सामाजिक समरसता - आज की सर्वोपरि आवश्यकता



झंझावाती सन्यासी के नाम से ख्यात स्वामी विवेकानंद भारत भक्ति के ज्वाजल्यमान मूर्तिमत स्वरुप थे। उन्होंने आध्यात्म को देश भक्ति का पर्याय बना दिया था। विभिन्न अवसरों पर उनके द्वारा दिए गए उद्वोधनों में यही भावना परिलक्षित हुई है। 12 वर्षों तक भारत भ्रमण के दौरान तत्कालीन समाज में आई विकृतियों को उन्होंने निकट से समझा। और फिर उनके समाधान के लिए जुट गए। उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक और मार्गदर्शी हैं। प्रस्तुत हैं सामाजिक समरसता पर उनके विचार जो आज देश की प्राथमिक आवश्यकता है-
 
मैं एक छोटा सा बुलबुला हो सकता हूं। तुम पर्वताकार ऊंची तरंग हो सकते हो, परन्तु यह समझ रखो कि हम दोनों के लिए पृष्ठभूमि अनंत समुद्र ही है। हम दोनों क्षुद्र हों या महान, शक्ति के भण्डार अनंत ब्रह्म से अपनी इच्छानुसार शक्ति संग्रह कर सकते हैं।
 
जब तक तुम लोग उसी एक भगवान को सर्वत्र एक ही भाव से अवस्थित नहीं देखते, तब तक तुम्हारे भीतर वह प्रेम पैदा नहीं हो सकता। उसी प्रेम की पताका फहराओ। उठो जागो, जब तक लक्ष्य पर नहीं पहुंचते तब तक मत रुको। ईसाईयों की भाषा में कहता हूँ– तुम ईश्वर और शैतान की सेवा एक साथ नहीं कर सकते। तुम्हारे पूर्व पुरुषों ने बड़े-बड़े काम करने के लिए संसार का त्याग किया है। तुम भी सब कुछ दूर फेंको। यहां तक कि अपनी मुक्ति का विचार भी दूर रखो– जाओ, दूसरों की सहायता करो।
 
यदि यह जाति बची रही तो तुम्हारे और हमारे जैसे हजारों आदमियों के भूखों मरने से भी क्या हानि है? यह जाति डूब रही है। लाखों प्राणियों का श्राप हमारे सर पर है, सदा ही अजस्त्र जलधार वाली नदी के समीप रहने के बाद भी हमने उन्हें नाबदान का पानी दिया। उन अगणित लाखों मनुष्यों का, जिनके सामने भोजन के भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला, जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्व तो सुनाया, पर तीव्र घृणा भी की। जिनके विरोध में हमने लोकाचार का आविष्कार किया। सब बराबर हैं, सबमें एक ही ब्रह्म है– यह मौखिक तो कहते रहे– पर इस उक्ति को व्यवहार में लाने का रंच मात्र भी प्रयत्न नहीं किया। हरे! हरे! अपने चरित्र का यह दाग मिटा दो। उठो, जागो।
 
सभी मरेंगे– साधु या असाधु, धनी या दरिद्र– सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और पूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल जिससे मनुष्य आजीवन दृढव्रती बन सके। ‘नीतिनिपुण मनुष्य चाहे निंदा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आए या चली जाए, मृत्यु आज ही हो चाहे शताव्दी के पश्चात, जो धीर हैं वे न्यायमार्ग से एक पग भी नहीं हिलते।
 निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मिः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात पथः प्रविचलन्ति पदम् न धीराः।। 
उठो जागो, समय बीता जा रहा है और व्यर्थ के वितंडावाद से हमारी सम्पूर्ण शक्ति का क्षय होता जा रहा है। उठो, जागो, छोटे-छोटे विषयों और मतमतान्तरों को लेकर व्यर्थ का विवाद मत करो। तुम्हारे सामने सबसे महान कार्य पड़ा हुआ है– लाखों आदमी डूब रहे हैं, उनका उद्धार करो।  हमें अध्यात्म की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी अद्वैतवाद को थोड़ा कार्य रूप में परिणीत करने की। गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं। हमारे दो दोष बड़े प्रबल हैं। पहला दोष हमारी दुर्बलता है और दूसरा है घृणा करना, हृदयहीनता। लाखों मतमतान्तरों की बात कर सकते हो, करोड़ों सम्प्रदाय संगठित कर सकते हो, परन्तु जब तक उनके दुःख को अपने हृदय में अनुभव नहीं करते, तब तक कुछ नहीं होगा। वैदिक उपदेशों के अनुसार जब तक स्वयं नहीं समझते कि वे तुम्हारे ही शरीर के अंश हैं, तब तक कुछ न होगा। जब तक तुम और वे– धनी और दरिद्र, साधू और असाधु सभी उस अनंत पूर्ण के, जिसे तुम ब्रह्म कहते हो, अंश नहीं हो जाते, तब तक कुछ न होगा।
 
यूरोप और अमेरिका में भी इस अद्वैतवाद का कुछ अंश जाना चाहिए। पश्चिमी सभ्यता की भी इससे रक्षा होगी। कारण, पश्चिमी देशों में कांचन की पूजा के रूप में शैतान की पूजा प्रवर्तित हुई है। कोई भी राष्ट्र हो, चाहे वह कितना ही प्रबल क्यों न हो, ऐसी बुनियाद पर कभी नहीं टिक सकता। संसार का इतिहास हमसे कह रहा है, जिन किन्हीं लोगों ने ऐसी बुनियाद पर अपने समाज की रचना की, वे विनष्ट हो गए। भारत में कांचन पूजा की यह तरंग न आ सके, उसकी ओर पहले से ही नजर रखनी होगी। परन्तु सबसे पहले तुम्हें याद दिलाता हूँ कि व्यावहारिक कार्य की आवश्यकता है, और उसका प्रथमांश यह है कि घोर से घोरतम दरिद्रता और अज्ञान तिमिर में डूबे हुए साधारण लाखों भारतीयों की उन्नति साधना के लिए उनके समीप जाओ। उनको अपने हाथ का सहारा दो और भगवान कृष्ण की यह वाणी याद रखो:
 इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मादब्रह्मणी ते स्थिताः।। (गीता) 
(जिनका मन इस समय साम्य भाव में अवस्थित है, उन्होंने इस जीवन में ही संसार पर विजय प्राप्त कर ली है। चूंकि ब्रह्म निर्दोष और सबके लिए सम है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं।)

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