हमारे बीच में बसे आतंकियों के मसीहाओं पर कब कार्यवाही होगी ?


कल 1 अगस्त को देश की प्रमुख वेब साईट MediaCrooks में yakub's Angels के नाम से एक विचारपूर्ण आलेख छपा है | प्रस्तुत हैं उस आलेख के कुछ अनूदित अंश -
जरा इन शब्दों पर गौर करें : "विस्फोट से पीड़ित इसे न्याय कह रहे हैं, लेकिन जरा बड़े कब्रिस्तान की ओर देखो और फिर मुझे बताओ, कि यह किसी व्यक्ति का अंत प्रतीत होता है, अथवा किसी अभियान का प्रारम्भ ? 

ये शब्द उस व्यक्ति के हैं जो याकूब मेमन के अंतिम संस्कार में भाग लेने वाले हजारों लोगों में से एक है | वही याकूब मेनन जिसे 1993 के मुंबई विस्फोटों के लिए दोषी पाया गया और 30 जुलाई को, फांसी पर लटका दिया गया | मुसलमानों की बहुत बड़ी भीड़ मेमन मेमन के नारे लगाते हुए विलाप कर रही थी । मीडिया और कुछ 5 सितारा कार्यकर्ताओं ने एक आतंकवादी को हीरो बना दिया था। 

हम आगे बढ़ने से पहले,कुछ पुरानी यादों को ताज़ा करते हैं। भीड़भाड़ वाले स्थानों पर रखे गए 13 बमों से सिलसिलेवार बम-विस्फोट किये गए । तब कई भारतीयों ने पहली बार घातक विस्फोटक आरडीएक्स का नाम सुना । दुनिया भर में यह अपनी तरह का पहला सिलसिलेवार बम-विस्फोट था । अगर आपको आज इस तरह के हमले की जानकारी अखबारों में पढ़ने या टीवी पर देखने को मिले, तो आपका खून खौल उठेगा ? मुझे यकीन है कि आप अपराधियों के लिए तत्काल मृत्युदंड की कामना करेंगे । लेकिन 22 साल बाद मुम्बई बम धमाकों के मुख्य अपराधियों में से एक याकूब को सिक्यूलरों ने हीरो बना दिया । आईये देखें कि यह सब कैसे हुआ ?

सर्वोच्च न्यायालय ने याकूब को मौत की सजा सुनाई । एक समीक्षा याचिका में भी इस सजा की पुष्टि की गई तथा अप्रैल 2014 में राष्ट्रपति ने भी उसकी दया याचिका खारिज कर दी | उस समय तक सब कुछ शांतिपूर्ण था | और जैसे ही महाराष्ट्र सरकार ने 30 जुलाई को याकूब को फांसी पर लटकाने की घोषणा की, मानो भूचाल आ गया | अचानक आये मेहमानों की तरह वकीलों की भीड़ उमड़ पड़ी | मीडिया शैतानी पर आमादा हो गई | बरबट के पाखंडी एक्टिविस्ट प्रगट हो गए | और इन सबने उसके अपराध के लिए दी जाने वाली मौत की सजा को अन्यायपूर्ण बताते हुए दया का कोरस गाना शुरू कर दिया । 250 से अधिक तथाकथित "प्रख्यात" व्यक्तियों ने पुनः दया के लिए राष्ट्रपति के सम्मुख याचिका दायर कर दी | इस याचिका के माध्यम से रुदाली करने वालों में राजनीतिज्ञ और मीडिया कर्मी दोनों शामिल थे | मजे की बात यह कि हिन्दू ज्यादा और मुसलमान अपेक्षाकृत कम थे | लेकिन उद्देश्य एकदम साफ़ था – और वह था आतंकवादियों का महिमा मंडन |

