हिरासत में गाँव के सारे बकरे


आज के टाईम्स ऑफ़ इंडिया में एक समाचार प्रकाशित हुआ है | समाचार के अनुसार उत्तर प्रदेश का एक गाँव है, मुशहरा | यह गाँव पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले का है | गाँव हिन्दू बहुल है तथा इस गाँव में पशुवध पूर्णतः निषिद्ध है | गाँव में लगभग 8000 हिन्दू तथा 1500 मुस्लिम रहते हैं | इस गाँव में ईद-उद-जुहा के अवसर पर भी कुर्बानी पर प्रतिबन्ध है | और इसके लिए बाकायदा शासकीय आदेश भी हैं | 2007 में एक बार इस परिपाटी को तोड़ने की कोशिश हुई थी, इस पर गाँव में दंगे भड़क गए थे | दंगों के बाद 34 ग्रामवासी गिरफ्तार हुए थे, जो 14 महीने बाद छूट पाए थे | स्थानीय रहवासी कुछ किलोमीटर दूर स्थित एक अन्य गाँव मेहदूपार में अपने बकरे ले जाकर कुर्बानी देते आये हैं |

प्लाटून कमांडर नलिन प्रसाद के नेतृत्व में पीएसी की एक टुकड़ी गाँव में 18 सितम्बर से ही तैनात कर दी गई है | प्रशासन ने सतर्कता बरतते हुए गाँव के सभी बकरे अपनी हिरासत में ले लिए है, जिन्हें 25 सितम्बर को रिहा किया जाएगा |

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने इस विषय पर स्थानीय प्रशासन से रिपोर्ट मांगी है | स्मरणीय है कि पिछले दिनों मुम्बई के भयंदर में स्थानीय प्रशासन ने जैन पर्यूषण पर्व के दौरान पशुबध रोकने संबंधी आदेश प्रसारित किये | इसको लेकर जिस प्रकार विरोध प्रदर्शन हुए और समर्थन व विरोध में राजनैतिक दलों ने शक्ति प्रदर्शन किये, उनसे एक अहम सवाल उपजता है –

भाषा, जाति और सम्प्रदाय के नाम पर बंटा यह देश क्या अब शाकाहार और मांसाहार के नाम पर भी बंटने जा रहा है ? समाज को जोड़ने के स्थान पर समाज को तोड़ने वाले मुद्दे ही अधिकांशतः उछाले जा रहे हैं | इस प्रवृत्ति को समझने और रोकने की आवश्यकता है |

यह सही है कि देश में मांसाहार की स्वतंत्रता है | किन्तु अगर बहुसंख्यक समाज हिंसा को पसंद नहीं करता, उसके बाद भी उन्हें जबरन आहत पशुओं की चीख पुकार सुनने को विवश करना क्या उनकी स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं है ? भोपाल के अनेक मुस्लिम बहुल क्षेत्र में रहने वाले हिन्दू तो ईद-उद-जुहा के अवसर पर अपने घर छोड़ने को विवश हो जाते हैं | गलियों की नालियों में बहता खून, और हर मुस्लिम घर के बाहर आधा गला काटकर कर तड़प तड़प कर मरने के लिए छोड़ दिए गए निरीह पशुओं की चीख पुकार उन्हें घर छोड़कर हिन्दू आवादी में अपने रिश्तेदारों के घरों में शरण लेने को विवश कर देती है |

क्या यह खून खच्चर पर्यावरण को कोई क्षति नहीं पहुंचाता ? क्या यह उचित नहीं होगा कि कुर्बानी के लिए भी स्थान विशेष निश्चित हो ? मुहल्लों में जहां शाकाहारी लोग भी रहते हैं, वहां उनकी भावनाओं का भी ध्यान रखकर यह कृत्य न किया जाए | लेकिन क्या कहें हमारे देश में की गई सेक्यूलरशब्द की व्याख्या को ? देश का कोई समाचार पत्र इन जनभावनाओं को प्रगट करने का साहस नहीं कर सकता | होली पर पानी की बरबादी अथवा गणेश विसर्जन से पर्यावरण को क्षति जैसे विषयों पर लम्बे लम्बे उपदेशात्मक आलेख लिखने वाले कलम के शूरमाओं को इस विषय पर सांप सूंघ जाता है | राजनैतिक दलों के कागजी शेर मंच महारथी चुप्पी साध जाते हैं | 

आपका मन न बिगड़े, इसलिए मैंने जानबूझकर कोई फोटो इस पोस्ट के साथ संलग्न नहीं किया है | आप कल्पना कर सकते हैं, नालियों में बहते खून की और घरों के दरवाजों पर आधा गला काटकर छोड़े गए वेदना से कराहते निरीह पशुओं की |


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