गांधी जी के सपनों का भारत – श्री धर्मपाल

एक गांधीवादी तारिक अली ने एक प्रमुख ब्रिटिश समाचारपत्र में गांधीजी विषयक एक पुस्तक की समीक्षा करते हुए इन शब्दों में गांधीजी का वर्णन किया, “ गांधीजी का सही महत्व इस बात में है कि में देश के किसान समूह को आन्दोलन के लिए प्रेरित करने का परन्तु साथ ही उनकी महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करने का सामर्थ्य था |”
24 नवम्बर 1925 को गांधी जी ने “मेरे सत्य के प्रयोग” नाम से अपना आत्म चरित्र लिखना प्रारम्भ किया | उसमें उन्होंने लिखा कि, “मैं जो प्राप्त करना चाहता हूँ, तीस वर्षों से जिसे प्राप्त करने के लिए मैं प्रयासरत हूँ, ईश्वर का साक्षात् दर्शन, मोक्ष |” ईश्वर के साक्षात दर्शन की तीव्र आकांक्षा तो बचपन में वे जब काठियाबाड में रहते थे तब से, और अधिक निश्चित रूप से 1893 में दक्षिण अफ्रीका में रहते समय से उन पर कब्जा जमाये रही |
परन्तु मोक्ष की साधना और हिन्द स्वराज्य के प्रचार प्रसार के साथ ही गांधीजी प्रातःकाल से देर रात तक अन्य अनेक कामों में व्यस्त रहते थे | यह भी सत्य हैकि सारी गतिविधियाँ मोक्षप्राप्ति और हिन्द स्वराज्य को साकार रूप देने की साधना भी थीं, क्योंकि उनके अनुसार ईश्वर न स्वर्ग में, न पाताल में, अपितु सबके ह्रदय में था और उनका प्रयास मानव सेवा से ईश्वर प्राप्ति के लिए था |  1936 में अपने विचार को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि, “मैं समग्र का एक अंश हूँ | ईश्वर को मैं मनुष्य से अलग करके नहीं देख सकता | मेरे देशवासी मेरे प्रथम आराध्य हैं | वे सब इतने निःसहाय हैं, इतने अकिंचन हैं, इतने निर्बल हैं कि मुझे उनकी सेवा करनी ही चाहिए | यदि मैं अपने आप को समझा सकूं कि मैं हिमालय की किसी गुफा में ईश्वर को पा सकता हूँ तो मैं तुरंत हिमालय में चला जाऊँगा | परन्तु मैं जानता हूँ कि ईश्वर मनुष्यता से अलग कहीं नहीं है |”
1939 में इस विषय को और अधिक स्पष्टता और द्रढता से उन्होंने अभिव्यक्त किया | उन्होंने कहा कि, “मैं अपने इन करोड़ों देशवासियों को पहचानने का दावा करता हूँ | चौबीसों घंटे मैं उनके साथ रहता हूँ | उनकी हिमायत करना मेरा पहला और आख़िरी काम है, क्योंकि मैं और किसी ईश्वर को नहीं, सिर्फ उस ईश्वर को मानता हूँ जिसका निवास करोड़ों के मूक हृदयों में है | वे लोग ईश्वर की मौजूदगी को नहीं पहचानते, मैं पहचानता हूँ | और मैं इन करोड़ों की सेवा द्वारा सत्यरुपी ईश्वर या ईश्वर रुपी सत्य की पूजा करता हूँ |”
गांधीजी ने 1909 में अपनी स्वराज की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए “हिन्द स्वराज” नामक छोटी सी पुस्तक लिखी | पुस्तक के प्रथम अंग्रेजी अनुवाद की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि, “ब्रिटिश सरकार भारत में जिस संस्कृति का प्रदर्शन कर रही है, वह तो शैतान का साम्राज्य है | और मैं स्वयं जिसे जानता और समझता हूँ, वह प्राचीन भारतीय संस्कृति ईश्वर का साम्राज्य है | ब्रिटिश युद्ध के देवता के प्रतिनिधि हैं, जबकि प्राचीन भारत के लोग प्रेम के देवता के |” उनका दृढ विश्वास था कि भारतीय संस्कृति वर्तमान विकृतियों और अव्यवस्थाओं से ग्रस्त होने के बाद भी आधुनिक पश्चिमी संस्कृति की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है | वे मानते थे कि पश्चिम की संस्कृति भोगवाद पर आधारित है जब कि भारत की संस्कृति संयम पर |
