विमुद्रीकरण त्रासदी या उपचार - श्री एस. गुरुमूर्ति



डॉ. मनमोहन सिंह ने 9 दिसंबर 2016 को हिन्दू में प्रकाशित अपने लेख “Making of a mammoth tragedy” (एक विशाल त्रासदी का निर्माण) में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार द्वारा उच्च मूल्य वर्ग की मुद्रा को बदलने के निर्णय की आलोचना की । डॉ सिंह का सम्मान एक अर्थशास्त्री के रूप में कहीं अधिक है, बनिस्बत पूर्व प्रधान मंत्री के, किन्तु वस्तुतः उनके इस आलेख ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया है । अच्छा होता अगर वे आर्थिक मुद्दों पर प्रतिक्रिया देते समय राजनीतिक पूर्वाग्रह को दूर रखते । लफ्फाजी से परे निर्विवाद तथ्यों के आधार पर निर्णय किया जाना चाहिए कि विमुद्रीकरण एक त्रासदी है अथवा एक उपचार ? क्या सच में अर्थ व्यवस्था का ऐतिहासिक कुप्रबंधन प्रमाणित होगा, जैसा कि डॉ सिंह ने आरोप लगाया है ? या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावों के अनुरूप वर्षों की जमा गंदगी समाप्त करने का एक उपाय प्रमाणित होगी ? इसका उत्तर ढूँढने के लिए 1999 से 2004 तक के राजग शासन के समय तथा 2004 से 2014 के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन के समय की भारतीय अर्थव्यवस्था की कहानी पर गौर करना होगा ।

आँकडे और यथार्थ -

राजग शासन (1999-2004) के दौरान वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में सालाना 5.5 प्रतिशत की दर से, 27.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई । धन की वार्षिक आपूर्ति, जिससे मुद्रास्फीति प्रभावित होती है, 15.3 प्रतिशत थी। सालाना 4.6 फीसदी पर कीमतें 23 फीसदी थीं। उन पांच वर्षों में परिसंपत्ति की कीमतों में भी केवल मामूली बढ़ोतरी हुई। स्टॉक्स में 32 फीसदी की तथा स्वर्ण भण्डार में 38 फीसदी तक बढ़ोतरी हुई । चेन्नई को एक उदाहरण के रूप में ले तो जमीन की कीमतें 32 प्रतिशत रहीं । नौकरियों में लगभग 60 लाख की उल्लेखनीय वृद्धि हुई । 2002-04 में एनडीए ने बाहरी क्षेत्र के निवेश को $ 20 अरब तक पहुंचा दिया, 1970 के बाद पहली बार इन दो वर्षों में अंतहीन घाटे से मुक्ति मिली ।

अब अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ सिंह के संप्रग शासन के दौर पर विचार करते हैं । संप्रग के प्रारम्भिक और सबसे अच्छे छह वर्षों में (2004-05 से 2009-10) वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में सालाना 8.4 प्रतिशत की दर से 50.8 फीसदी की वृद्धि हुई, जोकि एनडीए की तुलना में एक से डेढ़ गुना थी, किन्तु उसके बाद घोटालों ने सर्वनाश कर दिया । दुनिया ने डा सिंह का लोहा माना । संप्रग अपनी "उच्च विकास" की कहानी के नशे में धुत्त था। लेकिन सवाल यह उठता है कि यूपीए की उच्च विकास दर ने कितनी नौकरियों का सृजन किया? मानो या न मानो, किन्तु एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार एनडीए ने पांच साल के दौरान 600 लाख नौकरियाँ दीं, जबकि यूपीए शासन काल में यह महज 27 लाख रही । राजग की तुलना में संप्रग ने एक से डेढ़ गुना जीडीपी विकास दर जरूर हासिल की, लेकिन इसका जोब विकास रहा सिर्फ 5 प्रतिशत। और अब डॉ सिंह रोना रो रहे हैं कि श्री मोदी के विमुद्रीकरण से नौकरियों कम होंगी !

