भारत विभाजन की व्यथा-कथा - स्व.श्री कुप.सी. सुदर्शन (भाग 2)



लन्दन में हो रही गोलमेज सम्मेलन में ‘पाकिस्तान’ शब्द पहली बार सुनाई पड़ा। इसके जन्मदाता चौधरी रहमत अली और केब्रिज थे तीन अन्य मुस्लिम छात्र थे। उन्होंने पत्रक ‘अभी अथवा कभी नहीं’ के नाम से परिचालित किया। अँग्रेजी वर्णमाला के ‘पी’ से पंजाब, ‘ए’ से अफगानिस्तान, ‘के’ से कश्मीर, ‘एस’ से सिंध और तान से बलूचिस्तान अभिप्रेत था। सन् 1933 में संयुक्त प्रवर समिति की बैठक हुई। उसमें अखिल भारतीय मुस्लिम लीग और ‘आल इंडिया कान्फरेंस’ के एक शिष्ट मंडल ने भी भाग लिया। उस समय लीग के अध्यक्ष सर मोहम्मद इकबाल और ‘आल इंडिया कान्फरेंस’ के अध्यक्ष थे हिज हाईनेस आगा खाँ । जब सर रेजीनॉल्ड क्रैडोक ने प्रतिनिधियों से पूछा कि पाकिस्तान की योजना क्या है तो अब्दुल्ला युसुफ (आईसीएम), सर जफरउल्ला खाँ तथा अन्यों ने उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि एक छात्र की अव्यावहारिक और अनुत्तरदायी कपोल कल्पना है। उस पर सर रेजीनॉल्ड ने कहा -‘‘आप लोग भारत में शीघ्रता से आगे बढ़िए। सम्भव है कि ये छात्र जब बड़े होंगे तो इस योजना को साकार कर सकेंगे।’’ 

प्रवर समिति में पंचनिर्णय हुआ कि प्रांतीय विधानमण्डलों में मुसलमानों को मद्रास, मुंबई, संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत, असम, बिहार, और उड़ीसा आदि हिन्दु-बहुल प्रांतों में उनकी जनसंख्या के अनुपात से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए। पंजाब और बंगाल में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों को वैधानिक बहुमत का आश्वासन दिया जाए। जिन्ना की जिन 14 सूत्रीय माँगों को साइमन आयोग ने भी अनुचित ठहराया था, उन सभी को पंच-निर्णय में स्वीकार कर लिया गया। महात्मा गांधी, पं. नेहरू, पं. मालवीय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, डॉ. अंसारी, श्री शेरवानी, भाई परमानन्द आदि सबने एक स्वर से इस साम्प्रदायिक पंचनिर्णय की निन्दा की और उसे हिन्दुओं के लिए अति अनुचित और भेदभाव पूर्ण ठहराया। देशव्यापी विरोध को देखते हुए यह धारणा व्यापक रूप ले चुकी थी कि काँग्रेस इसे सर्वथा अस्वीकार कर देगी पर काँग्रेस में घोर दुविधा खड़ी हो गई। एक ओर पंचनिर्णय के रूप में राष्ट्र की मूल एकता पर कुठाराघात करती हुई अत्याचारी, राष्ट्रविरोधी, साम्राज्यवादी पिपासा थी तो दूसरी ओर मुस्लिम समर्थन के हाथ से निकल जाने की आशंका थी। पुनः काँग्रेस के पैर डगमगाए और उसने सोचा कि स्पष्ट रूप से अस्वीकृति राजनैतिक दृष्टि से उचित नहीं होगी। अतः उसने घोषणा की-‘‘न स्वीकार और न ही अस्वीकार।’’

अँग्रेजों का षड्यंत्र एक बार पुनः सफल हो गया। पं. मालवीय ने विरोध-स्वरूप काँग्रेस छोड़ दी और भाई परमानन्द ने विधानसभा में पंच-निर्णय का घोर विरोध किया। डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा-‘‘यह निर्णय हिन्दू प्रांतों में निर्वाचक मंडलों के प्रश्न पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को आत्म निर्णय का अधिकार देता है लेकिन मुस्लिम बहुल प्रांतों में हिन्दू अल्पसंख्यकों को वही अधिकार नहीं देता.....इस प्रकार यह साम्प्रदायिक पंच निर्णय हिन्दुओं पर मुस्लिम शासन लादता है जिसे वे न तो बदल सकते हैं और न ही प्रभावित कर सकते हैं।’’इस साम्प्रदायिक-निर्णय ने मुसलमानों को और एक मूल्यवान उपहार दिया। सिंध को मुंबई से अलग कर उसे एक पृथक् और पूर्ण मुस्लिम बहुल प्रांत बना दिया। अनेक हिन्दू शिष्ट मंडलों ने गांधी जी से बिनती की कि सिंध को मुंबई से अलग करना हिन्दुओं को मुस्लिम मतान्धता की भट्टी में झोंकना होगा। किन्तु काँग्रेस तो पहले ही 1931 के कराची आधिवेशन से सिंध संबंधी मुस्लिम माँगों को स्वीकार कर चुकी थी। महात्मा गांधी ने कहा-‘‘सिंध के बारे में मेरा मत पूर्ववत् है।.... हर भारतीय को आत्मरक्षा की कला सीखनी ही होगी। सच्चे लोकतंत्र की यही कसौटी है। सबकी रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है। किन्तु राज्य उन लोगों की रक्षा नहीं कर सकता जो आत्मरक्षा के कार्य में उसका हाथ नहीं बँटाते।’’

