क्या होगा, अगर मानव और मशीन एक हो जाएँ ?

illustration of man and machine merging

मनोविज्ञान और भौतिकी

1800 के अंत में, एक जर्मन खगोलशास्त्री हंस बर्जर घोड़े से गिरे और घुड़सवार सेना द्वारा लगभग कुचल गये । वह चोट से तो बाल बाल बच गए, लेकिन इस दुर्घटना ने उन्हें हमेशा हमेशा के लिए बदल दिया | विशेषकर अपनी बहिन की प्रतिक्रिया के कारण । बहिन उस समय उनसे मीलों दूर थीं, किन्तु उन्हें अनुभूति हुई कि बर्जर किसी मुसीबत में है । बर्जर ने इस घटना को मानसिक शक्ति का सबूत माना और अपना शेष जीवन इसके शोध के लिए समर्पित कर दिया ।

बर्जर ने खगोल विज्ञान का अपना अध्ययन त्याग दिया और मस्तिष्क की समझ हासिल करने के लिए मेडिकल स्कूल में दाखिला ले लिया | अब उनका एक ही लक्ष्य था - "मस्तिष्क की सोद्देश्य गतिविधि और उसका व्यक्तिगत मनोविज्ञान के साथ संबंध।" वे बाद में तंत्रिका विज्ञान के बारे में अपनी खोज को आगे बढ़ाने के लिए जर्मनी के जेना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गए ।

उस समय मनोविज्ञान के प्रति रुझान भी अधिक था । स्टैनफोर्ड और ड्यूक जैसे अनेक समर्पित शिक्षाविद ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज आदि प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्यरत थे। आज तो इस बात पर सब भरोसा करते हैं कि हमारे मस्तिष्क में विद्युत के समान संवाद की क्षमता है, किन्तु उस समय यह धारणा एक क्रांतिकारी विचार थी | विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र की खोज भी 1865 में हुई | लेकिन बर्जर ने इसका प्रमाण दिया | उन्होंने मस्तिष्क की तरंगों को दर्ज करने लिए इलेक्ट्रो एन्सफलो ग्राम नामक उपकरण का आविष्कार किया, जिसे आज ईईजी के नाम से जाना जाता है । अपनी नई ईईजी के द्वारा बर्जर ने पहली बार प्रदर्शित किया कि हमारे न्यूरॉन्स वास्तव में एक दूसरे से बात करते हैं और वे ऐसा विद्युत् धड़कन (पल्स) के माध्यम से करते हैं। उन्होंने अपने शोध परिणाम को 1929 में प्रकाशित किया।

जैसा कि अक्सर क्रांतिकारी विचारों के साथ होता है, बर्जर के ईईजी परिणाम को भी या तो नजरअंदाज किया गया, या फिर उन्हें ट्रिक बताकर घनघोर आलोचना की गई । क्योंकि यह सब अलौकिक प्रतीत होने वाली गतिविधि जो थी । इन सबसे बेपरवाह बर्जर ने अपने निष्कर्षों को "मानसिक शक्ति" की गतिविधि के सबूत के रूप में देखा, और लगातार अपनी खोज को जारी रखा | लेकिन लगातार की आलोचना ने इस जीनियस को इतनी हताशा में डाल दिया कि अंततः उन्होंने स्वयं को फांसी पर लटका दिया । उनकी मृत्यु के बाद वैज्ञानिक समुदाय ने अगले एक दशक में ही व्यापक रूप से उनके निष्कर्षों को स्वीकार भी किया और सत्यापित भी | 

1969 में जीव भौतिकी वेत्ता एबरहार्ड फेट्ज़ ने बर्गर के शोध को और आगे बढ़ाया । फेट्ज़ ने प्रमाणित किया कि मस्तिष्क विद्युत् द्वारा नियंत्रित उपकरण के समान है, और हम अपनी मानसिक शक्ति से विद्युत् उपकरणों को भी नियंत्रित कर सकते हैं । सिएटल में वॉशिंगटन विश्वविद्यालय की एक छोटी सी प्रयोगशाला में उसने एक बिजली के मीटर को एक रीसस बंदर के मस्तिष्क से जोड़ा और विस्मय से देखा कि बंदर अपने विचारों से मीटर के स्तर को नियंत्रित करना सीख रहा था ।

अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली इस अंतर्दृष्टि का 1969 में भले ही अधिक उपयोग न हो पाया हो, किन्तु अब जबकि इंसानी दिमाग से कनेक्ट करने के लिए सिलिकॉन चिप, कंप्यूटर और डाटा नेटवर्क के तेजी से विकास के साथ इंटरनेट प्रौद्योगिकी उपलब्ध है, एक नई बौद्धिक नस्ल का प्रारंभ हो रहा है ।

इस समय दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक मानव मस्तिष्क में कंप्यूटर चिप्स को प्रत्यारोपित करने की दिशा में प्रयोग कर रहे हैं । और जैसी की संभावना जताई जा रही, अगर प्रयोग सफल हुए तो वह दिन दूर नहीं, जब टेलीपेथी के माध्यम से मानसिक शक्ति की अनेक असाधारण गतिविधियां हम देख पायेंगे, अनुभव कर पायेंगे ।

एक प्रयोग जिसने बदल दी सारी दुनिया 

जान सेउरमन्न ने एक चॉकलेट बार को उठाकर एक टुकड़ा खाया और मुस्कुराते हुए घोषित किया "एक महिला की यह छोटी सी कुतरन, बीसीआई की एक महान सफलता है।" 

बीसीआई अर्थात ब्रेन कंप्यूटर इंटरफेस, और जान सेउरमन्न पृथ्वी के उन गिने चुने लोगों में से एक थी, जिनके दिमाग में इस तकनीक का उपयोग कर न्यूरॉन्स के साथ सीधे दो चिप्स प्रत्यारोपित की गई । यह सबसे पहला मानव मस्तिष्क प्रत्यारोपण ब्राउन विश्वविद्यालय के न्यूरोसाइंटिस्ट जॉन ड़ोनोघुए द्वारा 2004 में लकवा पीड़ित जान सेउरमनन में किया गया था ।

ये सिक्के जैसे दिखने वाले कंप्यूटर चिप्स सीधे कंप्यूटर और इंटरनेट के माध्यम से ब्रेनगेट तकनीक का उपयोग कर मष्तिष्क से जुड़ते हैं । ब्रेनगेट एक ऐसा आविष्कार है, जिसकी मदद से इंसान अपने विचारों की शक्ति से बिजली के उपकरणों को नियंत्रित कर सकता है । जान सेउरमन्न के मस्तिष्क में ब्रेनगेट चिप प्रत्यारोपित की गई और नतीजतन, उसने अपने विचारों से रोबोट भुजा को नियंत्रित करते हुए चॉकलेट खाने में सफलता पाई ।

एक स्मार्ट और जीवंत महिला जान सेउरमन्न, 40 वर्ष की उम्र में एक भीषण आनुवांशिक बीमारी से ग्रस्त हो गई | वह अपने हाथ और पैर का उपयोग करने में भी असमर्थ हो गई | दस वर्ष तक इस स्थिति का सामना करने के बाद ब्रेनगेट पद्धति ने उसे नव जीवन दिया | इस प्रकार के अन्य मरीज भी इसके प्रयोग द्वारा व्हीलचेयर का नियंत्रण कर सकते हैं, इंटरनेट पर ईमेल लिख कर संवाद कर सकते हैं ।

इस तकनीक को समझना आश्चर्यजनक रूप से आसान है। ब्रेनगेट ठीक बैसी ही पद्धति है, जैसी कि बर्जर की ईईजी थी, या फेट्ज़ द्वारा किया गया बिजली के मीटर का प्रयोग था, अर्थात मस्तिष्क के विद्युत संकेतों का उपयोग । ब्रेन गेट चिप, मस्तिष्क के विद्युत संकेतों को पढ़ता है और उनकी व्याख्या कर रोबोट भुजा या व्हीलचेयर जैसे अन्य विद्युत् उपकरणों को भेजकर उन्हें संचालित करता है ।

