कांग्रेस में केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति असंतोष और उत्तराखंड - सुरेश हिन्दुस्थानी


पहले अरुणांचल प्रदेश और उसके बाद अब उत्तराखंड में जो कुछ भी राजनीतिक वातावरण निर्मित हुआ है, इसमें यह सन्देश अन्तर्निहित है कि कांग्रेस में अन्दरखाने केन्द्रीय नेतृत्व के प्रति असंतोष खदबदा रहा है | कांग्रेस नेता भले ही कुछ नहीं बोल पाते हों, लेकिन अंदर ही अंदर उनमें बहुत बड़ा विरोधाभास है। राज्यों में कांग्रेस ने इतने नेता पैदा कर दिए हैं कि सब ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। सचाई यही है कि उत्तराखंड में समूहों में विभाजित कांग्रेस पार्टी ने एक दूसरे को नीचा दिखाने की राजनीति करके प्रदेश में अस्थिरता का वातावरण निर्मित किया। इसी राजनीतिक अति महत्वाकांक्षा के चलते उत्तराखंड की सरकार के मार्ग में अवरोध निर्मित हुए हैं ।

कांग्रेस शासन में किस प्रकार से अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है, इसका साक्षात उदाहरण भी उत्तराखंड में देखने को मिला। कांग्रेस ने अपने जिम्मेदार नेताओं के माध्यम से संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर प्रदेश सरकार को बचाने का भरपूर प्रयास किया। उत्तराखंड विधानसभा अध्यक्ष द्वारा विनियोग विधेयक को ध्वनिमत से पारित करना और इस प्रकार अल्पमत में आई सरकार को बचना सीधे सीधे लोकतांत्रिक मर्यादा का हनन था | यह मुद्दा ही सरकार की बर्खास्तगी के लिए पर्याप्त है। किन्तु 9 विधायकों की बर्खास्तगी ने आग में घी का काम किया और सरकार रुखसत हो गई ।

अंततः उत्तराखंड में राजनीतिक भंवर में फंसी कांग्रेस की हरीश रावत सरकार को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है । इससे पूर्व विगत लगभग दस दिन से उत्तराखंड में जो राजनीतिक हालात निर्मित हुए, उससे उबरने के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपनी राजनीतिक चाल चलकर साजिशें रचने का काम किया। कांग्रेस के बारे में हमेंशा से ही यह कहा जाता है कि वह येन केन प्रकारेण सत्ता में बने रहना चाहती है, फिर चाहे इसके लिए कोई भी रास्ता क्यों न अपनाना पड़े। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने यही किया। एक स्टिंग आपरेशन में यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि उन्होंने विधायकों को खरीद फरोख्त करने का मार्ग अपनाया था। हालांकि मुख्यमंत्री हरीश रावत ने उस सीडी को फर्जी करार दिया है, लेकिन उनका यह दावा आसानी से गले उतरने वाला नहीं है | जब मुख्यमंत्री हरीश रावत के विरोध में उनकी ही पार्टी के विधायक खड़े हो गए हों, तब ऐसे में उन्होंने सरकार को बचाने के भरपूर प्रयास नहीं किए होंगे यह कौन मानेगा ? इन प्रयासों में विधायकों को खरीदने के प्रयास भी असंभव नहीं हैं ।

कांग्रेस ने अपनी सरकारों को बचाने के लिए इस प्रकार की कार्यवाही पहले भी की हैं। कौन नहीं जानता नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार जब अल्पमत में आ गई थी, तब कांग्रेस ने सांसदों की खरीद फरोख्त करने के लिए भाजपा सांसद अशोक अर्गल और फग्गन सिंह कुलस्ते को खरीदने का प्रयास किया। इसलिए यह बात आज भी आसानी से कही जा सकती है कि कांग्रेस के नेता अपनी सरकार को बचाने के लिए ऐसा कदम उठा सकते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने जो बोया है, उसे वह काटना ही पड़ेगा। वर्तमान में कांग्रेस के बारे में यह कहावत सही जान पड़ रही है कि ''बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होयÓÓ।

स्मरणीय है कि कांग्रेस नेतृत्व ने उत्तराखंड में आई भीषण प्राकृतिक आपदा के समय, तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को हटाकर उनकी जगह हरीश रावत को प्रदेश की सत्ता की कमान सौंप दी थी। स्वाभाविक ही विजय बहुगुणा अपने उस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर सके और विरोध करने का मार्ग अपनाया। इसके बाद भी कांग्रेस के लोग अगर यह आरोप लगाएं कि वर्तमान केन्द्र सरकार राज्य को अस्थिर करने की राजनीति कर रही है, तो यह हजम होने वाली बात नहीं है । दूसरी तरफ अगर कांग्रेस के इतिहास पर नजर डाली जाए तो यह बात सामने आती है कि चुनी हुई प्रदेश सरकारों को बर्खास्त करने वाली धारा का सबसे ज्यादा दुरुपयोग अगर किसी ने किया है तो वह केवल कांग्रेस ही है। इस दुरुपयोग में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ही मुख्य लक्ष्य हुआ करती थीं। आज अगर उनका हथियार उन पर ही चल रहा है, तो वे कपडे फाड़ रहे हैं ।

उत्तराखंड में जो कुछ भी हुआ वह वहां के राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर ही हुआ। राज्यपाल कृष्णकांत पाल ने अपनी रिपोर्ट में शासन की नाकामी को आधार बनाया। उसके बाद स्वाभाविक ही केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी बनती थी कि वह राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में विचार विमर्श करके निर्णय ले। इस बैठक में उत्तराखंड के हालातों को देखते हुए राज्य सरकार की बर्खास्तगी की कार्यवाही हेतु रिपोर्ट राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भेज दी। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने रिपोर्ट को सही मानते हुए प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने का निर्णय लिया।

दुखद स्थिति यह है कि इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम के बाद भी कांग्रेस अपने आपमें सुधार करने का प्रयास करती हुई दिखाई नहीं देती। विगत लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस को जिस प्रकार की भूमिका निभानी चाहिए थी, आज कांग्रेस उससे कोसों दूर दिखाई दे ही है। लोकसभा में शर्मनाक हार का स्वाद चख चुकी कांग्रेस आज भी मन से यह स्वीकार नहीं कर पा रही है कि वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है। इतना ही नहीं तो कांग्रेस के नेताओं के बयानों से आज भी यही लगता है कि उन्हें देश की चिन्ता नहीं है। कई बार कांग्रेस के नेताओं ने ऐसे लोगों का साथ दिया है जो लोग देश के विरोधी हैं। कांग्रेस को चाहिए कि सबसे पहले तो वे देश की सरकार को मान्यता दें और अंध विरोध का रास्ता अख्तियार न करें ।

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