सन् 1937 के प्रान्तीय विधानसभाओं के चुनावों में काँग्रेस ने भाग लिया जिसमें मद्रास, संयुक्त प्रान्त, बिहार, मध्यप्रान्त और विदर्भ तथा उड़ीसा में काँग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला। मुंबई में ठीक आधे स्थान प्राप्त किये तथा असम और पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभर कर आई। मुस्लिम लीग मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में बुरी तरह पिटी । उसे कुल 485 में से केवल 108 स्थान मिले। पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त में तो उसका सफाया ही हो गया था जहाँ उसे एक भी स्थान नहीं मिला। भावी पाकिस्तान के संभावित गढ़ पंजाब में उसे केवल एक स्थान मिला। सिंध, जहाँ 70 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों की थी, साठ सदस्यों में से उसे केवल तीन स्थान मिले तथा बंगाल में, जो भावी पाकिस्तान की पूर्वी शाखा होती, उसमें मुसलमानों के कुल 117 स्थानों में से लीग को केवल 37 स्थान ही मिल सके।

काँग्रेस ऐसी सुदृढ़ स्थिति में थी कि यदि वह अवसर का बुद्धिमत्ता और दृढ़ निष्चय से लाभ उठाती तो मुस्लिम लीग द्वारा बढ़ते हुए अलगाव के संकट को रोक सकती थी और लीग के झंडे तले समूचे मुस्लिम समुदाय को एकत्रित करने की लीग की योजना पर पानी फेर सकती थी। पर यहाँ भी काँग्रेस इच्छाशक्ति व दिशा के अभाव में लडखड़ा गई और हर चरण में लीग धौंस जमाने में सफल रही। उदाहरणार्थ, काँग्रेस ने लीग के साथ इस स्पष्ट सद्भाव पर संयुक्त-प्रान्त का चुनाव लड़ा था कि चुनावों के बाद दोनों मिला-जुला मंत्रिमंडल बनाएँगे। किन्तु जब काँग्रेस को अकेले ही स्पष्ट बहुमत मिल गया तो उसने सद्भाव तोड़ दिया। लीग ने समझा कि उसके साथ छल किया गया है और परिणामस्वरूप संयुक्त प्रान्त के लीग नेता खलीकुज्जमाँ ने प्रान्त के तूफानी दौरे में नारा लगाया-‘‘यदि हम मिलकर शासन नहीं कर सकते तो हम साथ-साथ भी नहीं रह सकते’’।

सन् 1937 में ही जिन्ना ने मुस्लिम लीग की बागडोर सम्भाली और वह उनका निर्विवाद नेता बन गया। अँग्रेज और काँग्रेस दोनों ही उसे मुसलमानों का अखिल भारतीय प्रतिनिधि मानने लगे। 1937 के चुनाव में लीग की अवस्था ‘न घर के न घाट के’ की हो गई थी जब बैरिस्टर जिन्ना ने विशुद्ध मुस्लिम अलगाववाद का राग अपनाना शुरू कर दिया । वह पक्का नमाजी बन गया। वह ईद की सामूहिक नमाजों में सम्मिलित होने लगा और खुतबा सुनने के लिए मस्जिद जाने लगा। जिस व्यक्ति ने केन्द्रीय धर्मसभा में हुंकार भरी थी कि मैं राष्ट्रवादी था, मैं राष्ट्रवादी हूँ और राष्ट्रवादी रहूँगा, उसने अब उतनी ही दृढ़ता से कहना चालू कर दिया कि -पाकिस्तान का जन्म तो उसी दिन हो गया था जब सदियों पहले प्रथम हिन्दू का मतान्तरण इस्लाम में हुआ था।

6 जुलाई 1942 को अखिल भारतीय काँग्रेस समिति ने अपनी वर्धा की बैठक में माँग की कि भारत में ब्रिटिश शासन का तुरन्त अंत होना चाहिए, नहीं तो कांग्रेस को विवश होकर विराट् जन आन्दोलन छेड़ना पड़ेगा। 8 अगस्त 1942 को मुंबई में अखिल भारतीय काँग्रेस समिति की जो बैठक हुई उसमें कार्यकारिणी के प्रस्ताव की पुष्टि की गई और गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसात्मक राष्ट्रीय संघर्ष को हरी झण्डी दिखा दी गई। यह प्रस्ताव ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के नाम से विख्यात हुआ। हिन्दू महासभा ने काँग्रेस के भारत छोड़ो आन्दोलन का समर्थन किया किन्तु सावरकर जी ने चेतावनी भी दी कि ‘‘भारत छोड़ो का अन्त कहीं भारत तोड़ो में न हो जाय’’ । ब्रिटिश सरकार ने फुर्ती से काम लिया। गांधी जी और काँग्रेस कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को बंदी बना लिया। काँग्रेस समितियों पर पाबन्दी लगा दी गई और समूचे देश में काँग्रेस के नेताओं को पकड़कर बन्दीगृह में ठूँस दिया गया। आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए कोई प्रमुख नेता बाहर नहीं रहा।

