भाजपा – शिवसेना तलाक – परिणाम और प्रभाव !



कहने को २०१९ अभी दूर है, किन्तु २०१९ में होने वाले लोकसभा चुनाव का बिगुल सबसे पहले महाराष्ट्र में फूंका जा चुका है | एक नाटकीय घटनाक्रम में 1989 से प्रारम्भ हुए भाजपा और शिवसेना के गठबंधन का किला एकाएक चरमराकर ढह गया | 

स्मरणीय है कि १९८९ से लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा में भाजपा और शिवसेना के साझे की खिचडी पकती रही है | दोनों ने 1995-1999 के बीच महाराष्ट्र में एक साझा सरकार चलाई, तो 1999 से 2014 तक विपक्षी दल के रूप में भी दोनों पार्टियां महाराष्ट्र में साथ-साथ रहीं ।

बैसे तो भारतीय जनता पार्टी और वैचारिक आधार पर उसके सबसे नजदीक मानी जाने वाली शिवसेना के बीच लड़ाई की शुरूआत, २०१४ के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर प्रारम्भ हो चुकी थी, जिसकी अंतिम परिणति मंगलवार २३ जनवरी को होती दिखाई दी, जब शिवसेना ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारी बैठक में, स्पष्ट दो टूक घोषणा कर दी, कि वह 2019 के आम चुनाव और विधानसभा चुनावों में अकेले चुनाव मैदान में उतरेगी ।

हालांकि, 2014 के विधानसभा चुनाव में भी एक प्रकार से दोनों पार्टियों के बीच मित्रतापूर्ण संघर्ष ही हुआ था और कई सीटों पर भाजपा और शिव सेना के प्रत्यासी आमने सामने ख़म ठोक रहे थे । तबसेही केंद्र में भी बीजेपी सरकार और शिवसेना के साथ बनते बिगड़ते रहे हैं । और अंततः वह घड़ी आ ही गई, जब शिवसेना और भाजपा के 25 वर्षीय गठबंधन का सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।

महाराष्ट्र की राजनीति में अब क्या बदलाव आ सकता है?

महाराष्ट्र में लोकसभा और विधानसभा चुनाव दोनों २०१९ में होने हैं और माना जा रहा है कि साथ साथ ही होंगे।

राज्य में मुख्यरूप से चार राजनैतिक पार्टियां प्रभावी हैं - भाजपा, कांग्रेस, शिवसेना और शरद पंवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और वर्तमान परिद्रश्य के अनुसार चारों ही अलग अलग लड़ने वाली हैं, अर्थात राज्य में चतुष्कोणीय संघर्ष की संभावना है ।

बैसे राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं होता | क्या पता बीते हुए कल की तथाकथित सेक्यूलर कांग्रेस, आज के शिवभक्त जनेऊधारी राहुल जी के नेतृत्व में आने वाले कल में शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ते दिखाई दे । 

जरा याद कीजिए दिसंबर 2017 में आये शिवसेना के उस बयान की, जिसमें कहा गया था कि “गुजरात विधानसभा चुनाव अभियान ने राहुल गांधी को एक परिपक्व नेता बना दिया है। महाराष्ट्र चुनाव ने साबित कर दिया है कि राहुल गांधी, अब पप्पू नहीं हैं। भाजपा को बड़े दिल से इसे स्वीकार करना चाहिए।"

स्मरणीय है कि राहुल गांधी ने तत्कालीन चुनाव में योजनाबद्ध ढंग से कई मंदिरों में जाकर पूजा अर्चना की थी और स्वयं की नरमपंथी हिंदुत्ववादी छवि प्रदर्शित करना प्रारम्भ किया था ।

इसलिए इन घटनाक्रमों को देखते हुए, यह कतई आश्चर्यजनक नहीं होगा कि यदि भविष्य में हम शिवसेना और कांग्रेस में गलबहियां देखें ।

अब विचार करें एनसीपी और कांग्रेस के संबंधों की | बैसे तो शरद पंवार मूलतः कांग्रेसी ही हैं, किन्तु विदेशी मूल के मुद्दे पर वे कांग्रेस से अलग हुए थे और अलग पार्टी बनाई थी | अतः उनके कांग्रेस के साथ मिलने में कोई सैद्धांतिक कठिनाई नहीं है, किन्तु क्या कांग्रेस, शिवसेना और शिवसेना, तीनों केवल भाजपा विरोध के नाम पर एक साथ आ सकती हैं ? 

फिर उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं का क्या होगा ? जबकि सचाई यह है कि तीनों में से कोई भी पार्टी त्यागमूर्ति नहीं है | हरेक के मन में अपनी शक्ति बढ़ाने की अपरिमित महत्वाकांक्षा हिलोरें मार रही है | आखिर वैचारिक साम्य के बाबजूद भाजपा और शिवसेना में झगडा भी तो इसी बात को लेकर है, कि बड़ा भाई कौन ? तो तीन पार्टियों के बेमेल और सिद्धांतविहीन गठबंधन में यह सवाल क्या नहीं उठेगा ?

सवाल अनेक हैं –

पहला सवाल कि क्या नरेंद्र मोदी का जादुई तिलिस्म, संयुक्त विपक्ष के सामने भी भाजपा को शीर्ष पर बनाए रखने में समर्थ होगा ?

क्या अमित शाह की चाणक्य नीति कोई नया गुल खिलायेगी और सेक्यूलर शरद पंवार को अपने साथ ला पायेगी ? अगर ऐसा हुआ तो सब कुछ उलटा पुलटा हो जाएगा | सेक्यूलर कांग्रेस साम्प्रदायिक शिवसेना के साथ और इसी प्रकार सेक्यूलर राष्ट्रवादी कांग्रेस, साम्प्रदायिक भाजपा के साथ | क्या ही मजेदार नजारा होगा |

और जैसा कि सबसे अधिक संभावित है, चारों दल अलग अलग लड़कर अपनी अपनी ताकत आजमाएंगे और शायद यही भाजपा चाहेगी भी | किन्तु क्या ऐसा हो पायेगा ?

तो ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में महाराष्ट्र की राजनीति. बहुत सारी गतिविधियों की साक्षी होगी।

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