कानून की ह्त्या में संलिप्त - चयनात्मक न्यायपालिका - प्रमोद पाठक



स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान कानून का शासन है। 

और यह कानून का शासन आखिर है क्या ? 

कहा जा सकता है सभी को समान अधिकार, किसी को भी विशेषाधिकार नहीं। 

भारतीय लोकतंत्र कार्यपालिका, विधानमंडल और न्यायपालिका के तीन संस्थानों के माध्यम से यह सुनिश्चित करता है।

निष्पक्ष पत्रकारिता, एक अन्य संस्था है जो तटस्थ पर्यवेक्षक के रूप में निगरानी रखता है ताकि उक्त तीनों संस्थान कानून के शासन के रखरखाव के अनुरूप बने रहें।

लम्बे समय से इन संस्थानों को लेकर कई तरह की बहस बहस चल रही है। कार्यपालिका और विधानमंडल के लिए तो इसे ठीक कहा जा सकता है, किन्तु न्यायपालिका का विवादास्पद होना चिंताजनक है।

न्यायपालिका का कार्य निगरानी रखने का है और उसका उद्देश्य ही यह सुनिश्चित करना है कि कार्यपालिका और विधान मंडल कानून के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करते रहें ।

इस प्रकार आदर्श न्यायपालिका की कल्पना एक ऐसी मशीनरी के रूप में है जो आम आदमी को न्याय मिलना सुनिश्चित करे और इसमें उच्च पदस्थ लोगों के हस्तक्षेप की संभावना न हो । इस कार्य में कानून के एजेंट अर्थात वकील मदद करें |

लेकिन दुर्भाग्य से अर्थ तंत्र ने न्यायपालिका को भी एक व्यवसाय में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें न्याय के स्थान पर कानून की अपने हित में व्याख्या मुख्य उद्देश्य बन रहा है। स्वाभाविक ही आर्थिक हितों ने इसके मूल उद्देश्य को व्यर्थ कर दिया है । या यूं कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, कि इसकी मूल भावना को ही समाप्त कर दिया है । नतीजा यह हुआ कि न्याय कुछ लोगों के हाथ का खिलौना बन गया है, सबके लिए समान के स्थान पर यह चयनात्मक हो गया है। 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के पेशे और शीर्षस्थ वकीलों की फीस को विनियमित करने के लिए क़ानून बनाने का सुझाव दिया है, क्योंकि इसके कारण ग़रीबों को न्याय मिलना ही दूभर हो गया है । इस प्रक्रिया में अदालत कानूनी नैतिकता के बारे में भी चिंतित है। हालांकि यह एक अलग बहस का विषय है कि आखिर यह कानूनी नैतिकता है क्या, और इसकी दुरावस्था के लिए जिम्मेदार कौन है ?

उन सभी मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है, जिनके कारण न्यायपालिका के प्रति असंतोष के स्वर उठाने लगे हैं । न्यायपालिका के कतिपय सदस्यों की पक्षपात पूर्ण अवांछनीय गतिविधियों के पीछे मूल प्रेरणा और मकसद निश्चय ही आर्थिक हित है। अतः केवल वकीलों की फीस को विनियमित करने भर से सुधार होने वाला नहीं है । जिस प्रकार कॉरपोरेट अस्पतालों के विकास के साथ चिकित्सा सेवा के स्थान पर व्यवसाय बन गई है और उसका मूल उद्देश्य पैसा बनाना भर रह गया है, उसी प्रकार कानूनी पेशे के बारे में भी यही सच है। व्यावसायिक शुल्क के विनयमन भर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता । क्योंकि हमेशा टेबिल के नीचे के सौदे तो होते ही रहेंगे ।

अतः आवश्यकता इस बात की है कि जिस प्रकार डॉक्टरों के मामले में आपराधिक लापरवाही पर दंडात्मक कार्यवाही की जाती है, उसी प्रकार व्यावसायिक कदाचरण के मामलों में वकीलों को भी अपराधी माना जाए ।

कानूनी तंत्र के दुरुपयोग की संभावना को कम करने के लिए एक मजबूत तंत्र की आवश्यकता है जो भेदभाव रहित हो, साथ ही जो निरर्थक और वास्तविक मुकदमेबाजी के बीच अंतर कर सके । क़ानून के शासन के लिए सबसे बड़ा संकट आज वकीलों और अपराधियों के गठबंधन ने उत्पन्न किया है, अतः यह सुनिश्चित करना सबसे महत्वपूर्ण है कि वकीलों द्वारा कानून का मजाक बनने से रोका जाए । ऐसे कई उदाहरण हैं | इसे कैसे सही किया जाये, यह निश्चय ही एक मुश्किल सवाल है, लेकिन झूठे मामलों में वकीलों की संलिप्तता पर अंकुश तो लगना ही चाहिये ।

पेशेवर नैतिकता पर जोर देने की आवश्यकता है और अनैतिक आचरण को दंडनीय बनाने की भी जरूरत है। उच्च न्यायालयों में मामलों को लम्बा खींचने के लिए अनावश्यक स्थगन की मांग करना भी समय की बर्बादी ही है और इसके पीछे मुख्य कारण केवल अर्थ होता है। यह समय की मांग है कि इन प्रवृत्तियों को रोका जाए, और जिम्मेदारी तय की जाकर जिम्मेदार व्यक्तियों से क्षतिपूर्ति बसूली जाए, तभी न्यायालयों में वर्षों से लंबित पड़े प्रकरणों की बाढ़ रोकी जा सकेगी और सच्चे अर्थों में कानून के शासन की स्थापना होगी, या यूं कहा जाए कि न्याय की रक्षा होगी |

लेखक आईआईटी (आईएसएम), धनबाद में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं। उनका ईमेल आईडी है - ppathak.ism@gmail.com

सौजन्य: दैनिक पायनियर

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