संघ से प्रथक भाजपा ????

इन दिनों एक सवाल फिजा में तैर रहा है कि क्या भाजपा बिहार पराजय के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से खुद को दूर करने जा रहा है ? भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री विनय सहस्त्रबुद्धे के एक बयान के बाद यह प्रश्न उठने लगा है | यह एक मुर्गी और अंडे जैसी स्थिति नहीं है, जिसमें अंडा समाप्त होता है और मुर्गी बाहर आती है | अगर कोई यह कहता है कि भाजपा को सत्ता मिल जाने के बाद आरएसएस की क्या जरूरत, तो उसकी समझ भ्रामक है। यह सही है कि भाजपा में अनेक लोग हैं, जिनका संघ से कोई सम्बन्ध नहीं है और जो संघ से सम्बन्ध रखना भी नहीं चाहते, साथ ही यह मानने वाले भी अनेक हैं, जो चाहते हैं कि भाजपा आरएसएस से अलग न केवल दिखाई दे, बल्कि यथार्थ में अलग रहे और पार्टी इसी दिशा में बढे ।

यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन । अब भाजपा की सर्वोच्च निर्णायक इकाई 12 सदस्यीय संसदीय बोर्ड के सदस्यों पर एक नज़र डालिए, अधिकाँश संघ के स्वयंसेवक हैं | इतना ही नहीं तो भाजपा के दो पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी ने पहले संघ प्रमुख से भेंट की, उसके बाद वे संसदीय बोर्ड की बैठक में गए | संगठन महासचिव रामलाल तो संघ के प्रचारक हैं ही । वे ही बैठकों की सूचना देते हैं, और भाजपा के मुख्यालय 11 अशोका रोड के बगल में जुड़ा 9 अशोक रोड ही उनका स्थाई आवास है । वर्तमान पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के लिए भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अभिमत ही अंतिम है। इनके अतिरिक्त महासचिव राम माधव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रवक्ता हैं। अंत में बात प्रधानमंत्री जी की तो वे भी संघ के प्रचारक रहे हैं |

वह संघ ही है, जिसके बल पर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री इतने मजबूत दिखाई दे रहे है | विदेशों में एनआरआई लामबंदी में संघ के विश्व विभाग ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

राम माधव ही वह व्यक्ति हैं, जिनके माध्यम से आरएसएस/ भाजपा देश में एक बैकल्पिक बौद्धिक वर्ग तैयार करन चाहते हैं, जिसपर अभीतक वामपंथीयों ने कब्जा जमाया हुआ है | यही कारण है कि उस समूह में एक प्रकार की छटपटाहट है, जो अवार्ड वापसी की नौटंकी के रूप में सामने आई । इसके अलावा राम माधव ने ही जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी के गठजोड़ जैसी लम्बी वैचारिक छलांग में मुख्य भूमिका निबाही ।

दूसरे शब्दों में आरएसएस के बिना भाजपा में रणनीति परिवर्तन की कोई सोच भी नही सकता । लेकिन अच्छाई में कई बार बुराई भी छुपी होती है, यही दादरी गौमांस प्रकरण को आधार बनाकर देश में असहिष्णुता पर चली राष्ट्रीय बहस से परिलक्षित हुआ | भाजपा अपने आप को जिस नए कलेवर में प्रस्तुत कर रही थी, उसे तगड़ा झटका लगा । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छतरी के नीचे कुछ अतिवादी समूह भी पनपते हैं, जिन्हें आम व्यक्ति प्रतिगामी मानता है, और वोट करना पसंद नहीं करता ।

इसलिए भाजपा की मुख्य समस्या जहाँ अपनी सरकार के अच्छे कार्यों को जारी रखना है, वहीं दूसरी ओर देश की जनता का ध्यान इन तथाकथित फुन्दनों के क्रियाकलापों से दूर रखना भी है | लेकिन क्या यह इतना आसान है ? 

हो सकता है कि 2014 में भाजपा को मिली सफलता में विहिप या बजरंग दल द्वारा चलाये गए लव जिहाद व गौसंरक्षण के मुद्दों का भी योगदान हो, किन्तु उतना ही सच यह भी है कि अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत से उन समुदायों के मन में स्वाभाविक ही प्रतिक्रिया होती है, जिसका खामियाजा भाजपा को ही भुगतना पड़ता है | लेकिन बिहार के मामले में तो भाजपा नेताओं के विभाजनकारी बयानों ने ही आग में घी का काम किया और भाजपा को नुकसान किया ।

जैसे आरक्षण नीति की समीक्षा संबंधी संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत की टिप्पणी को सांप्रदायिक नहीं कहा जा सकता । लेकिन उसकी प्रतिक्रियास्वरुप जो कुछ भाजपा नेताओं ने कहा, वह पूरी तरह अपरिपक्व कहा जा सकता है | यदि उस बयान को महत्व ही नहीं दिया जाता, तो शायद कुछ नहीं बिगड़ता, किन्तु उस पर प्रतिक्रिया देकर अपने हाथों अपने पैरों पर भाजपा ने स्वयं कुल्हाड़ी मारी | या तो उस बयान का समर्थन करना उचित होता अथवा नो कमेन्ट की पालिसी उचित होती | आखिर क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए, यह कहने में भाजपा को क्या हानि होती ? समाज के कमजोर वर्ग तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुँच रहा है, सरसंघचालक जी का यह कथन क्या गलत है ? लेकिन मांझी या रामविलास जैसे लोग जो संघ को जानते समझते ही नहीं, उन्होंने स्वयं को सरसंघचालक जी के समकक्ष मानकर ऊलजलूल बयान दिए और खुद तो निबटे ही, भाजपा की तली में भी छेद कर दिए |

जहां तक संघ या श्री मोहन भागवत का प्रश्न है, उनका दर्शन सदैव से ही "जाति से परे" रहा है |  संघ ने अपने स्थापनाकाल से अस्पृश्यता व जाति के दायरे से स्वयं को प्रथक रखा | यहाँ शाखाओं में सब साथ में मिलकर खेलते है, खाते पीते है, किन्तु कोई किसी की जाति नहीं पूछता | स्मरणीय है कि स्वयं भाजपा ने भी उसी नीति को मान्य करते हुए पिछले साल अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों राज्यों के जीतने के बाद इसी नीति को ही लागू किया था । महाराष्ट्र जहाँ ब्राह्मणों का कोई राजनैतिक बर्चस्व नहीं है, वहां युवा देवेंद्र फडणवीस को मुख्य मंत्री बनाया गया | इसी प्रकार हरियाणा में जहाँ जाट राजनीति हावी है, एक पंजाबी खत्री मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री के रूप में चुना गया था।

अब बिहार चुनाव के बाद क्या होगा ? कुछ तो निश्चय ही होगा | कुछ केन्द्रीय मंत्री हटाये जा सकते हैं, तो कुछ के विभाग बदले जा सकते हैं | लेकिन कोई अगर यह सोचे कि भाजपा और संघ के रिश्ते पुनर्परिभाषित हो सकते हैं, तो यह खामख्याली है | बिना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद के भाजपा शक्तिहीन है । यह बात विरोधी भी जानते हैं, इसीलिए उनका सर्वाधिक मुख्य निशाना भाजपा से ज्यादा संघ पर सधता है |

आधार - http://blogs.timesofindia.indiatimes.com/toi-edit-page/bjps-dna-is-such-that-it-can-tackle-hotheads-only-with-some-help-from-rss/

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