मई 1914 में हिन्द स्वराज के द्वितीय गुजराती संस्करण की प्रस्तावना में गांधीजी ने लिखा कि, “ मैं स्वयं अंग्रेजों या अन्य किसी राष्ट्र की जनता या व्यक्तियों के प्रति तिरस्कार की भावना नहीं रखता | जैसे किसी महासागर में जलराशि की समस्त बूँदें समुद्र का ही अंग होती हैं, उसी प्रकार सब प्राणी एक समान हैं |”
1921 में हिन्द स्वराज के चतुर्थ भारतीय संस्करण की प्रस्तावना में गांधीजी ने घोषित किया कि, “ यह न सोचें कि इस पुस्तक में वर्णित स्वराज्य की स्थापना करना ही मेरा लक्ष्य है, मैं जानता हूँ कि अभी भारत उसके लिए तैयार नहीं हुआ है | इसे ध्रष्टता समझा जा सकता है किन्तु इसमें जिस स्वशासन की बात कही गई है, व्यक्तिगत रूप से तो मैं उसी के लिए काम कर रहा हूँ | परन्तु आज मेरी प्राथमिकता जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप संसदीय ढंग का स्वराज प्राप्त करना है | मैं रेलों और अस्पतालों को ख़तम करने का प्रयत्न नहीं कर रहा हूँ, किन्तु यदि वे कुदरती तौर पर ख़तम हो जाएँ तो मैं उसका स्वागत ही करूंगा | न तो रेलें और न अस्पताल ही ऊंची और पवित्र सभ्यता की कसौटी हैं | ज्यादा से ज्यादा हम उन्हें एक जरूरी बुराई ही मान सकते हैं | किसी राष्ट्र के नैतिक मान को तो वे एक इंच भी नहीं बढाते | न मेरा मकसद अदालतों को स्थाई रूप से ख़त्म कर देना ही है, यद्यपि मैं मानता हूँ कि सभी को इनके ख़त्म हो जाने की कामना करना चाहिए | समस्त मशीनों और मीलों को ख़त्म करने की कोशिश तो मैं और भी कम कर रहा हूँ, क्योंकि उसके लिए जिस ऊंचे दर्जे की सादगी और त्याग की जरूरत है, उसके लिए लोग आज तैयार नहीं हैं |”
गांधीजी के विचारों तथा स्वतंत्र भारत की रीति नीति विषयक उनकी कल्पना से नेहरू जी की असहमति समय समय पर स्पष्ट परिलक्षित होती रही | सन 1927 में श्री जवाहरलाल नेहरू ने गांधीजी को लिखा था, “ आपने कहीं पर कहा हैकि भारत को पश्चिम से सीखने योग्य कुछ भी नहीं है | भारत प्राचीनकाल में ज्ञान के शिखर पर पहुंचा हुआ था | मैं आपके इस अभिमत से सहमत नहीं हूँ | मैं नहीं मानता कि प्राचीन काल का तथाकथित रामराज्य अच्छा था | आज मुझे वह चाहिए भी नहीं | मैं मानता हूँ कि पाश्चात्य औद्योगिक संस्कृति भारत में आनेवाली ही है |”
इसके उत्तर में गांधी जी ने लिखा कि, “तुम्हारे और मेरे बीच मतभेद इतने बड़े और उग्र है कि हमारे लिए सहमती का कोई आधार दिखाई नहीं देता |” स्वाभाविक रूप से गांधीजी की ग्राम स्वराज की कल्पना पंडित नेहरू को मान्य नहीं थी | और उन्होंने इसे कभी छुपाया भी नहीं | पंडित नेहरू की धारणा उनके ही शब्दों में, “यह मेरी समझ से परे है कि गाँव सत्य और अहिंसा का प्रतीक कैसे हो सकता है ? सामान्य रूप से तो गाँव बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़े ही होते हैं | तो फिर ऐसे पिछड़े वातावरण में कोई प्रगति कैसे हो सकती है ? संकुचित मानस के लोग तो झूठ बोलने वाले तथा झगडालू होने की ही संभावना अधिक है | .......... मैंने हिन्द स्वराज बहुत वर्षों पूर्व पढी थी | आज मुझे उसका धुंधला स्मरण है | परन्तु बीस वर्ष पूर्व जब मैंने वह पढी थी, तब भी वह मुझे बहुत अवास्तविक लगी थी |”
सितम्बर 1945 में कांग्रेस की कार्यसमिति में अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद के राज्यतंत्र पर गर्मागर्म चर्चा हुई | इस चर्चा के बाद गांधी जी अत्यंत क्षुब्ध भी हुए | उन्होंने नेहरू जी को एक पत्र लिखा –
