पत्रों से झलकता नेता जी का दिव्य चिंतन - पूनम नेगी

अदम्य साहस के धनी नेता जी सुभाषचन्द्र बोस देश के अप्रतिम स्वाधीनता सेनानी माने जाते हैं लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि वे अत्यन्त उच्चकोटि के विचारक व दार्शनिक भी थे। स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श व आध्यात्मिक गुरु और देशबंधु चितरंजनदास को अपना राजनैतिक गुरु मानने वाले सुभाष चन्द्र बोस भारत को अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। सुभाष बाबू का कहना था कि मै एक ऐसे नूतन राष्ट्र की कल्पना से ही आत्मविभोर हो उठता हूं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी निजी क्षमता एवं प्रवृत्ति के अनुसार अपनी पूर्णता को प्राप्त करे। उनका कहना था कि हमारे पास सद्विचारों की गौरवपूर्ण सम्पदा और संसाधन भारी मात्रा में हैं, आवश्यक है तो इसके घर-घर में वितरण की, राष्ट्रीय जागरण की। विदेश प्रवास और जेल यात्राओं के दौरान समय-समय पर अपने मित्रों को लिखे नेताजी के पत्रों से राष्ट्र के प्रति उनका अनन्य प्रेम तो उजागर होता ही है, एक आदर्श राष्ट्र की परिकल्पना के भी दिग्दर्शन होते हैं। इन पत्रों में व्यक्त नेता जी के विचार वर्तमान परिस्थितियों में भी उतने प्रासंगिक हैं जितने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान थे।

4 अप्रैल 1927 को अपने एक मित्र गोपाल सान्याल को लिखे एक पत्र में उनके राष्ट्रनिष्ठा के इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति झलकती है, "जब तक हम अपना जीवन शत- प्रतिशत बलिदान करने को तैयार नहीं होंगे, तब तक हमारे लिए दृढ़ और अडिग खड़ा रहना सम्भव नहीं। मैंने अपना जीवन उस प्रार्थना के साथ प्रारम्भ किया था, हे प्रभु! तुम्हारी पताका लेकर चल रहा हूँ उसे वहन करने की शक्ति तुम्हीं देना। मुझे पता नहीं कि भविष्य के गर्भ में मेरे लिए क्या है केवल अपने अन्तर को विकसित करते जाने में ही अनन्त आनन्द है। राष्ट्र-निर्माण में आने वाले समस्त कष्टों को वे ईश्वरीय वरदान समझते थे। युवा शक्ति का आह्वान करते हुए उनका स्वर था- ऐ युवाओं! तुम ही वह शक्ति हो, जिसके बल पर भारतमाता के अधिकारों की रक्षा सम्भव है। मत भूलो कि शक्तिहीनता सबसे बड़ा अभिशाप है। मत भूलो की असत्य और अन्याय से समझौता करना सबसे बड़ा पाप है। इस शाश्वत नियम को याद रखो यदि तुम जीवन प्राप्त करना चाहते हो, तो जीवन दे डालो और यह याद रखो कि अन्याय के विस्र्द्ध संघर्ष करना जीवन का सबसे अहम् कर्तव्य है, उसके लिए चाहे कितना ही मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। यदि तुम गुलाब के फूलों की सुरभि चाहते हो तो उसके तीखे कांटों से परहेज मत करो। यदि तुम राष्ट्रनिर्माण का वरदान चाहते हो तो उसका मूल्य चुकाओ और याद रखो यह मूल्य है तप और त्याग।

सन् 1924 में माण्डले जेल से सुभाषचन्द्र बोस ने कलकत्ता के अपने एक समाजसेवी मित्र हरिचरण बागची को शिक्षा के बारे में लिखा था, "बच्चा अपनी समस्त ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से वस्तुओं को परखना चाहता है। अतः प्रकृति के इस नियम का पालन करते हुए बच्चों को उचित शिक्षा देनी चाहिए। छात्रों को केवल सैद्धान्तिक शिक्षा देकर ही संतोष नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि उन्हें विभिन्न उद्योगों एवं कलाओं की शिक्षा देने की व्यवस्था भी करनी चाहिए। शिक्षा के माध्यम से बच्चों की सृजनात्मकता, मौलिकता और व्यक्तित्व विकास के लिए सुअवसर प्रदान करना चाहिए। विद्यार्थियों को अनुशासन, तथा ब्रह्मचर्य का पाठ भी पढ़ाना चाहिए, जिससे वे शारीरिक और बौद्धिक रूप से बलिष्ठ हों। उनका कहना था कि राष्ट्र के सम्पूर्ण विकास के लिए समग्र शिक्षा नीति की आवश्यकता है। विश्वविद्यालय के छात्र समाज और देश के प्रति महान उत्तरदायित्व का निर्वाह कर सकते हैं।