इनमें से कईयों ने दावा किया कि सजा देते समय जो सबूत दिए गए हैं, वे झूठे और त्रुटिपूर्ण हैं । इसके बाद कहा गया कि याकूब ने आत्मसमर्पण किया है | रेडिफ की शीला भट्ट द्वारा चतुरता पूर्वक इस झूठ का आधार रॉ के पूर्व अधिकारी बी. रमन का वह आलेख बताया जो अभी तक प्रकाशित ही नहीं हुआ है | इस सब के बाद भी जब उन्हें लगा कि याकूब के प्रति कोई सहानुभूति पैदा नहीं हो पा रही तो उन्होंने कहना शुरू किया कि वे सिद्धांत रूप में मौत की सजा के खिलाफ हैं । संक्षेप में बाय हुक बाय क्रुक याकूब को बचाने के लिए उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक दी | इन लोगों का यह व्यवहार कितना फरेबी और कपटपूर्ण था, आइये उस पर भी गौर करें | इन हेक्टिविस्टों में ज्यादातर वे लोग थे जो अक्सर बलात्कार की हर घटना के बाद चीख चीख कर "बलात्कारियों को मौत" की मांग करते रहे हैं।

इस मुद्दे पर पाखंड तो नदी में आई बाढ़ की तरह बढ़ता जा रहा था। 28 जुलाई के बाद एक ओर तो याकूब के वकील याचिका पर याचिका प्रस्तुत कर रहे थे, तो दूसरी ओर एक और दया याचिका राष्ट्रपति को भी प्रस्तुत की गई । 29 जुलाई शाम सुप्रीम कोर्ट ने अंतिम अपील को भी खारिज कर दिया और राष्ट्रपति ने भी दया याचिका को नामंजूर कर दिया । लेकिन किस्सा अभी खत्म नहीं हुआ | 

याकूब के वकीलों ने देर रात को मुख्य न्यायाधीश के आवास पर जाकर एक और याचिका दायर की जिसमें मांग की गई थी कि फांसी का निष्पादन 14 दिन के लिए टाल दिया जाए । ये सारे कुटिल प्रयास येन केन प्रकारेण मामले को लंबित करने के लिए हो रहे थे । देश के मुख्य न्यायाधीश ने 30 जुलाई को प्रातःकाल ही इस अंतिम अपील की सुनवाई की और उसे अमान्य किया । मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट ने याकूब के वकीलों, हमारी आपराधिक मीडिया और विक्रीत अतिवादियों को यह मौक़ा नहीं दिया कि वे हमारी न्यायपालिका पर उंगली उठा सकें । इस बात की जितनी सराहना की जाये कम है |

याकूब के प्रमुख वकील आनंद ग्रोवर ने 30 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतिम अपील अस्वीकार कर दिये जाने के बाद दावा किया कि उनकी याकूब को बचाने की कोई मंशा नहीं थी, वे तो केवल समर्थकों को संतुष्ट कर रहे थे । हालांकि असावधानी में उनके मुंह से यह सचाई भी निकल गई कि वे यह सब इसलिए कर रहे थे, क्योंकि वे मोदी के खिलाफ थे । यही वास्तविकता है | यही सचाई है | इस पूरी बकवास पर एजी मुकुल रोहतगी की एक शब्द में व्यक्त की गई प्रतिक्रिया एकदम सटीक है - "प्रक्रिया का दुरुपयोग" । 

याकूब के वकीलों ने उसी कानून की प्रक्रिया का निरादर किया जिसने उन्हें जीवन में शानदार ऊंचाई प्रदान की है । कानून और प्रक्रिया का यह दुरुपयोग महज केवल राजनीतिक दुराग्रहों के कारण था, किसी को न्याय दिलाने के लिए नहीं । कानून निर्माताओं को इस पर विचार करना चाहिए कि भविष्य में अकारण आधी रात को कोई इस प्रकार क़ानून का मखौल न बना पाए । मीडिया की बेहूदगी रोकने के उपाय भी सोचे जाने चाहिए । उन्होंने भी याकूब को केवल इसलिए हीरो बनाया क्योंकि उनके आका हुजूर ऐसा चाहते थे | मोदी के प्रति तीव्र घृणा के चलते ही इस फांसी की सजा को मुस्लिम को फांसी के रूप में चित्रित किया गया । इसके पीछे सीधा सदा फंडा है - राजनीतिक घृणा और पैसा:


