ही है - भाजपा को ही लाभ होगा | कांग्रेस का तो कोई भविष्य वहां है ही नहीं, उसका संगठनात्मक बजूद समाप्तप्राय है | 

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