“हम दोनों के बीच में जो मतभिन्नता है, उसके विषय में लोगों को जानना ही चाहिए | उनको अनजान रखने से स्वराज्य के काम में बाधा आयेगी | मेरा पक्का अभिमत है कि सन 1909 में “हिन्द स्वराज” में जो कुछ मैंने लिखा था, वह मेरे अनुभव के उपरांत सत्य सिद्ध हुआ है | .......... मैं मानता हूँ कि हिन्दुस्तान को, और उसके माध्यम से सारे विश्व को स्वतन्त्रता प्राप्त करनी है तो आज नहीं तो कल उसे गाँव में जाना ही पडेगा, झोंपड़ी में रहना ही पडेगा, महलों में नहीं | बिना सत्य और अहिंसा के मानव जाती का नाश ही होने वाला है उसमें मुझे कोई संदेह नहीं | सत्य और अहिंसा के दर्शन केवल गाँवों की सादगी में ही हो सकते हैं | दुनिया उलटी दिशा में जा रही है | पतंगा जब नाश की ओर जाता है तो अधिक चक्कर काटता है और चक्कर काटते काटते ही जल जाता है | हो सकता है हिन्दुस्तान उस चक्कर से बच ना पाए | तो भी मेरे जीवन की अंतिम सांस तक हिन्दुस्तान को और दुनिया को बचाने के प्रयास करना मेरा कर्तव्य है | मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिए जिन जिन चीजों की आवश्यकता है वे उसके नियंत्रण में होना चाहिए | ऐसा नहीं होगा तो व्यक्ति का बचना मुश्किल है | दुनिया आखिर व्यक्तियों की बनी हुई है | बिंदु नहीं होगा तो समुद्र भी नहीं होगा | यह तो एक सामान्य उक्ति है | मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूँ |”
1939 में गांधीजी के एक लेख का शीर्षक था “क्या भारत लड़ाकू देश है” | इस लेख के समापन में गांधीजी ने लिखा था कि, “गति ही जीवन का अंतिम ध्येय नहीं है | मनुष्य यदि अपने काम पर पैदल चलकर जाए, तो उसे चीजों को देखने समझने का ज्यादा अच्छा अवसर मिलता है, और वह अधिक सच्चा जीवन व्यतीत करता है |” यह लेख उन्होंने 25 सितम्बर 1939 को रेलगाड़ी में बैठकर जाते हुए लिखा था | इस पर एक पाठक ने व्यंग किया तो गांधी जी ने उसके जबाब में “न पाटी जा सकने वाली खाई” नामक लेख लिखा | लेख में उन्होंने लिखा कि “जिस जगह यह लिखा गया उसका उल्लेख मैं आसानी से टाल सकता था | पर मैं अपनी बात को ज्यादा बजन देना चाहता था | मेरे और मेरे आदर्श के बीच जो गहरी खाई है, उससे पाठकों को अवगत कराना चाहता था | “उन्होंने आगे लिखा कि “मैं संसार को अपनी निर्बलताएँ और असफलताएं भी बताना चाहता हूँ, ताकि मैं दंभ से बच जाऊं, और शर्म के कारण ही सही आदर्श को प्राप्त करने की यथाशक्ति साधना करूं | आदर्श और व्यवहार के बीच हमेशा एक ऐसी खाई रहती है जो कभी पाटी नहीं जा सकती | आदर्श को प्राप्त करना अगर संभव हो जाए तो वह आदर्श ही नहीं रहेगा | आनंद तो साधना में है, सिद्धि में नहीं |”
वे आगे लिखते हैं, “मुझे मोटर में या रेल में अथवा बैलगाड़ी में भी बैठकर मुसाफिरी करने में कोई आनंद नहीं आता | आनंद तो हमेशा पैदल चलने में ही आता है |रेल की एक एक पटरी उखाड़ ली जाये, मरीजों और अपाहिजों के अतिरिक्त सबको अपने काम पर पैदल चलकर जाना पड़े, तो मुझे इसका ज़रा भी दुःख नहीं होगा | मैं ऐसी सभ्यता की कल्पना करता हूँ, जिसमें मोटर का मालिक होना कोई श्रेय की बात नहीं मानी जायेगी और जिसमें रेल के लिए भी कोई स्थान नहीं होगा | संसार किसी समय जितना विशाल था, यदि वह फिर से उतना विशाल बन जाए तो मेरे लिए यह कोई दुःखद घटना नहीं होगी |”
