भगवान श्री गणेश की विभिन्न कथाएं, ग्रह वाधाओं का निदान व वेदोक्त अथर्वशीर्ष !

आज से दस दिवसीय गणेशोत्सव प्रारंभ हो रहे हैं | विभिन्न पुराणों में गणेश जी के जन्म को लेकर अनेक प्रसंग मिलते हैं | शिव पुराण और गणेश पुराण में वर्णित है कि, माता पार्वती ने स्नान के समय अपने तन के मैल से इन्हें जन्म दिया और अपना द्वारपाल बनाकर खड़ा कर दिया | आगे की कथा भी सबको मालूम है कि, कैसे भगवान् शंकर को भी द्वार पर रोकने के कारण ये उनके क्रोध का शिकार हुए, और बाद में भगवान विष्णु ने एक ममता विहीन हस्तिनी के छौने का सिर इन्हें लगाकर जीवित किया |

दूसरा वर्णन वराह पुराण में मिलता है कि भगवान शिव पंचतत्वों से बड़ी तल्लीनता से गणेश का निर्माण कर रहे थे। इस कारण गणेश अत्यंत रूपवान व विशिष्ट बन रहे थे। आकर्षण का केंद्र बन जाने के भय से सारे देवताओं में खलबली मच गई। इस भय को भांप शिवजी ने बालक गणेश का पेट बड़ा कर दिया और सिर को गज का रूप दे दिया।

तीसरा प्रसंग मत्स्य पुराण में मिलता है, जिसके अनुसार ना तो शिवजी द्वारा अपने पुत्र गणेश की गरदन काटी जाती है और ना ही विष्णु भगवान द्वारा हाथी के बच्चे की गरदन गणेश जी को लगाई थी, बल्कि उनका जन्म ही हाथी की गरदन के साथ हुआ था। कथा के अनुसार एक दिन माता पार्वती के मन मेँ पुत्र की कामना उत्पन्न हुई, तब वे सखियों के साथ कृत्रिम पुत्र बनाकर क्रीङा करने लगी। पार्वती जी नें सुगन्धित तेल से शरीर को मलकर उबटन भी लगाया। फिर उस लेपन को इकट्ठा कर उससे हाथी के से मुखवाले पुरुष की आकृति का निर्माण किया। उसके साथ क्रीङा करने के पश्चात् माता पार्वती जी नें उसे अपनी सखी जाह्नवी (गंगा) के जल में डलवा दिया। वहाँ वह विशाल शरीर वाला हो गया और अपने उस विशाल शरीर से सारे जगत को आच्छादित कर लिया। तब पार्वती जी नें उसे ‘पुत्र’ ऐसा कहा और उधर जाह्नवी नें भी उसे ‘पुत्र’ कहकर पुकारा। अन्त में वह गजानन (गाँगेय) नाम से देवताओं द्वारा सम्मानित किया गया और ब्रह्मा नें उसे विनायकों का आधिपत्य प्रदान किया। इस प्रकार गणेश न केवल माता पार्वती बल्कि माता गंगा के भी पुत्र हैं |

हैरत का विषय यह भी है कि शिव पार्वती विवाह के अवसर पर भी गणेश पूजन का वर्णन मिलता है | इसका अर्थ हुआ कि भगवान् गणेश का अस्तित्व शिव पार्वती के विवाह के पूर्व भी था | अर्थात गणपति आदिदेव हैं जिन्होंने हर युग में अलग अवतार लिया। उनकी शारीरिक संरचना में भी विशिष्ट व गहरा अर्थ निहित है। शिवमानस पूजा में श्री गणेश को प्रणव (ॐ) कहा गया है। इस एकाक्षर ब्रह्म में ऊपर वाला भाग गणेश का मस्तक, नीचे का भाग उदर, चंद्रबिंदु लड्डू और मात्रा सूँड है।


चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता की प्रतीक उनकी चार भुजाएँ हैं। वे लंबोदर हैं क्योंकि समस्त चराचर सृष्टि उनके उदर में विचरती है। बड़े कान अधिक ग्राह्यशक्ति व छोटी-पैनी आँखें सूक्ष्म-तीक्ष्ण दृष्टि की सूचक हैं। उनकी लंबी नाक (सूंड) महाबुद्धित्व का प्रतीक है।