लोगों को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता । लगभग सभी का, आम भारतवासी का मानना है कि वकील, संदिग्ध एक्टिविस्ट और मीडिया को "अज्ञात" स्रोतों से नकदी का अजस्त्र प्रवाह पहुँच रहा है | उसका उद्देश्य एक ही है - इस्लामी अतिवाद के वर्चस्व का प्रचार । इसी तरह की आवाजें कसाब और अफजल गुरु की फांसी के समय भी उठी थीं, यह अलग बात है कि उस समय इनका स्वर कुछ मद्धिम था क्योंकि उन दोनों को याकूब के विपरीत पिछली सरकार द्वारा गुप्त रूप से फांसी पर लटका दिया गया था ।

याकूब के वकील ग्रोवर ने याकूब को बचाने के लिए शेखर गुप्ता के उस मूर्खता पूर्ण तर्क को भी कोट किया जिसमें कहा गया था कि गृह मंत्री गुरदासपुर के हमलों को रोकने के बजाय तीस्ता और गैर सरकारी संगठनों के पीछे पड़े हुए हैं । 

क्या यह कोई गंभीरकथन हैं? 

या इसका मकसद भी केवल और केवल याकूब को बचाना है, एक उच्च पदस्थ वकील का यह आचरण सही मायने में शर्मनाक है। याकूब के लिए दया याचना के पीछे केवल अपने राजनीतिक पूर्वाग्रह और संभवतः नकदी का प्रवाह मुख्य कारण था । जिस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने एक आतंकवादी के लिए 30 जुलाई के शुरुआती घंटों तक कानूनी प्रक्रिया को घसीटा, क्या वह भविष्य में किसी अन्य साधारण व्यक्ति के लिए भी होगा ? लेकिन उसके बाद भी तीस्ता की वकील और आनंद ग्रोवर की पत्नी इंदिरा जयसिंह कहती हैं कि न्यायिक प्रणाली का पालन नहीं किया गया | शर्मनाक आचरण |

सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम हथौड़ा 30 जुलाई को प्रातः 5:00 के आसपास पड़ा, किन्तु राजनीतिक धारणाओं और संभवतः पैसे से प्रेरित प्रक्रिया का दुरुपयोग जनता के सामने आ गया । रुदाली-इन-चीफ बरखा दत्त सारी रात तक जागती रहीं और उसके बाद 1993 के बम धमाकों से पीड़ितों के घावों पर नमक छिड़कने के लिए मुंबई रवाना हो गई। यही है हमारा मीडिया । और पूछ क्या रही थीं – 

क्या याकूब की फांसी से इस तरह की घटनाओं पर रोक लगेगी ? 

ऐसी ही मूर्खता का एक नमूना देखिये :


1993 के बाद से अब तक मुंबई में कई ट्रेन बम विस्फोट हो चुके हैं, हजारों मारे गए हैं । हर बार इन रुदाली गायकों ने जोर शोर से मांग की है कि आतंकवादियों को बख्शा नहीं जाना चाहिए, इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो । लेकिन वही मीडिया पाकिस्तान की आईएसआई के गुर्गों के साथ दोस्ती कर आतंकवादियों महिमामंडित करता है । यह पूरीतरह विसंगत मूर्खता है। बलात्कार, चोरी और हत्या के मामलों में सजाएं दी जाती हैं – लेकिन क्या इस तरह के कानून या सजा से अपराधों पर पूरी तरह नियंत्रण हो पाता है ? और अगर नहीं हो पाता है तो क्या सब क़ानून समाप्त कर दिए जाने चाहिए ? बुराई इंसान के अन्दर रहती है, उसे क़ानून और सजा से नहीं समाप्त किया जा सकता । उसका कोई इलाज नहीं है। 

अधिकांश लोगों को इससे कोई मतलब नहीं था कि याकूब मेमन को आजीवन सजा मिलती है अथवा मृत्युदंड | लेकिन इन सब बदमाशियों को देखकर आम भारतीय के दिल में गुस्से की आग भड़क उठी | यही कारण है कि दया के लिए की जाने वाली याचिकाओं के विरोधस्वरुप राष्ट्रपति के पास याकूब को मृत्युदंड दिए जाने की मांग करतीं याचिकाएं भी पहुँचने लगीं | आम लोग याकूब को मृत्युदंड दिए जाने को इसलिए उत्सुक हुए, क्योंकि वे इन आतंकवाद समर्थकों की गतिविधियों को राष्ट्रीय अवमानना मानने लगे थे ।

