हिंदी फिल्मजगत - दागदार किरदार का महिमामंडन – समाज को पथभ्रष्ट करने का कुचक्र !



1913 में पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ से जन्म लेने वाले हिन्दी फिल्मोद्योग ने आज दुनियाभर में सालाना सबसे ज्यादा फिल्में बनाने का रिकॉर्ड भले तोड़ दिया हो, लेकिन आदर्श के रूप में विषयों या किरदारों का चयन आज इस रुपहले संसार को किस स्तर तक ले आया है, इसे ‘संजू’ फिल्म बखूबी साबित करती है। एक समय था जब कहा जाता था कि फिल्में समाज को राह दिखाने वाली, सकारात्मक सन्देश देने वाली होना चाहिए, और काफी हद तक होती भी थी | किन्तु आज मान्यता बदल गई है और इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि फिल्में वही दिखाती हैं जो ‘जनता देखना चाहती है’! इसलिए हिंदी फिल्मों के मुख्य किरदार, अब गिरोहबाज या जेबतराश से आगे बढ़कर माफिया और अंडरवर्ल्ड सरगना, या अंडरवर्ल्ड से नाता रखने वाले नेता/अभिनेता होने लगे हैं । 

अब आज की चर्चित फिल्म ‘संजू’ को ही ले लीजिये । यानी मशहूर अभिनेता संजय दत्त की जिंदगी के चुनिंदा पहलुओं को बड़े परदे पर दिखाने वाली फिल्म। 1993 के बम्बई बम धमाकों में मजहबी उन्मादियों से सांठगांठ/याराना रखने वाले, अपने घर में घातक हथियार छुपाकर रखने वाले, बम धमाके की साजिश का पता होने के बावजूद उसे पुलिस से छुपाए रखने वाले, माफिया सरगनाओं से गलबहियां डाले रखने वाले, अपने किए अपराधों के लिए कई मर्तबा जेल की हवा खा आने वाले, रंगीनमिजाज होने की वजह से तीन शादियां रचाने वाले (फिल्म के अनुसार, ‘308 युवतियों से संबंध रखने के अलावा, जिनमें रेडलाइट इलाके वाली यौनकर्मियों की संख्या शामिल नहीं है’), अपनी पहली पत्नी को कैंसर की हालत में बेसहारा छोड़ देने वाले, अपनी पहली संतान से सालों तक कोई नाता न रखने वाले, लफ्फाजी के लहजे में दबंगई दिखाने वाले, एक नौजवान अभिनेता के तौर पर अपने माता-पिता की साख को दाग लगाने वाले संजय दत्त की इन्हीं ‘खूबियों’ से अभिभूत होकर फिल्म पटकथाकार और निर्देशक राजकुमार हीरानी ने 58 साल के संजय के पुकारे जाने वाले ‘संजू’ नाम से पिछले दिनों जो फिल्म परदे पर उतारी है, उसे इस दौर की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली, पहले हफ्ते में ‘बाहुबली’ को पीछे छोड़ करीब 200 करोड़ कमाने वाली बायोपिक के नाते प्रचारित करने में अंगे्रजी फिल्म पत्र-पत्रिकाएं एक-दूसरे को पानी पिला रही हैं। 

सवाल उठता है कि ‘संजू’ के बहाने फिल्म निर्माता हीरानी भारत के युवाओं के सामने क्या आदर्श प्रस्तुत करना चाहते हैं? संजय ने क्या अपने जीवन में ऐसा कोई असाधारण काम करके दिखाया है जो काबिलेतारीफ हो, या नशे से पूरी तरह तौबा करके वे आदर्श पति और अभिनेता बन गए हैं? आखिर मुम्बई फिल्म उद्योग माफिया या अंडरवर्ल्ड को इतना तूल क्यों देता आ रहा है, क्यों एकाध साल में एकाध फिल्म भारत के ‘मोस्ट वांटेड’ अपराधी, जिसके तार 1993 के बम्बई बम धमाकों से जुड़े हैं, उस दाउद इब्राहिम पर, नहीं तो उसकी बहन हसीना पारकर पर, या छोटा राजन पर, या अरुण गवली पर, या गुजरात के नामी अपराधी अब्दुल पर, या हाजी मस्तान पर बड़े बजट की फिल्में बनाई जाती हैं? 