इस लेख में गांधीजी ने अपनी पुस्तक “हिन्द स्वराज” का उल्लेख भी इस प्रकार किया, “इस छोटी सी पुस्तक को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि यह तथाकथित अज्ञान और अन्धकार के युग में पीछे लौटने का प्रयत्न नही है, बल्कि यह स्वैच्छिक सादगी, गरीबी और धीमेपन में सौन्दर्य को देखने का प्रयत्न है | इसे मैंने अपना आदर्श चित्रित किया है | मैं खुद इस आदर्श तक कभी पहुँचने वाला नहीं, इसलिए देश से भी इस हद तक पहुँचने की अपेक्षा नहीं कर सकता | लेकिन आज लोगों में नित नई बस्तु प्राप्त करने की, आकाश में विचरण करने और अपनी आवश्यकताओं को निरंतर बढाते जाने की जो प्रवृत्ति दिखाई देती है, उसके प्रति मेरे मन में कोई मोह नहीं है | ये सब बातें हमारी अंतरात्मा का हनन करती हैं | मनुष्य की बुद्धि आज जिन चकरा देने वाली ऊंचाईयों को छूने का प्रयास कर रही हैं, उससे हम अपने सिरजनहार से दूर होते जा रहे हैं | उस सिरजनहार से जो हमारे उतना ही करीब है जितना कि नख उंगली के करीब होता है |”
1934 में गांधी जी ने अपनी भारत यात्रा पूर्ण करने के बाद वर्धा को अपना नया केंद्र बनाया | एक वर्ष बाद वर्धा से छः मील की दूरी पर स्थित सेवाग्राम में उन्होंने अपने आश्रम की स्थापना की | उसी समय अक्टूबर 1934 में उन्होंने, जिस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे सर्वोच्च नेता और मार्गदर्शक थे, उसकी सामान्य सदस्यता से त्यागपत्र देने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया | अपने त्यागपत्र के कारण का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा था कि, “अधिकाँश बुद्धिमान कांग्रेसी मेरे विचार और मेरी पद्धति से बाज आ गए हैं | उनको लगता है कि कांग्रेस के स्वाभाविक विकास में मैं सहायक नहीं अपितु अवरोधक हूँ |” यद्यपि बाद में उन्होंने कांग्रेस को आश्वासन दिया कि वे आवश्यक मार्गदर्शन व परामर्श देते रहेंगे | उसके बाद गांधीजी के परामर्श के अनुरूप कांग्रेस ने नियम बनाया कि उसके तीन चौथाई सदस्य ग्राम निवासी होंगे | कांग्रेस ने प्रस्ताव पारित किया कि यदि गाँवों का पुनर्गठन और पुनर्रचना करनी है तो मृत अथवा मृतप्राय ग्रामोद्योगों को पुनर्जीवित और प्रोत्साहित करना पडेगा | उसके लिए अखिल भारतीय ग्रामोद्योग संघ की रचना करनी पड़ेगी |”
किन्तु दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद गांधीजी के राजकीय एवं आर्थिक विचारों को अव्यवहारिक मानकर भारत ने दूसरा ही रास्ता चुन लिया | 3 नवम्बर 1917 को गुजरात में आयोजित राजकीय सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि, “यातो हिन्दुस्तान को स्वराज्य प्राप्त हो नहीं तो यहाँ भुखमरी फैलेगी | हिंदुस्तान में गरीबी बढ़ रही है | और यह स्वाभाविक भी है | जो देश अपना कच्चा माल बाहर भेजकर उससे निर्मित पक्का माल आयत करता है, जो देश स्वयं कपास उत्पन्न करता है परन्तु कपडे के लिए करोड़ों रुपये विदेशों को देता है वह देश गरीब नहीं होगा तो और क्या होगा ? जिस देश के लोगों का विवाह समारोहों में खर्च करना आवश्यक माना जाता हो उस देश की स्थिति भिखारी जैसी नहीं होगी तो क्या होगी ? जिस देश के अधिकारी वर्ग का धन देश के बाहर खर्च किया जाता हो वह देश गरीब ही बनने वाला है | लोगों की कमाई तो बढी नहीं है, व्यय अवश्य बढ़ा है | ...... अपनी पार्लियामेंट होगी तो वह क्या करेगी ? हिन्दुस्तान में अपनी पार्लियामेंट होगी तब गलतियाँ करने का और उन्हें दुरुस्त करने का हमारा अधिकार होगा | हमारा जीवन लंकेशायर की चीजों पर निर्भर नहीं रहेगा | हम अपनी अक्षय संपत्ति खर्च करके बादशाही दिल्ली नहीं बनायेंगे | बादशाही दिल्ली की आकृति गाँव की झोंपड़ी जैसी बनेगी | आज तो प्रजा सर्वथा रैंक बन गई है | उसे गलती करने का अधिकार नहीं है | जिसे गलती का अधिकार नहीं है वह सुधार नहीं कर सकता |”


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