सोनिया जी द्वारा लगातार संघीय व्यवस्था का अनादर |


आज दैनिक जागरण के प्रधान संपादक श्री संजय गुप्ता जी का सम्पादकीय पढ़ने योग्य है | उन्होंने देश की वर्तमान नकारात्मक राजनीति दुरावस्था व उसके कारण देश को होने वाले नुकसान को रेखांकित किया है | प्रस्तुत हैं कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण अंश जो सोचने को विवश करते हैं -

राजनीति को समाज और देश को दिशा देने वाली व्यवस्था होना चाहिए, लेकिन आज वही दिशाहीन दिख रही है। कांग्रेस अपने विरोध को प्रचारित करने के लिए कुछ ज्यादा ही बेचैन दिख रही है। अपने सांसदों के निलंबन के पहले उसके नेता सदन में टीवी कैमरों के समक्ष तख्तियां लहराने की ही कोशिश में रहते थे। कभी-कभी ऐसा लगता है कि सदन के अंदर-बाहर की राजनीति टीवी कैमरों के लिए ही अधिक की जाने लगी है। अपने सांसदों के निलंबन के बाद कांग्रेस नेताओं ने अंध विरोध का रास्ता अपनाया | 

यहाँ तक कि सोनिया ने नगा शांति समझौते का विरोध कर दिया गया। इस अप्रत्याशित विरोध के चलते अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री को इस समझौते के पक्ष में किया गया अपना ट्वीट वापस लेना पड़ा। केंद्र सरकार की राह रोकने पर आमादा कांग्रेस ने पूर्वोत्तर के अपने मुख्यमंत्रियों को इसके लिए बाध्य किया कि वे इस समझौते के विरोध में बोलें। यह नकारात्मक राजनीति की हद है। कांग्रेस यह भूल गई लगती है कि नगाओं के विद्रोही गुटों से बातचीत की शुरुआत नरसिंह राव के समय में हुई थी, जिसे बाद के सभी प्रधानमंत्रियों और मनमोहन सिंह ने भी जारी रखा। अब जब मोदी सरकार समझौता करने में सफल रही तब फिर उसके विरोध का कोई औचित्य नहीं। 

कांग्रेस को यह पता होना चाहिए कि इस तरह के समझौतों के पहले हर किसी को जानकारी देना संभव नहीं होता। क्या राजीव गांधी ने मिजोरम के विद्रोही गुट से समझौते के पहले इस क्षेत्र के सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सूचित किया था? कांग्रेस को यह भी बताना होगा कि उसने प्रधानमंत्री की ओर से बुलाई गई बैठक में अपने मुख्यमंत्रियों को जाने से क्यों रोक दिया था? यह न केवल शर्मनाक है, बल्कि संघीय व्यवस्था का अनादर भी कि प्रधानमंत्री किसी राष्ट्रीय मसले पर बैठक बुलाएं और विपक्षी दलों के मुख्यमंत्री उसका बहिष्कार कर दें। 

ऐसा लगता है कि कांग्रेस यह नहीं देख पा रही है कि देश पहले है और मोदी सरकार बाद में और शायद इसी कारण वह एक तरह से अपने ही द्वारा तैयार किए गए जीएसटी विधेयक के विरोध में खड़ी हो गई है। इस विधेयक को आजादी के बाद कर सुधारों वाला सबसे बड़ा विधेयक माना जा रहा है। एक अनुमान है कि कर सुधारों की इस पहल को अंजाम देने से देश की जीडीपी में दो प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। जीएसटी को 2010 में अमल में लाना था, लेकिन राज्यों के बीच सहमति न बनने के कारण यह टलता चला गया। अब जब एक-दो राज्यों को छोड़कर शेष सभी इस विधेयक के समर्थन में आ गए हैं तो कांग्रेस बिना किसी ठोस कारण के उसका विरोध कर रही है। यह बदले की राजनीति का सबसे खराब उदाहरण है। यदि कांग्रेस विकास विरोधी राजनीति को छोडऩे के लिए तैयार नहीं होती तो फिर उचित यह होगा कि सरकार जल्द ही संसद का एक विशेष सत्र केवल इस विधेयक को पारित कराने के लिए बुलाए। यदि कांग्रेस तब भी विरोध में खड़ी होती है तो वह और बेनकाब ही होगी।

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