राष्ट्रनायक सुभाष उस शिक्षा के पक्षधर थे जो राष्ट्रीय भावना से युक्त हो। वे इस बात को गहराई से जानते थे कि किसी राष्ट्र के निर्माण के लिए उसकी योजनाओं की अपेक्षा उसकी शिक्षा को सोद्देश्य रूप देना अधिक महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार, प्राथमिक शिक्षा के स्तर से ही छात्र-छात्राओं में राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति स्र्झान उत्पन्न करना चाहिए ताकि उन्हें भारत की संस्कृति और उसकी गौरव-गरिमा का बोध हो सके। ऐसी शिक्षा ही विद्यार्थियों में राष्ट्रीय संवेदना को दृढ़ कर सकती है। इससे ऐसे नागरिक उत्पन्न हो सकेंगे जो राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान कर सकें। 

"इण्डियन स्ट्रगल" में उन्होंने लिखा है कि भारत साम्यवाद को नहीं अपनाएगा क्योंकि राष्ट्रवाद के साथ साम्यवाद की कोई सहानुभूति नहीं है और भारतीय आन्दोलन एक राष्ट्रीय आन्दोलन है। सुभाष बोस ने हरिपुरा में 1938 की 51 वें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में दिये गये अपने भाषण में कहा था, " हमें अत्यंत सावधानीपूर्वक इस बात पर विचार करना होगा कि चाहे हम आधुनिक औद्योगिकवाद को कितना ही नापसन्द करें, तब भी हम औद्योगिक पूर्व अवस्था में वापस नहीं लौट सकते। अतः ऐसा उपाय करें, जिससे उसकी बुराइयां कम हों तथा बन्द पड़े कुटीर उद्योगों को फिर से शुरु करने की सम्भावना बढ़े। हमें उत्पादन तथा वितरण के लिए एक ऐसी व्यापक योजना बनानी होगी, जिससे समस्त कृषि तथा औद्योगिक प्रक्रिया का धीरे-धीरे समाजीकरण किया जा सके। आर्थिक योजना पर सर्वाधिक प्रभाव जनसंख्या का पड़ता है। उन्होंने इस बारे में कहा था, जिस देश में लोग गरीबी, भुखमरी और रोगों से पीड़ित रहते हों उसमें यह सहन नहीं किया जा सकता कि एक ही दशक में उसकी जनसंख्या करोड़ों बढ़ जाए। आबादी कुलाचें मारती हुई बढ़ती गयी तो हमारी योजनाओं पर पानी फिर जायेगा। 

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस राष्ट्र में एक ऐसे समाज के स्वप्नद्रष्टा थे, जहां जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय और लिंग -भेद की असमानता न हो। उनकी समाजवाद की कल्पना वैदेशिक धारणाओं पर आधारित न होकर अनिवार्यतः भारतीय इतिहास और राष्ट्र-परम्पराओं पर आधारित विचार एवं कल्पना है। जिस समाजवाद के वे हामी थे उसका मूल भारत की संस्कृति और सभ्यता में सन्निहित है। "इण्डियन स्ट्रगल" में वे लिखते हैं, भारतवर्ष को अपने भूगोल और इतिहास के अनुसार समाजवाद का विकास करना चाहिए, जिसमें नवीनता और मौलिकता हो तथा वह सारे संसार के लिए लाभदायी हो। उनका मानना था, भविष्य में भारत अपने समाजवाद के स्वरूप को स्वयं विनिर्मित करेगा, जो समस्त संसार के लिए अनुकरणीय होगा। उनका कहना था, सम्पूर्ण समाज के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ है- पुरुष के साथ स्त्री की स्वतन्त्रता, उच्च जातियों के साथ दलितों का उत्थान, केवल धनवानों के लिए ही नहीं निर्धनों की भी स्वतन्त्रता, आबाल-वृद्ध सबके लिए स्वतन्त्रता। समाज में सबको शिक्षा और विकास के समान अधिकार मिलना चाहिए। समानता, न्याय, स्वतन्त्रता अनुशासन और प्रेम ही सामूहिक जीवन का आधार है। वे इस बात को हिमायती थे कि भारतीय राजनीति में वे सभी तत्व समाहित हों जो जन-कल्याणकारी होने के साथ ही उदात्त भावनाओं से भी सम्पृक्त हों। 