आगे बढ़ते हैं । उन छह वर्षों में, कीमतों बढीं 6.5 प्रतिशत, जबकि राजग शासनकाल में थी 4.6 प्रतिशत । बाह्य क्षेत्र घाटा बढ़कर हो गया 100 अरब $ , जबकि राजग काल में $ 20 अरब अधिशेष था । क्या यह पेट्रोलियम की उच्च कीमतों के कारण हुआ? नहीं, इसका मुख्य कारण था शून्य रेटेड सीमा शुल्क वाली पूंजीगत वस्तुओं का आयात, जिसने पेट्रोलियम आयात को भी अत्याधिक बढ़ा दिया ।

एसेट मुद्रास्फीति

उच्च विकास दर के बाबजूद यूपीए काल में रोजगार क्यों नहीं बढे ? अच्छी तरह छुपा कर रखा गया सत्य यह है कि अनुपातहीन मुद्रास्फीति व उत्पादन हीनता को उच्च विकास दर कहकर प्रचारित किया गया । संप्रग के पहले छह वर्षों में 60 फीसदी सालाना की दर से शेयर और सोने की कीमतों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई । संपत्ति की कीमतें हर दो-तीन साल में दोगुनी होती रहीं । 

1999 में संपत्ति के नक्शे पर नहीं है, किन्तु गुड़गांव में जमीन की कीमतों में 10-20 गुना वृद्धि हुई। छह साल में न्यूनतम वार्षिक जीडीपी विकास से एसेट मुद्रास्फीति तीन गुना थी । परिसंपत्ति मुद्रास्फीति यूपीए के "उच्च विकास" का कारण था परिणाम नहीं ! सवाल उठता है कैसे ? आधुनिक अर्थशास्त्र वास्तविक विकास को जानने के लिए गैर परिसंपत्ति मूल्य मुद्रास्फीति को न्यूनतम विकास से घटा लेता है। लेकिन इससे होने वाली धन और समृद्धि के रूप में संपत्ति की कीमतों में बढ़ोतरी सकल घरेलू उत्पाद में जुड़ जाती है । देखिये कैसे इस अर्थशास्त्र ने यूपीए के लिए काम किया।

जांच से परे 500/1000 के नोट

अर्थशास्त्र का कहना है कि पैसा, विकास, कीमतें और नौकरियां पारस्परिक रूप से जुडी हुई हैं । एनडीए और यूपीए काल पर इस नियम को लागू करें। 2004-10 के दौरान औसत पैसे की आपूर्ति दर में सालाना 18 फीसदी की वृद्धि हुई, राजग काल में यह 15.3 थी । लेकिन परिसंपत्ति की कीमतों में इससे कई कई गुना की वृद्धि हुई। राजग काल में पैसे की आपूर्ति में अपेक्षाकृत कम वृद्धि बहुत अधिक संपत्ति मुद्रास्फीति की व्याख्या नहीं करता। इसका सुराग उन जांच से परे बड़े नोटों में छुपा है, जो जनता में काले धन के रूप में आसानी से पैठ बना लेता है । 1999 में, जनता के पास नकद, सकल घरेलू उत्पाद का महज 9.4 प्रतिशत था। 2007-08 में बढ़ती हुए बैंकों की संख्या और डिजिटल भुगतान के बाद भी घटने के बजाय यह बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद का 13 प्रतिशत हो गया । बाद में यह 12 फीसदी के आसपास रहने लगा । हैरत की बात यह है कि जनता के पास बड़े नोट जो 2004 में 34 प्रतिशत थे, 2010 आते आते दुगने से भी अधिक 79 प्रतिशत हो गए ! 8 नवंबर 2016 को इनकी संख्या 87 फीसदी थी। 2004 और 2010 के बीच बड़े नोटों की औसत वार्षिक वृद्धि 51 प्रतिशत थी और 2013-14 में यह वार्षिक वृद्धि 63 फीसदी हो गई । भारतीय रिजर्व बैंक का कहना है कि 1,000 रुपये के नोटों का दो-तिहाई और 500 रुपये का एक-तिहाई – जिनका मूल्य अब 6 लाख करोड़ है - जारी किए जाने के बाद कभी बैंकों में लौटकर नहीं आये । इस प्रकार बैंकों के बाहर घूम रहे इन जांच से परे बड़े नोटों ने काले धन के रूप में सोने व जमीन की तथा स्टोक मार्केट की कीमतें बढाने का काम किया या ये हवाला के माध्यम से देश के बाहर जाकर पुनः विदेशी निवेश का नाटक कर शेयरों के रूप में वापस आते रहे ! 2004 में काले धन में भागीदार इन नोटों की कीमत Rs.68,000 करोड़ आंकी गई, जो 2007 आते आते बढ़कर Rs.3.81 लाख करोड़ तक पहुँच गई ।

यह है यूपीए के "उच्च विकास" दर की वास्तविकता, जिसने परिसंपत्ति मुद्रास्फीति को बेहिसाब बढाया ! परिसंपत्ति की कीमतें आय के रूप में सकल घरेलू उत्पाद में शामिल हो गईं। शेयर बिक्री पर लाभ के बडे हिस्से को भी सकल घरेलू उत्पाद में जोड़ दिया गया !

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