अमर बलिदानी सोहनलाल पाठक के बलिदान दिवस पर विशेष !


भारत की स्वतन्त्रता के लिए देश ही नहीं विदेशों में भी प्रयत्न करते हुए अनेक वीरों ने बलिदान दिये हैं। सोहनलाल पाठक इन्हीं में से एक थे। उनका जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के पट्टी गाँव में सात जनवरी, 1883 को श्री चंदाराम के घर में हुआ था। पढ़ने में तेज होने के कारण उन्हें कक्षा पाँच से मिडिल तक छात्रवृत्ति मिली थी। मिडिल उत्तीर्ण कर उन्होंने नहर विभाग में नौकरी कर ली। फिर और पढ़ने की इच्छा हुई, तो नौकरी छोड़ दी। नार्मल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे लाहौर के डी.ए.वी. हाईस्कूल में पढ़ाने लगे।

एक बार विद्यालय में जमालुद्दीन खलीफा नामक निरीक्षक आया। उसने बच्चों से कोई गीत सुनवाने को कहा। देश और धर्म के प्रेमी पाठक जी ने एक छात्र से वीर हकीकत के बलिदान वाला गीत सुनवा दिया। इससे वह बहुत नाराज हुआ। इन्हीं दिनों पाठक जी का सम्पर्क स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल से हुआ। वे उनसे प्रायः मिलने लगे। इस पर विद्यालय के प्रधानाचार्य ने उनसे कहा कि यदि वे हरदयाल जी से सम्पर्क रखेंगे, तो उन्हें निकाल दिया जाएगा। यह वातावरण देखकर उन्होंने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।

जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने सोहनलाल पाठक को ब्रह्मचारी आश्रम में नियुक्ति दे दी। पाठक जी के एक मित्र सरदार ज्ञानसिंह बैंकाक में थे। उन्होंने किराया भेजकर पाठक जी को भी वहीं बुला लिया। दोनों मिलकर वहाँ भारत की स्वतन्त्रता की अलख जगाने लगे; पर वहाँ की सरकार अंग्रेजों को नाराज नहीं करना चाहती थी, अतः पाठक जी अमरीका जाकर गदर पार्टी में काम करने लगे। इससे पूर्व वे हांगकांग गये तथा वहाँ एक विद्यालय में काम किया। विद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे छात्रों के बीच प्रायः देश की स्वतन्त्रता की बातें करते रहते थे।

हांगकांग से वे मनीला चले गये और वहाँ बन्दूक चलाना सीखा। अमरीका में वे लाला हरदयाल और भाई परमानन्द के साथ काम करते थे। एक बार दल के निर्णय के अनुसार उन्हें बर्मा होकर भारत लौटने को कहा गया। बैंकाक आकर उन्होंने सरदार बुढ्डा सिंह और बाबू अमरसिंह के साथ सैनिक छावनियों में सम्पर्क किया। वे भारतीय सैनिकों से कहते थे कि जान ही देनी है, तो अपने देश के लिए दो। जिन्होंने हमें गुलाम बनाया है, जो हमारे देश के नागरिकों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए प्राण क्यों देते हो ? इससे छावनियों का वातावरण बदलने लगा।

पाठक जी ने स्याम में पक्कों नामक स्थान पर एक सम्मेलन बुलाया। वहां से एक कार्यकर्ता को उन्होंने चीन के चिपिनटन नामक स्थान पर भेजा, जहाँ जर्मन अधिकारी 200 भारतीय सैनिकों को बर्मा पर आक्रमण के लिए प्रशिक्षित कर रहे थे। एक दिन पाठक जी गुप्तरूप से जब फौज़ के जवानों को देशभक्ति और अंग्रेजों के विरुद्ध मरने-मारने का पाठ पढ़ा रहे थे, अचानक एक भारतीय जमादार ने उनका दांयाँ हाथ पकड़ लिया और अपने अफ़सर के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए ले जाने का बलात् प्रयास करने लगा। पाठकजी को यह आशंका न थी। उन्होंने जमादार को काफी समझाया पर वह नहीं माना।

यद्यपि पाठकजी उस समय सशस्त्र थे, जमादार का काम तमाम कर सकते थे। लेकिन एक भारतीय भाई का खून अपने हाथों से बहाना उन्होंने उचित नहीं समझा । उन्हें लगा कि इस कृत्य से उनका क्रांतिकारी संगठन कलंकित हो जायेगा । वे स्वयं गिरफ़्तार हो गए। मुक़दमा चला और उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई गयी।

जेल में उन्होंने कभी जेल के नियमों का पालन नहीं किया। उनका तर्क था कि जब अंग्रेज़ नियमों को नहीं मानते तो उनके नियमों का बन्धन कैसा ? बर्मा के गवर्नर जनरल ने जेल में उनसे कहा- 'अगर तुम क्षमा मांग लो तो फांसी रद्द की जा सकती है।' पाठकजी ने जवाब दिया- 'अपराधी अंग्रेज हैं, क्षमा उन्हें मांगनी चाहिए. देश हमारा है। हम उसे आज़ाद कराना चाहते हैं। इसमें अपराध क्या है?'

यद्यपि उन्होंने किसी को मारा नहीं था; पर शासन विरोधी साहित्य छापने तथा विद्रोह भड़काने के आरोप में उन पर मुकदमा चला। उनके साथ पकड़े गये मुस्तफा हुसैन, अमरसिंह, अली अहमद सादिक तथा रामरक्खा को कालेपानी की सजा दी गयी; पर पाठक जी को सबसे खतरनाक समझकर 10 फरवरी, 1916 को मातृभूमि से दूर बर्मा की मांडले जेल में फाँसी दे दी गयी।

बर्मा जेल के रिकॉर्ड बताते हैं कि फांसी के समय पाठकजी ने जल्लाद के हाथों से फांसी का फंदा छीन कर स्वयं अपने गले में डाल लिया था।

किसी कवि ने ऐसे ही जाँबाजों के लिए कहा है कि-

गर्दन अब हाथ से अपने ही कटानी है हमें,
मादर-ए-हिंद पे यह भेंट चढ़ानी है हमें,
किस तरह मरते हैं अहरार-ए-वतन भारत पर,
सारे आलम को यही बात दिखानी है हमें।

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