नवम्बर 1944 में टोकियो विश्व-विद्यालय के छात्रों के सम्मुख व्याख्यान देते हुए उन्होंने कहा था," पिछले अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हमें किसी नयी राजनैतिक प्रविधि का प्रादुर्भाव करना पड़ेगा। नेता को जनता का सेवक होना चाहिए। सार्वजनिक सेवा का जीवन संन्यास की तरह होता है। इसके लिए हमारा सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि हम इस प्रकार के स्त्री-पुस्र्षों का समूह संगठित कर लें जो अधिक से अधिक कष्टसहन करने और बलिदान देने के लिए तैयार रहें। भारतमाता ऐसे लोगों के पुकार रही हैं, जो अपने जीवन के अन्तिम दिन तक अपने महान उद्देश्य की पूर्ति के प्रयत्न और कार्य करते रहने की प्रतीक्षा करें। जो केवल अपने देश को, केवल अपने इसी लक्ष्य के लिए समर्पित रहें।" 

गौरतलब हो कि 23 जनवरी 1947 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 50वें जन्मदिन पर महात्मा गाँधी ने कहा था, ''देश की सेवा की खातिर उन्होंने एक शानदार करियर की कुर्बानी दी थी। कोई निर्बल व्यक्ति होता तो शायद चुनौतियों के सामने घुटने टेक देता।"

योरोपीय सभ्यता व संस्कृति की खूबियों व खामियों के बारे में बेहद प्रेरणादायक विचार व्यक्त करते हुए वे अपने मित्र को लिखते हैं, ''यहां के लोग बड़े उद्यमशील हैं। सबको समय की कीमत का ज्ञान है और काम करने का एक नियत ढंग है। ये लोग सब काम घड़ी की तरह घंटा-मिनट पर करते हैं। ये लोग पक्के आशावादी हैं जबकि हम जीवन में दु:खो के विषय में ही अधिक विचार करते हैं। इनका व्यवहारिक ज्ञान भी प्रशंसनीय है। ये लोग अपने शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति भी काफी सजग रहते हैं जबकि हम लोग अपने शरीर और स्वास्थ्य की तरफ बहुत कम ध्यान देते हैं या प्राय: उदासीन रहते हैं। हमारे यहां विद्वान समझे जाने वालों के मुख से भी प्राय: ऐसे उद्गार सुनने में आते हैं कि शरीर की ज्यादा चिन्ता करने से क्या लाभ, यह तो दो दिन के बाद मिट्टी में मिलेगा। मगर इस प्रकार का उदासीनता का भाव देशसेवकों के लिए तो कदापि उचित नहीं कहा जा सकता है। हमारा आदर्श होना चाहिये -'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्" अर्थात शरीर ही समस्त धर्म साधन का आधार है। शरीर की तरफ से लापरवाह रहना भी एक अपराध है जो केवल अपने प्रति ही नहीं वरन् देश के प्रति भी होता है। हमारे देश के युवकों की शारीरिक सामथ्र्य यदि छोटी उम्र में ही नष्ट हो जाये तो हमको समझना चाहिये कि उनके भीतर कोई गलती या संकीर्णता रह गयी।" स्वास्थ्य रक्षा के संबंध में नेता जी के ये विचार वाकई बेहद उपयोगी हैं। सही मायने में देशसेवा व समाज सेवा कमजोर शरीर से नहीं हो सकती। आज देश के युवाओं को उनके इस आदर्श का अनुकरण करने की महती जरूरत है

मांडला जेल से अपने एक परम मित्र सान्याल को लिखे पत्र में वे कहते हैं,''तुमको मेरे जेल में होने से मानसिक आघात लगा, यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। मैं यह तो नहीं कहता कि जेल में रहना मुझे पसंद है; ऐसा कहना तो स्पष्ट ढोंग होगा। कोई भी सामान्य व्यक्ति जेल में रहना पसन्द नहीं करेगा क्योंकि जेल आवोहवा मनुष्य को विकृत-अमानुष बना देती है। मेरा यह कथन सभी जेलों पर लागू होता है। मेरा विचार है कि अधिकांश अपराधियों की जेल में नैतिक उन्नति नहीं होती, वरन वे और भी हीन हो जाते हैं। ऐसे में कितनी ही जेलों में रहकर और वहां की दशा का निरीक्षण करने से उनके दशा सुधारने की जरूरत मुझे जान पड़ने लगी है।"          
                       

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