लखनऊ उच्चन्यायालय का निर्णय और भारत का शैक्षणिक इतिहास |


देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर विगत दिनों उत्तरप्रदेश के लखनऊ उच्च न्यायालय ने जो निर्णय दिया, उसने जैसे सोये हुए समाज को झकझोर कर जगा दिया है | प्राथमिक शिक्षा देश के धनी मानी नौकरशाह, नेतागण और सामान्य कहे जाने वाले आम नागरिकों को एक समान दिया जाना व्यावहारिक है अथवा नहीं इसे लेकर देश में व्यापक बहस प्रारम्भ हो गई है | इस विषय पर विचार करते समय गुलामी के पूर्व के भारत की शिक्षा व्यवस्था पर भी एक नजर डालना प्रासंगिक होगा | प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक स्व. धर्मपाल जी ने इस विषय को लेकर पर्याप्त शोध किया भी था | 

पौराणिक काल से लेकर अंग्रेजों की गुलामी के काल तक भारत की शिक्षा व्यवस्था एक रमणीय वृक्ष के समान थी | जिसमें तना, फूल, पत्ती, फल सब अलग अलग दिखते हुए भी एक ही जड़ से पोषण प्राप्त करते थे | अर्थात सबकी शिक्षा दीक्षा एक ही प्रकार से होती थी | चाहे गुरू वशिष्ठ का आश्रम हो, चाहे सांदीपनी मुनि का आश्रम, राजा और रंक सभी के बच्चे एक साथ शिक्षा गृहण करते और शिक्षा प्राप्ति के उपरांत अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों के लिए समर्पित होते थे | कृष्ण और सुदामा इसी व्यवस्था का अनुपम उदाहरण है |

यही कारण है कि अंग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व भारत शिक्षा, कृषि, हस्तशिल्प आदि अनेक क्षेत्रों में अग्रणी था | किन्तु अंग्रेजों ने योजनापूर्वक भारत की संपत्ति का शोषण करने के लिए इसे पददलित किया | 1835 में बिलियम एडम ने बंगाल और बिहार के गाँवों में शिक्षा की स्थिति को लेकर एक सर्वेक्षण किया था | उसने अपने प्रथम विवरण में लिखा था कि 1830 से 1840 के वर्षों में बंगाल और बिहार के गांवों में एक लाख के लगभग पाठशालाएं थीं | चेन्नई प्रदेश के लिए भी ऐसा ही अभिमत टॉमस मनरो ने व्यक्त किया था | उसके अनुसार “वहां प्रत्येक गाँव में एक पाठशाला थी” | इसी प्रकार मुम्बई प्रेसीडेंसी के जी.एल.प्रेंटरगास्ट नामक वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा कि “गाँव बड़ा हो या छोटा, यहाँ शायद ही कोई ऐसा गाँव होगा, जिसमें कमसेकम एक पाठशाला न हो | बड़े गाँवों में तो एक से अधिक पाठशालाएं भी थीं |

अंग्रेज अधिकारियों के लिए इन सर्वेक्षणों को पचा पाना बहुत मुश्किल था | क्योंकि उनके देश में सन 1800 तक आम परिवार के बच्चों के लिए पाठशालाओं की व्यवस्था बहुत साधारण स्तर की ही थी | इतना ही नहीं तो जो विद्यालय थे भी उनकी स्थिति भी बहुत दयनीय थी | और तो और जब भारत तथा इंग्लेंड के बीच शिक्षा, उद्योग, हस्तकला, कृषि आदि की तुलना हुई तो यह दिखाई दिया कि भारत के कृषि मजदूर को इंग्लेंड के कृषि मजदूर की तुलना में अधिक वेतन प्राप्त होता था | इन सर्वेक्षणों से एक बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हुई कि गुलामी काल में यद्यपि भारत कंगाल बना, किन्तु उसके बाद भी भारत में शिक्षा का प्रसार, शिक्षा पद्धति, पाठ्यक्रम आदि की गुणवत्ता और व्यापकता उन दिनों भी इंग्लेंड की अपेक्षा अच्छी थी | साथ ही भारत की पाठशालाओं का वातावरण भी इंग्लेंड की पाठशालाओं की तुलना में विशेष आत्मीयता पूर्ण और नैसर्गिक था |

एडम के सर्वेक्षण के 45 वर्ष बाद डॉ. जी.डब्लू. लीटनर द्वारा पंजाब प्रांत में पारंपरिक भारतीय शिक्षा को लेकर व्यापक सर्वेक्षण किया | डॉ. लीटनर लाहौर के सरकारी कोलेज में प्रिंसिपल थे | वे कुछ समय तक पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग में निदेशक के पद पर भी रहे थे | उनके निष्कर्ष भी एडम के समान ही थे, बल्कि यूं कहा जाए कि अधिक स्पष्ट और असंदिग्ध थे | लीटनर अपने सर्वेक्षण में लिखते हैं कि, “ जब पंजाब अंग्रेजों के अधिपत्य में आया, तब वहां विभिन्न स्तर की पाठशालाओं में तीन लाख तीस हजार छात्र थे | वे सभी लिख पढ़ सकते थे, साथ ही साधारण गणना भी कर सकते थे |”

18वीं, 19वीं शताब्दी में भारत आये अंग्रेज अधिकारियों और प्रवासियों द्वारा लिखे गए लेखों के आधार पर ही चार्ल्स मेटकाफ और हेनरी मोईनी ने भारत को प्रजातांत्रिक गाँवों का देश निरूपित किया | उनके अनुसार उस समय भारत के गाँव भी राज्यों के समान एक दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र थे | गांवों की सारी राजस्व आय के ऊपर उन गाँवों का ही अधिकार रहता था | भारतीय समाज और राजतंत्र भले ही एक राष्ट्र के तौर पर सदा संगठित और एक सूत्र में आबद्ध रहे हों, किन्तु समाज या शासन तंत्र किसी केन्द्रीय व्यवस्था से कभी जुड़े हुए नहीं रहे | शायद भारतीय सैन्य तंत्र की कमजोरी का भी यही कारण रहा | इसके बाद भी अगर भारतीय समाज जीवन बचा रहा तो उसे समझने के लिए यूरोपीय चश्मा नहीं, बल्कि भारतीय दृष्टि आवश्यक है | 

जिस दिन राजराजेश्वर श्री कृष्ण और विपन्न सुदामा एक साथ अध्ययन करने लगेंगे, भारत पुनः जग सिरमौर बन जाएगा | एक समान शिक्षा व एक समान चिकित्सा सुविधा स्वतंत्र भारत की प्राथमिकता होना चाहिए |

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