मौत की सजा के पक्ष में अन्य कारण भी हैं। भारत ने अतीत में भारी कीमत चुकाई है। अधिकांश लोगों को दिसंबर 1999 में हुआ IC814 का अपहरण याद होगा | जब हमें आतंकवाद के सम्मुख घुटने टेककर तीन आतंकवादियों को रिहा करना पड़ा था | और उन लोगों ने बाद में पाकिस्तान पहुंचकर नए आतंकी संगठनों की स्थापना की । इंदिरा जी के समय मकबूल बट की फांसी इसी प्रकार रुकी हुई थी, तब लंदन में एक भारतीय राजनयिक का अपहरण कर लिया गया और उसकी हत्या कर दी गई | इंदिराजी ने अविलम्ब मकबूल बट को फांसी पर लटकाने की मंजूरी दी । (संप्रग) सरकार ने भारत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में मौत की सजा के पक्ष में मतदान किया | सिद्धांततः मृत्युदंड के खिलाफ होने का दावा करने वाले पाखंडी शशि थरूर सहित सभी कपटी उस समय बिल्कुल चुप रहे। 

राजनीति और पैसे का महत्व कितना सर चढ़कर बोल रहा है इसकी बानगी इंडियन एक्सप्रेस का मुखपृष्ठ प्रस्तुत कर रहा है :
शीर्षक देखिये – “और उन्होंने याकूब को फांसी पर लटका दिया” ? 
 ये “उन्होंने” आखिर कौन है? 
हिन्दू ? 
भाजपा ? 
भारत नामक अभिशप्त देश? 
या भारत के महामहिम राष्ट्रपति और हमारी न्यायपालिका? 
इस तरह की चरम गंदगी एक अपराधी और आतंकवादी को सम्मानित करने के लिए ? 

स्वाभाविक रूप से, अधिकाँश आतंकवादी हमारी मीडिया और षडयंत्रकारी एक्टिविस्टों से मिले समर्थन को देखकर आनन्दित हो रहे होंगे । लोकप्रिय राष्ट्रपति डा कलाम के अंतिम संस्कार का समाचार महज एक कॉलम का जबकि उसमें प्रधानमंत्री तथा अन्य वरिष्ठ मंत्री भी शामिल थे ! स्पष्टतः याकूब के मित्रों ने आतंकवादियों को और अधिक हिंसक बनने के लिए प्रोत्साहन ही दिया है |

इसी कारण विदेश में छुपा बैठा एक कायर भारत को घुड़की देने की हिम्मत कर रहा है, क्योंकि हमारी मीडिया और अपराधी एक्टिविस्ट से उसे समर्थन मिल रहा है। वह जानता है कि ये भारत विरोधी नकली बुद्धिजीवी हमेशा उसका महान समर्थन करेंगे । गजब देखिये कि सीपीएम और सीपीआई जैसी पार्टियां मौत की सजा को समाप्त करने की मांग कर रही हैं, जबकि उनके ही एक घटक दल सीपीआई-एमएल और उससे जुड़े नक्सली नियमित रूप से निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं | दूसरी ओर कविता कृष्णन आतंकवादियों के लिए मोमबत्ती जलाकर रुदाली कर रही हैं। 
अब समय आ गया है कि जब भारत सरकार को हमारे मीडिया और गैर सरकारी संगठनों में छुपे आतंक के पैरोकारों को पहचान कर इन आंतरिक निहत्थे आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करनी चाहिए। ये धोखेबाज यहाँ हमारे बीच में ही हैं, कहीं विदेश में नहीं छिपे हुए हैं। ये आतंकवादियों के मसीहा हैं उनके स्लीपर सेल हैं। और सौभाग्य से याकूब मेमन ने उन्हें जगजाहिर भी कर दिया है |