भाषा और भाव - स्व. सुमंत मिश्रा


शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। भाषा शब्दों का मूर्तमान विग्रह है। भाषा के अभाव में समस्त मानवीय चेतना का विकास ही संभव प्रतीत नहीं होता। चिन्ह, संकेत, चित्र या कि बनते-बिगड़ते बिम्बों को शब्दों में ढ़ालकर व्याकरण के अनुशासन से शंसित कर बनी भाषा, भावों की अभिव्यक्ति का प्रमुख एवं सशक्त माध्यम है। किन्तु कभी-कभी शब्द ऎंठनें लगते हैं, बात में मरोड़ पैदा कर देते हैं, विशेषकर भावनात्मक संवेगों के व्यक्त करनें के समय तो बहुधा शब्द ही जैसे विलुप्त हो जाते हैं।

जबकि आँखों की भाषा इतनी प्रवहमान, सरस, सहज एवं सातत्यवान है कि मन के रास्ते सीधे हृदय तक राह बनाती है। घ्रणा, क्रोध,प्रेम, वात्सल्य, करुणा,श्रंगार, रति ऎसा कोई भी रस नहीं जो आँखों से व्यक्त न होता हो। हृदय की भाषा, मन के शब्द और नयनों की व्याकरण कितनें सरल और सीधे बात करती है, चाहे किसी धर्म, मजहब, जाति या लिंग का व्यक्ति हो।

कहनें का तात्पर्य यह कि मित्रता का श्रेष्ठ मापदण्ड यह है कि जब भी मिलें प्रेम से मिले, आँखों में स्नेह झलकना चाहिये और वाणी में भी वह भाव होना चाहिये।लिखित साहित्य महत्वपूर्ण है उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है उस भाव जगत में प्रवेश करना कभी -कभी लगता है, कविता इसी लिए श्रेष्ठ है। रसात्मक वाक्यं काव्यं इसी लिए कहा गया है क्योंकि वह उस ब्रह्म से साक्षात्कार करा देता है जिसे रसो वै स: कहा गया है। लिखो ऎसा जो दिखाई दे, पाठक उस लोक की सैर करनें लगे जहाँ का वर्णन लेखक या कवि कर रहा है। 

जानकार कहते हैं कि आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जब भी देखना हो कई बार देखिये। कोई कहता है कि नैनन की मत सुनियो रे, नैना ठग लेंगे। आप क्या सोंचते हैं?

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