गणेश के पास हाथी का सिर, मोटा पेट और चूहे जैसा छोटा वाहन है, लेकिन इन समस्याओं के बाद भी वे विघ्नविनाशक, संकटमोचक की उपाधियों से विभूषित हैं। इसका मूल कारण यह है कि उन्होंने अपनी कमियों को कभी अपना नकारात्मक पक्ष नहीं बनने दिया, बल्कि अपनी ताकत बनाया। वस्तुतः उनकी शारीरिक संरचना, जीवन में सफलता के सूत्र का बखान करती है | उनकी टेढ़ी-मेढ़ी सूंड बताती है कि सफलता का पथ सीधा नहीं है। हाथी की चाल भले ही धीमी हो, लेकिन अपना पथ अपना लक्ष्य नहीं भूलता । उनकी आंखें छोटी लेकिन पैनी है, वे हर बात का सूक्ष्मता से विश्लेषण करने वाले हैं । बड़े कान अर्थात एक अच्छे श्रोता का गुण उनमें विद्यमान है ।

प्रथम पूज्य श्री गणेश सभी संकटों का नाश करने वाले एवं विघ्नहर्ता हैं | रिद्धि सिद्धि जिनकी पत्नी तथा शुभ लाभ जिनके पुत्र है ऐसे भगवान श्री गणेशजी की आराधना शीघ्र फलदायी कही गई है | प्राण प्रतिष्ठित करके मंत्रों का जाप करते हुए सुगंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप व नैवेद्य अर्पण करना चाहिए | गणेश जी दुर्वा चढाने से अति प्रसन्न होते हैं अत: इनके नामों का स्मरण करते हुए इनके पूजन में दुर्वा चढ़ाना चाहिए. लाल व सिंदूरी रंग इन्हें प्रिय है, यह लाल रंग के पुष्प से शीघ्र खुश होते हैं |

भगवान गणेश का शास्त्रीय विधि से पूजन फलदायी होता है. इनका पूजन आह्वान, आसन, पाद्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, पुष्पमाला, धूप-दीप, ताम्बूल, नैवेद्य तथा आरती इत्यादि के साथ संपन्न होता है. ॐ गं गणपतये नम: मन्त्र को पढ़ते हुए पूजन में लाई गई सामग्री गणपति पर चढाने से पूजन पूर्ण होता है तथा शुभ-लाभ की अनुभूति प्राप्त होती है.

जब किसी जातक की जन्मकुंडली में बुध ग्रह ठीक न हो, जैसे अशुभ भावो का स्वामी हो.....अशुभ ग्रहों से द्वारा द्रष्ट हो......या शुभ भाव में होकर भी निर्बल हो........क्रूर ग्रहों के साथ युति हो रही हो.....जिसके प्रभाव से उसके जीवन में धनाभाव (आर्थिक समस्या) स्वास्थ्य की समस्या, व्यापार में निरंतर हानि जैसे परिणाम मिल रहे हो तो शास्त्र में बुधग्रह के जाप, दान व पूजा, श्री गणेश जी की पूजा, बुधवार व गणेश चतुर्थी के साथ व्रत का नियम है |

भगवान श्री गणेश जी के अथर्वशीर्ष स्त्रोत का पाठ करने से समस्त अमंगल दूर होते हैं तथा सफलता के मार्ग खुलते हैं. भगवान गणेश बुद्धि के अधिष्ठाता है इनके श्रीविग्रह का ध्यान, उनके मंगलमय नाम का जप और उनकी आराधना ज्ञान शक्ति बढाती है.

गणपति अथर्वशीर्षॐ नमस्ते गणपतये।त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसित्वमेव केवलं कर्ताऽ सित्वमेव केवलं धर्ताऽसित्वमेव केवलं हर्ताऽसित्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासित्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

अव त्व मां। अव वक्तारं।अव श्रोतारं। अव दातारं।अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।अव पश्चातात। अव पुरस्तात।अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।सर्वतो माँ पाहि-पाहि समंतात्।।3।।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽषि।त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्माषि।त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽषि।।4।।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।त्वं चत्वारिकाकूपदानि।।5।।

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।त्वं शक्तित्रयात्मक:।त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वंरूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वंवायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वंब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं।नाद: संधानं। सँ हितासंधि:सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

एकदंताय विद्‍महे।वक्रतुण्डाय धीमहि।तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।नम: प्रमथपतये।नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।विघ्ननाशिने शिवसुताय।श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।स ब्रह्मभूयाय कल्पते।स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।स सर्वत: सुखमेधते।स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

अनेन गणपतिमभिषिंचतिस वाग्मी भवतिचतुर्थ्यामनश्र्नन जपतिस विद्यावान भवति।इत्यथर्वणवाक्यं।ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्न बिभेति कदाचनेति।।14।।

यो दूर्वांकुरैंर्यजतिस वैश्रवणोपमो भवति।यो लाजैर्यजति स यशोवान भवतिस मेधावान भवति।यो मोदकसहस्रेण यजतिस वाञ्छित फलमवाप्रोति।य: साज्यसमिद्भिर्यजतिस सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वासूर्यवर्चस्वी भवति।सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौवा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।महाविघ्नात्प्रमुच्यते।महादोषात्प्रमुच्यते।महापापात् प्रमुच्यते।स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

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