सोशल मीडिया पर लोग पूछ रहे हैं-क्या यह सब किसी के इशारे पर हो रहा है? क्या इसके पीछे खाड़ी से आया पैसा लगा है? क्या मुस्लिम फिल्म निर्माताओं की बाढ़ सी आने और फिल्मों में खान तिकड़ी पर पानी की तरह पैसा बहाने के पीछे कोई छुपी ताकत है? वह ताकत, जो यह चाहती है कि भारत के लोगों के मन में ऐसे किरदारों की कहानियों को परीकथा की तरह बसा दिया जाए जो कानून को ठेंगे पर रखते हैं, जो देश की संप्रभुता को चुनौती देते हैं, जो भारत की वास्तविक संस्कृति और सरोकारों का मजाक उड़ाते हैं, जो गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर ‘बड़े दिल वाले’ इस्लामी किरदारों की भरमार की पैरवी करते हैं? 

हीरानी ने संजय दत्त जैसी जिंदगी को भी ‘मिसाल’ बनाकर जनता के सामने पेश तो किया, पर यह नहीं सोचा कि उनका यह पात्र युवाओं को कैसी जिंदगी जीने की प्रेरणा देगा? एक दौर था जब साफ-सुथरी, सकारात्मक संदेश देतीं या सिर्फ स्वस्थ मनोरंजन करने वाली फिल्में बनाने का आग्रह हुआ करता था, पर वह दौर ऐसा बदला कि निर्माताओं में माफियाओं, गिरोहबाजों, अपराधियों, यहां तक कि अंडरवर्ल्ड सरगनाओं की आपराधिक जिंदगी को चमक-दमक के साथ परोसने की होड़ दिखने लगी है। 

अब बात उसी तर्क की, कि फिल्में समाज का आईना होती हैं और वे वही दिखाती हैं जो समाज में घट रहा होता है। इस पैमाने पर ‘संजू’ या ‘डी-कंपनी’ या ‘वंस अपोन ए टाइम इन मुंबई’ या ‘रईस’ जैसी फिल्में कितनी खरी उतरती हैं, अंदाजा लगाना कठिन नहीं है। दरअसल व्यावसायिक नजरिए के तहत ऐसा मसाला ढूंढा जाता है जिसे भावनात्मकता, ड्रामा और हास्य का तड़का लगाकर मनोरंजन के नाम पर परोसा जाता है। लेकिन क्या गारंटी है कि तीन घंटे ‘जी हल्का’ करने के नाम पर अपने ‘वीकैंड्स’ सिनेमाहॉल में बिताने वाले युवा ऐसी फिल्में देखकर ऐसे पात्रों से अभिभूत नहीं होंगे?  

कुछ बरस पहले कश्मीरी जिहादियों पर बनी एक फिल्म ‘हैदर’ देखी थी, जिसमें जिहादी बना शाहिद कपूर जब-जब भारतीय सैनिकों को ललकारता हुआ पिस्तौल तानता था, तब तब दिल्ली के लिबर्टी सिनेमा में ईद का जश्न मनाने आए युवक जोश से उछल पड़ते थे। उस मंजर को देखकर उपजी चिंता आज भी कायम है।  

बॉलीवुड के माफिया और अंडरवर्ल्ड के प्रति मोह को दिखातीं कुछ चर्चित फिल्में 

कंपनी 

2002 में आई यह फिल्म काफी हद तक डी कंपनी यानी दाउद गिरोह के अंदर की हलचलों पर आधारित थी। इसमें दाउद और छोटा राजन के बीच हिंसक झड़पों और माफिया दादागीरी की झलक दिखाई दी। मुख्य किरदार अजय देवगन और विवेक ओबराय ने निभाए थे। 