यह चैनल बदलने के लिए टीवी रिमोट का उपयोग करने से बहुत अलग नहीं है। यह प्रौद्योगिकी भविष्य में संभवतः विकलांग लोगों को अकल्पनीय राहत देगी । विकलांग ही क्यों, कल्पना कीजिए हम भी अगर कंप्यूटर से अपने मन को जोड़ पायें तो यह दुनिया कितनी बदल जाएगी ।

कंप्यूटर अपने आविष्कार के बाद से ही हमारे दिमाग पर कब्जा जमा चुका है । बड़े मेनफ्रेम डेस्कटॉप से लेकर बाद में लेपटोप, टैबलेट और स्मार्टफोन तक, और उससे भी आगे अब चश्मे की जोड़ी जैसे गूगल ग्लास ने इंटरनेट को कैसा स्वरुप दे दिया है ।

2004 में गूगल के संस्थापकों ने कहा था कि “एक दिन हम सीधे मस्तिष्क के माध्यम से इंटरनेट संचालित करेंगे | दुनिया की सम्पूर्ण जानकारी तक हमारे दिमाग की सीधी पहुंच होगी ।"

उनकी यह भविष्यवाणी एक दशक में ही सत्य होती दिखाई दे रही है | लेकिन इस कृत्रिम बुद्धि के पीछे छुपे खतरों को भी समझने की आवश्यकता है | 

पिछले दो लाख वर्षों में मानव के मस्तिष्क का क्रमिक विकास हुआ है । लेकिन अभी हाल ही में कुछ परिवर्तन आया है । आश्चर्यजनक ढंग से मानव मस्तिष्क में बृद्धि के स्थान पर संकुचन देखा जा रहा है | विगत 20,000 वर्षों से वह सिकुड़ता जा रहा है। इसके पूर्व इसका आकार किसी फुटबॉल जैसा था तो अब वह घटकर बेसबोल के आकार का रह गया है ।

मानव विज्ञानी जॉन हाक ने इसे "क्रमिक विकास में पलक झपकते हुआ बड़ा संकुचन” निरूपित किया है । वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर संकुचन की यही गति बनी रही तो अगले दो हजार साल में हमारा दिमाग हमारे पूर्वजों, होमो इरेक्टस जैसे जीवों से अधिक बड़ा नहीं रहेगा ।

हमारे दिमाग की सिकुड़न का कारण स्पष्ट है: हमारे जीव विज्ञान ने अस्तित्व पर ध्यान केंदित किया है, बौद्धिकता पर नहीं । भाषा, उपकरण और हमारी प्रजाति को कामयाब बनाने के लिए बड़ा दिमाग आवश्यक है, लेकिन हम तो अब सभ्य बन चुके हैं | अब हमें बुद्धि की क्या आवश्यकता ? हम बुद्धि का उपयोग कम करते जा रहे हैं, अतः परिणाम सामने है ।

वस्तुतः यह सभी जानवरों का भी वास्तव सत्य है: पालतू जानवर जैसे कुत्ते, बिल्ली और पक्षियों के दिमाग अपने समकक्ष जंगली जानवरों की तुलना में 10 से 15 प्रतिशत छोटे होते हैं । दिमाग बनाए रखना उतना आसान नहीं है, प्रकृति में सीधे सीधे उत्तरजीविता का सिद्धांत काम करता है । यह जीवन का एक अनिवार्य तथ्य है कि शरीर के जिस अंग का उपयोग नहीं होता, वह पहले कमजोर और बाद में विलुप्त भी हो जाता है | संसाधनों की वृद्धि के साथ साथ भविष्य के बुद्धि रहित इंसान की कल्पना कैसी लगती है ?

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