सिक्ख गुरुओं की गाथा और महाराष्ट्र !


गुरू नानक का पंथ संतों और वीरों का पंथ है | यही कारण है कि संत और वीर पूजक महाराष्ट्र का उनके साथ जीवंत संबंध रहा | गुरू नानकदेव जी के चरित्र और विचारों की सुगंध सह्याद्री पर्वत माला के मूल से शिखर तक व्याप्त है | महाराष्ट्र में गुरू नानकदेव जी को मूल्यवान संतशिरोमणि माना जाता है और यहाँ के संतचरित्र ग्रंथों में उनकी तेजोमय जीवन गाथा का गायन हुआ है |

केवल इतना ही नहीं तो नानक देव और महाराष्ट्र का आत्मीय और नित्य संबंध इससे कहीं अधिक प्रगाढ़ है | सत्य निष्ठा के लिए प्राणों की आहुति देने की सिद्धता देने वाले गुरू नानक के विचार जिस धरा पर पल्लवित, पुष्पित हुए, उस भूमि की यात्रा भी महाराष्ट्र के जिस पुत्र ने सबसे पहले की, उनका नाम है संत नामदेव | चौदहवीं सदी के प्रारम्भ में पंजाब गए और अनेक वर्षों तक वहां रहे | उन्होंने पंजाब में धर्म जागरण का महत्वपूर्ण कार्य किया | यह वह समय था जब नामदेव की जन्म भूमि में स्वातंत्र्य की अग्नि प्रज्वलित थी | उसकी तुलना में पंजाब में कुछ न्यूनता थी | आक्रमणकारियों के असंख्य पदाघातों ने पंजाब के कण कण को झकझोर दिया था | सारी जनता हताशा के गर्त में डूबी हुई थी | अपनी अस्मिता बनाए रखने के लिए जिस मनोबल की आवश्यकता होती है, उसका कहीं नामोनिशान नहीं था | ऐसे समय में नामदेव ने पंजाब को निर्भय करने वाली सत्यनिष्ठा का उपदेश दिया और उद्घोष किया कि मूर्ति व मंदिरों के विध्वंश से परम सत्य प्रभावित नहीं होता –

ईभै बीठलु ऊभै बीठलु, बीठल बिनु संसार नहीं,
थानथनंथरि नामा प्रणवै पूरि रहिऊ तू सरब मही |

यहाँ भी बिट्ठल, वहां भी बिट्ठल, बिट्ठल बिन संसार नहीं,
प्रणवाक्षर के मध्य सुशोभित, व्याप्त उसीसे यह जगती |

ऐसे सार्वभौम परम सत्य का डंका नामदेव ने पंजाब में सबदूर घूम घूम कर बजाया | केवल पंजाब में ही नहीं तो पूरे उत्तर भारत में उन्होंने धर्मजागरण के आन्दोलन का श्रीगणेश किया | नामदेव के बाद हुए अनेक संतों ने उनके इस महान कार्य को मुक्त कंठ से स्वीकार किया है | 

गुरू नानकदेव और उनकी परंपरा के अन्य गुरुओं ने नामदेव के प्रति अपार कृतज्ञता व्यक्त की है | पांचवे गुरु और गुरुग्रन्थ साहब के संकलक गुरु अर्जुनदेव जी ने तो यहाँ तक लिखा कि “नामे नारायणे नाही भेद” | सिक्खों का धर्म ह्रदय बन चुके “ग्रन्थ साहब” में नामदेव जी के इकसठ पद समाहित हैं और उनकी पंजाब यात्रा की स्मृति में एक गुरुद्वारा भी स्थापित है |

स्नेह का यह सम्बन्ध आगे चलकर और प्रगाढ़ होता गया | इस सन्दर्भ में गुरु नानकदेव के सुपुत्र और उदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीचंद्राचार्य जी के जीवन का एक प्रसंग ध्यान देने योग्य है | श्री चंद्राचार्य विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों व विध्वंशक वृत्ति से अत्यंत दुखी थे | राजस्थान के राजपूत वीरों से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध थे | भारत की इस विपरीत परिस्थिति का उन्होंने अपनी आँखों से अवलोकन किया था | हिमालय से रामेश्वर तक तथा आसाम से काबुल तक उन्होंने भ्रमण किया था | इसके बाद भी उन्होंने फिर एकबार दक्षिण यात्रा का विचार किया | अपने एक शिष्य कमालिया को साथ लेकर वे दिल्ली, ग्वालियर, जबलपुर, नागपुर, रामटेक होते हुए रामेश्वर तक गए | अपने भ्रमण के दौरान शक संवत 1546 में वे नासिक आये | वहां गोदा-नंदिनी के संगम पर उन्होंने एक 16 वर्षीय तेजस्वी बालयोगी को तपस्या करते देखा | उन्होंने उस बालयोगी से भेंट की तथा उन्हें अपने ह्रदय के घाव दिखाए | श्री चंद्राचार्य ने बालयोगी को देश और समाज की स्थिति बताकर शक्ति की उपासना करने व सामर्थ्यशाली बनने का उपदेश दिया |

श्री चंद्राचार्य से जिनकी भेंट हुई वे बालयोगी और कोई नहीं बल्कि महाराष्ट्र में धर्मध्वजा फहराने वाले, धर्म का विजई उत्थान करने वाले समर्थ स्वामी रामदास थे | इतिहास साक्षी है कि उस भेंट के बाद समर्थ स्वामी रामदास ने भारत का भ्रमण किया और उसके बाद तो शीघ्र ही सम्पूर्ण महाराष्ट्र में सह्याद्री के चारों ओर श्री राम के कोदंड की टंकार गूंजने लगी | आक्रमणकारियों के ह्रदय को भयकंपित करने वाले हनुमान की छटा अंकित भगवाध्वज सब ओर फहराने लगा | महिषासुर का मस्तक काटने वाली भवानी के खड्ग की खनकार से वातावरण गूंजने लगा | नानक के पुत्र द्वारा गोदावरी के तट पर दी गई प्रेरणा के अग्निबीज से उत्पन्न सैंकड़ों अग्नि पुष्पों का उदय सह्याद्री ने अपनी आँखों से देखा | आकमणकारियों के रक्त से महाराष्ट्र की धरा का अभिसिंचन हुआ |

