मारवाड़ का शेर



जोधपुर नरेश जसवंतसिंह और मुग़ल बादशाह औरंगजेब के बीच शतरंज के समान खेल चलता रहता था | वे कभी परस्पर सहयोगी तो कभी शत्रु हो जाते थे | जसबंतसिंह को औरंगजेब पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं था | लेकिन एक बार जब वे औरंगजेब के साथ बैठे हुए थे, एक अद्भुत प्रसंग हुआ | गुजरात के जंगलों से पकड़कर लाये हुए एक शेर को दिखाते हुए औरंगजेब ने कुटिलता से मुस्कुराते हुए कहा कि तुम्हारे यहाँ है कोई ऐसा शेर ? 

जसबंतसिंह को बादशाह का यह व्यंग चुभ गया, बोले हमारे शेर के सामने तो आपका शेर बिल्ली है | क्रोधित हो औरंगजेब बोला – तो फिर देर किस बात की है, बुलाओ अपने शेर को, हो जाने दो दोनों शेरों की मुठभेड़ | महाराज ने भी तुर्की बतुर्की जबाब दिया – बुलाने की क्या बात है, वह तो यहाँ ही है | और अपने एक मात्र जीवित बेटे प्रथ्वीसिंह को सामने खड़ा कर दिया | 

कुटिल औरंगजेब की तो मानो मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई | जोधपुर रियासत का इकलौता बारिस अगर शेर का शिकार बन जाये तो फिर देरसबेर जोधपुर को मुगलिया सल्तनत का हिस्सा बनने में कितनी देर लगेगी | उसने जसबंतसिंह को धार पर चढ़ाया और कहा – रहने भी दो जसबंत सिंह, इस तरह बढचढ कर बातें न करो | यह 19 साल का छोकरा क्या मुकाबला करेगा, इस बब्बर शेर का ?

पिता का उपहास होते देखकर प्रथ्वीसिंह से रहा न गया | वे तुरंत ही अपने पिता जसबंतसिंह व गुरू दुर्गादास के पैर छूकर शेर के बाड़े में कूद पड़े | पहले तो शेर भी भयभीत हो इस नरसिंह के सामने से दुम दबाकर पीछे हट गया | किन्तु जब उसे औरंगजेब के इशारे पर पीछे से हड़काया गया, वह छलांग मारकर प्रथ्वीसिंह पर कूद पड़ा | किन्तु मारवाड़ के उस शेर ने भी उसे चकमा देकर पीछे पहुँच उसकी पीठ पर सवारी गाँठ ली और अपनी तलवार से उसकी दोनों आँखें फोड़ दीं | घायल खूंखार शेर अब केवल अनुमान के सहारे प्रथ्वीसिंह पर झपट पा रहा था | लेकिन प्रथ्वीसिंह उसका हर बार बचाते रहे | जब शेर पूरी तरह थक कर लस्त हो गया तब तलवार के एक ही वार से प्रथ्वीसिंह ने उसके सर के दो टुकडे कर दिए | शेर की चीत्कार से पूरा मुग़ल दरबार काँप उठा |

औरंगजेब का चेहरा स्याह पड गया | वह इस अपमान को कभी नहीं भूला | उसने चिकनी चुपड़ी बातों में फंसाकर जसबंतसिंह को शिवाजी के खिलाफ अभियान हेतु साइस्ता खान के साथ दक्षिण भेज दिया | पीछे से प्रथ्वीसिंह को पुरस्कृत करने के बहाने जहर से बुझी पोशाक भेंट की | पोशाक पहिनने के कुछ समय बाद ही कुंअर प्रथ्वीसिंह के शरीर पर बड़े बड़े फफोले पड़ गए और 8 मई 1667 को मारवाड़ के उस शेर ने तड़प तड़प कर दम तोड़ दिया | प्रचार यह किया गया कि उनकी मृत्यु चेचक के कारण हुई |

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