फिल्म समीक्षा - कौन कितने पानी में !


जल महत्वपूर्ण है, और इस विचार को यह फिल्म दर्शकों तक बखूबी संप्रेषित करती हैं। निर्देशक नील माधव पांडा ने जल संरक्षण जैसे गंभीर विषय को व्यंगात्मक शैली में प्रस्तुत किया है अपनी इस 110 मिनट की फिल्म में | फिल्म “कौन कितने पानी में” प्रारम्भ से अंत तक बुद्धिमत्ता से निर्मित दिखाई देती है ।

फिल्म का कालखंड 1985 के आसपास का है, तथा कहानी उड़ीसा के एक काल्पनिक सुदूरवर्ती गाँव पर आधारित है, जो किसी जमाने में सिंहदेव राजाओं के अधीन रहा था | राजा की बहन एक पिछड़ी जाति के लड़के से प्यार करती है, और जैसा कि फिल्मों में अक्सर बताया जाता रहा है, दोनों प्रेमियों की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है । हालात यहां से बिगड़ते हैं और दो गाँव उपरी और बैरी एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं | दोनों गाँवों के बीच एक दीवार खडी हो जाती है | यह दीवार शत्रुता का प्रतीक चिन्ह बन जाती है | उपरी में अमीर बसते हैं जो स्वभावतः उनका चित्रण क्रूर ग्रामीणों के रूप में किया गया है, और बैरी के किसानों को अपने ऊपर पूर्व में हुए अत्याचारों के प्रतिशोध की आग में जलते हुए प्रदर्शित किया गया है |

गंभीर जल संकट से जूझता उपरी, अपने चिर शत्रु बैरी से कोई मदद नहीं लेना चाहता । जबकि बैरी उन्नत सिंचाई तकनीक और बेहतर जल प्रबंधन युक्त गाँव है ।

इस पृष्ठभूमि में, बृज किशोर सिंहदेव (सौरभ शुक्ला) अपने बेटे राजकुमार राज (कुणाल कपूर) और एक सामान्य किस्म के राजनीतिज्ञ खारु पहलवान (गुलशन ग्रोवर) की बेटी पारो (राधिका आप्टे), के साथ मिलकर एक घातक योजना बनाता है। लेकिन लगता है राजा ने अपने पड़ोसियों की क्षमताओं का कम आंकलन किया ।

इस फिल्म की असली ताकत है इसमें निहित विचार । यह विचार इतने बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया गया है कि दर्शक पहले दृश्य से ही प्रभावित हो जाते हैं । अपने आसपास की किसी भी परिस्थिति पर नियंत्रणहीन राजा रोचक ढंग से देश की वर्तमान स्थिति से साम्य प्रदर्शित करता है | पांडा अतीत की जानकारी को अत्यंत सावधानी के साथ अपने कैनवास पर फैलाते है। 70 के दशक के 'बच्चों की तरह, यह राजा भी तकनीक और अर्थव्यवस्था के आगमन के साथ समाज में हुए परिवर्तन को देखता है। लेकिन उसकी विरासत और कट्टरपंथी अदूरदर्शिता उसकी सोचने समझने की क्षमता को कुंद कर देती है | यह चरित्र ही “कौन कितने पानी मैं” की रीढ़ है।

एक नैतिक रूप से भ्रष्ट राजा के रूप में सौरभ शुक्ला को देखना रोचक है। एक ऐसा आदमी जो अपनी सीमाओं को जानता है, लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वियों पर हावी होने का मौक़ा ढूँढता रहता है । उस चरित्र की नीचता की पराकाष्ठा दिखती है, जब वह अपने बेटे से कहता है, “अगर हर यौन सम्बन्ध का अर्थ शादी होता तो तुम्हारी मां इकलौती रानी ना होती।" एक और दृश्य में, वह अपनी दागी विरासत, की अपने बेटे को याद दिलाता है और कहता है, "बेटा सिंहदेव खानदान में तुम्हारे जैसा ढीला वारिस कभी पैदा नहीं हुआ ।" वह अपनी कमजोरी भी जानता है, और जो कर रहा है, उसकी निरर्थकता को भी । लेकिन, वह लंबे समय के यह सब करता आ रहा है, और अब वहाँ से वापस भी नहीं होना चाहता ।

बैरी में उसकी समकक्ष भूमिका में है खारु, आधुनिक दृष्टिकोण वाला एक स्थानीय नेता। गुलशन ग्रोवर अपनी इस भूमिका को प्रभावी ढंग से निभाता है, लेकिन यह बहुस्तरीय नहीं है और कुछ सीमाएँ हैं। हालांकि उसकी स्नेही आँखें कुछ दृश्यों में बल देती हैं । उसके चरित्र में पूरक भूमिका निबाहते हैं, कुणाल कपूर और राधिका आप्टे । उनकी केमिस्ट्री शानदार है व वे अपने हिस्से का काम आराम से पूरा करते हैं । कुछ ऐसा है, जो ये दोनों अभिनेता औसत भारतीय मध्यम वर्ग को पसंद आयेंगे । रंग दे बसंती और मांझी के बाद “कौन कितने पानी में” इस जोड़ी की आंखों की मासूमियत प्रभावित करती है। पटकथा में भले ही इनकी भूमिका द्वितीयक हो, किन्तु इनको पर्याप्त अवसर मिला है जो दर्शको को रोचक हास्य देता है ।

नील माधव पांडा ने फिल्म की शुरूआत उपदेशात्मक संवादों के साथ की है, जैसे 'किसी आदमी ने कहा है की धर्म गरीबों का नशा होता है’ और 'बंदूक की नली ने इसका न्याय किया हैं।' लेकिन शुक्र है, यह लम्बे समय तक जारी नहीं रहता और फिल्म में चरित्र की जरूरत के अनुसार संवाद हैं । कुछ रोचक दृश्य हैं, जैसे पेड़ पर एक व्यक्ति तख्ती हाथ में लिए बैठा है जिस पर लिखा है 'गांव बिकाऊ है' | या राजा का बफादार नौकर अपने स्वामी की नकली मूंछें ठीक करता है । या गांव का पुजारी अपने बच्चों को गांजे के पौधों से परिचित कराता है । ये सुनने पढ़ने में अजीब लग सकते है, लेकिन फिल्मी माहौल में हास्यरस घोलते हैं ।

कुछ दृश्य ऐसे हैं जो पारंपरिक भारतीय मध्यम वर्ग की प्रकृति को प्रदर्शित करते हैं, जैसे, राजा और उसके बेटे के बीच की गरमागरम बहस । इसी तरह जब कुछ विदेशी राजा की भूमि देखने आते हैं, तो उनको बताया जाता है कि शाम को सब ग्रामीण बाहर रहते है । और फिर उसी समय वे दो नग्न बच्चों को अपने सामने “नेचर्स काल” करते देखते देते हैं ।

इन सबसे बढ़कर “कौन कितने पानी में” फिल्म जाति और वर्ग भेद के खिलाफ बनी एक सशक्त फिल्म है | और, ज़ाहिर है, जल संरक्षण का विचार तो है ही | सामाजिक मूल्यों के प्रति निर्देशक की प्रतिबद्धता फिल्म में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है | अपने प्रयासों के लिए वह प्रशंसा के हकदार हैं। यह एक समयानुकूल कहानी है |

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