उसके बाद नानक परम्परा का महाराष्ट्र से संबंध गुरू गोविन्दसिंह के जीवन काल में आया | शिव-समर्थ ने मराठा समाज को संगठित किया और “मारते मारते मरने” की मृत्युंजयी जिद पैदा की | परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब की सेना त्राहि त्राहि करने लगी | उत्तर में वही शिक्षा गुरू गोविन्दसिंह ने अपने बांधवों को दी –

सूरा तो पहचानिए, लढे दीन के हेत |
पुर्जा पुर्जा कट मरे, कभु न छांड्यो खेत ||

(जो धर्म के लिए प्राणोत्सर्ग को सन्नद्ध होते हैं, वे टुकडे टुकडे होने पर भी मरते दम तक युद्ध भूमि नहीं छोड़ते, वे ही शूरवीर कहलाते हैं)

गोविन्द सिंह जी की इस सिंहगर्जना ने समाज को स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी | निष्ठा अटूट थी, पर भौतिक सामर्थ्य के अभाव की कठिनाई भी | गुरु अपने परिवार के साथ सरहिंद के पास वनवासी होकर रहने लगे | वहां स्वजनों के विश्वासघात के कारण गुरु के सिंहशावक जैसे दो पुत्र, फतहसिंह और जोरावरसिंह की सरहिंद के सूबेदार ने दीवार में चिनवा कर ह्त्या कर दी | कोमल शिशुओं की इस हत्या को सिंह ने ऊपर से तो धैर्य से सहा, किन्तु अन्दर ही अंदर उस वीर ह्रदय में दाहक अग्नि प्रज्वलित थी | 

परिस्थिति की प्रतिकूलता बढ़ती जा रही थी | उनका शत्रु सिंह के शिकार के लिए बढ़ता चला आ रहा था | ऐसे में अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ गुरू गोविन्दसिंह दक्षिण में आये | मराठाओं की शौर्य गाथा उन्होंने सुन रखी थी | हताशा के उस दौर में उन्होंने गोदावरी के नाभितीर्थ नासिक को अपना आवास बनाया | वहां माधवदास नामक एक बैरागी आश्रम में रहकर तपस्या रत थे | गुरू से उनकी भेंट हुई व उसके बाद गुरू के अतुलनीय त्याग, दैदीप्यमान शौर्य एवं उनकी दाहक वेदना ने माधवदास के ह्रदय को झकझोर दिया | वह गुरू का बंदा बन गया | अपनी मातृभूमि की बन्दना के लिए उसने हाथों में खड्ग उठा लिया | गुरू के आदेश पर गोदावरी का यह पुत्र रावी व्यास के किनारे तक गया और उसने सोये हुए पंजाब को पुनः जगाया | गुरू के जख्मी हृदय को इस नवीन विजय समाचार से कुछ राहत जरूर मिली होगी | इधर तो गुरू के पुत्रों को दीवार में चिन्वाने वाला सरहिंद का सूबेदार गुरू के बन्दे की क्रोधाग्नि में भस्म हो रहा था, उधर गोदावरी के तट पर चिर समाधि में लीन हो रहे थे | 

औरंगावाद में ही सिखों के पवित्र तीर्थ स्थान की निर्मिती हुई | गुरूद्वारा धौनी साहब सिक्खों के पंचप्यारों में से एक भाई दया सिंह जी से सम्बद्ध है | औरंगजेब की अंतिम दक्षिण यात्रा में भाई दया सिंह जी ने इसी स्थान पर गुरू जी का अमर सन्देश “जफरनामा” उसे दिया था | 

गुरू गोविन्द सिंह से स्फूर्ति, प्रेरणा लेकर उनके संकल्पपूर्ति के लिए लड़ने वाला बंदा बैरागी हो अथवा नामदेव महाराज, दोनों ही नानकदेव के अनुयाईयों और महाराष्ट्र के अटूट स्नेह सम्बन्ध के साक्षी हैं | 

समर्थ स्वामी रामदास ने अपनी समाधी के पूर्व सन्देश दिया –

आत्माराम दासबोध, माझे स्वरुप स्वतःसिद्ध |
(दासबोध स्वयं स्वतःसिद्ध मेरा स्वरुप है)

जबकि गुरू गोविन्दसिंह का अंतिम सन्देश भी लगभग ऐसा ही है –

नानक गुरु गोविन्दसिंह पूरण हरि अवतार,
जगमग ज्योत विराजहिश्री गुरुग्रंथ मझार |
आज्ञा भाई अकाल की, सबी चलायो पंथ,
सब सिक्खन को हुक्म है, गुरू मानियो ग्रन्थ ||

अर्थात उन्होंने भी गुरू ग्रन्थ साहब को ही गुरू मानने का आदेश अपने अनुयाईयों को दिया |

आगे चलकर जब माहाराष्ट्र ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष की हुंकार भरी, तब भी गुरू गोविन्दसिंह व बंदा बैरागी की शौर्य गाथा ने प्रेरणा का कार्य किया | उस वीरगाथा की प्रतिध्वनी सदा सर्वदा महाराष्ट्र व भारत का मार्गदर्शन करती रहे |

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