देश बड़ा या तंत्र हवाएं पूछ रही हैरान !
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सर्व धर्म समभाव सिखाती भारत संस्कृति सृष्टि को !
आज विखंडित करती जाती राजनीति इस दृष्टि को !!
जातिभेद तो हुए पुराने जैसे तैसे सह लेंगे !
राजनीति में वर्ग बने जो कष्ट महा दुस्सह देंगे !!
कुर्सी लोलुपता की खातिर लड़ें जानवर जंगली हैं !
जहां जरूरी बज्र मुष्टिका अलग अलग हर उंगली है !!
शव भक्षी गृद्ध्रों के साए फिर चहुँदिश छाये हैं !
प्रजातंत्र की लाश पडी है नोंच नोंच खाए हैं !!
राजनीति में सेवा कैसी, है यह काला धंधा !
कोई नेता नहीं अछूता सबका दामन गंदा !!
लड़ना है चूनाव अगर तो लेना होगा चन्दा !
दाता चाहे डाकू हो या फिर नेक खुदा का वंदा !!
देश बड़ा या तंत्र हवाएं पूछ रही हैरान !
जन गण मन की अभिलाषा से नेता हैं अनजान !!
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Tags :
काव्य सुधा
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