डी डे 

2013 में ही प्रदर्शित यह फिल्म के केन्द्र में भी मुम्बइया फिल्मकारों के पसंदीदा अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद की कारगुजारियों और चमक-दमक की है। फिल्म दाउद और उसके गिरोह की मारकाट, लूट और दबंगई को ‘जनता की पसंद’ कहकर बड़े परदे पर दिखाने के चलन को ही आगे बढ़ाने की कोशिश थी। इसमें ऋषि कपूर और इरफान खान मुख्य भूमिकाओं में नजर आए। 

वंस अपॉन ए टाइम इन मुम्बई दोबारा 

2013 में परदे पर आई यह फिल्म इसी नाम से 2010 में आई फिल्म की अगली कड़ी है। इसमें भी दादउ का बढ़ते-बढ़ते मुम्बई पर अपना सिक्का जमाने की कहानी दिखाई गई है।  

हसीना पारकर 

2017 में परदे पर आई इस फिल्म में भी घुमा-फिराकर दाउद गिरोह और मुख्यत: उसकी बहन की जिंदगी को बढ़ा-चढ़ाकर जांबाजी का जामा पहनाने की कोशिश की गई है। हसीना का किरदार श्रद्धा कपूर ने निभाया है। 

रईस 

2017 में आई यह फिल्म गुजरात के अपराधी अब्दुल लतीफ को केन्द्र में रखकर बनाई गई है। विडम्बना यह कि एक अपराधी पर बनी यह फिल्म 2017 में गणतंत्र दिवस से ठीक एक दिन पहले प्रदर्शित हुई और मुख्य किरदार निभाने वाले शाहरुख खान पर परोक्ष रूप से अपराधी के चरित्र को भी जनता की हमदर्दी दिलाने की कोशिश करने के आरोप लगाए गए। 

डैडी 

2017 में ही आई यह फिल्म कभी मुम्बई के ‘दादा’ रहे और बाद में राजनीति में उतरे अरुण गवली की जिंदगी के गिर्द बुनी गई है। गवली का किरदार अर्जुन रामपाल ने निभाया। 

वंस अपॉन ए टाइम इन मुम्बई 

2010 में प्रदर्शित इस फिल्म में मुम्बई पर कभी एकछत्र राज करने वाले तस्कर हाजी मस्तान को महिमामंडित किया गया है। इसमें कभी मस्तान के नीचे काम करने वाले दाउद का ग्लैमर की नगरी मुम्बई में धीरे-धीरे बढ़ता रुतबा भी दिखाया गया है। 

हंगामा क्यों बरपा होता है? 

जब भी कोई अभिनेता किसी अपराध में जेल भेजा जाता है तो सेकुलर मीडिया में उन्माद की हद तक तीन बातें बार-बार उभारी जाती हैं, कि- 

—फलां अभिनेता के करोड़ों चाहने वालों के दिल को बहुत ठेस पहुंची है। 

—उस अभिनेता के जेल जाने से फिल्मोद्योग को अरबों रुपए का नुकसान होगा, जिसकी भरपाई नहीं होे पाएगी और कितने ही निर्माता सड़क पर आ जाएंगे। 

—अगर उस अभिनेता का संबंध मुस्लिम समाज से हो, तो पक्का जान लीजिए, कितने ही सेकुलर मानवाधिकारकर्मी, फिल्मी हस्तियां और मीडिया के झण्डाबरदार उसके समर्थन में आ खड़े होंगे और उसे इतना पाक-साफ, नेकदिल बताने की होड़ करते दिखेंगे कि जैसे उससे ज्यादा भला मानुष इस जगत में दूसरा नहीं है। 

साभार आधार – पांचजन्य
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