सन् 1942 के देशव्यापी आन्दोलन के समय संघ के अनेक स्वयंसेवकों एवं प्रचारकों के मनों में उसमें भाग लेने की इच्छा हुई थी। तदर्थ उन्होंने केरल में प्रचारक के नाते से कार्यरत श्री दत्तोपंत जी ठेंगडी से उन दिनों मंगलूरू के प्रवास पर गए पू. श्री गुरुजी से अनुमति दिलाने की प्रार्थना की। श्री ठेंगड़ी जी तदनुसार पू. गुरूजी से मिले। उन्होंने गुरुजी को कार्यकर्ताओं की इच्छा से अवगत कराया। पू. गुरुजी ने जो उत्तर दिया वह निम्नानुसार है -

हम अपनी प्रति प्रतिज्ञा में शपथ लेते हुए कहते हैं हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूँ। अतः देश की स्वतंत्रता के चल रहे इस आन्दोलन में उनके भाग लेने की इच्छा होना स्वभाविक है। किन्तु जिस काँग्रेस ने आन्दोलन चलाने का निश्चय किया उन्होंने यह नहीं सोचा कि देश में और भी संस्थाएँ हैं जो देश को अँग्रेजों के पाश से मुक्त कराना चाहती हैं। उन सबके साथ मिलकर एक संयुक्त रणनीति बनाई जा सकती है। हम लोगों से पूछा नहीं गया इसलिए हम क्यों भाग लें’, ऐसा मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि यदि स्वाधीनता मिलेगी तो केवल काँग्रेसियों को ही तो नहीं मिलेगी, सबको मिलेगी। किन्तु और भी एक कमी रह गई कि जब किसी आन्दोलन की रूपरेखा बनती है तो इस बात का भी विचार किया जाता है कि आन्दोलन को किन-किन स्थितियों में से गुजरना पड़ेगा और उस समय रणनीति में क्या कुछ परिवर्तन करना पडेगा। यह भी नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में संघ के नाते संघ को इस आन्दोलन से अलग रखने का निर्णय किया गया है। किन्तु स्वयंसेवक निजी हैसियत से इस आन्दोलन में भाग ले सकते हैं।

‘जो स्वयंसेवक बाहर रहेंगे उन्हें इस आन्दोलन में भाग लेने वाले बंधुओं एवं उनके परिवारों की सब प्रकार की सहायता करनी चाहिए। इसका प्रमाण स्वयं श्री अरुणा आसिफ अली हैं जो 1942 की बिजली के नाते विख्यात हुईं थीं। उन्होंने 1968 में साप्ताहिक हिन्दुस्थान को दी गई अपनी भेंटवार्ता में कहा -‘बयालीस के आन्दोलन में जब मैं भूमिगत थी तब दिल्ली के संघचालक लाला हंसराज जी ने अपने घर में दस-पन्द्रह दिन आश्रय देकर सुरक्षा का पूरा प्रबन्ध किया था। अपने यहाँ मेरे निवास का पता उन्होंने किसी को नहीं चलने दिया था। अंत में भूमिगत कार्यकर्ता को इतने दिन एक ही स्थान पर नहीं रहना चाहिए अतः उनके घर से परीवाला घाघरा और चूनरी ओढ़कर पास से गुजरने वाली एक बारात में भाँगड़ा करते-करते वहाँ से निकल आई। वह वेष लालाजी की धर्मपत्नी ने मुझे दिया था।’’ 

जिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री एटली के काल में भारत को स्वाधीनता मिली, वे सन् 1965 में एक निजी दौरे पर कलकत्ता आए थे और उस समय के कार्यकारी राज्यपाल कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री सी.डी. चक्रवर्ती के साथ राजभवन में रुके थे। बातचीत के दौरान उन्होंने सहज पूछा कि 1942 का आन्दोलन तो असफल हो चुका था और द्वितीय महायुद्ध में भी आप विजयी रहे, फिर आपने भारत क्यों छोड़ा ? तब एटली ने कहा था कि हमने 1942 के आन्दोलन के कारण भारत नहीं छोड़ा, हमनें भारत छोड़ा नेताजी सुभाषचंन्द बोस के कारण।’ नेताजी अपनी फौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इम्फाल तक आ चुके थे और तुरंत बाद नौसेना और वायुसेना में विद्रोह हो गया था।’’

इधर 16 अगस्त 1946 को मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया जिसके संबंध में जिन्ना ने कहा -‘‘हमने सबसे महत्व का ऐतिहासिक निर्णय लिया है । मुस्लिम लीग के पूरे जीवनकाल में हम क्या करते रहे ? हम केवल संवैधानिक उपायों की ही बातें करते रहे... आज हमने वैधानिक उपायों को तिलांजलि दे दी है। जिन दो पक्षों के साथ हमने मोल-तोल किया, उनसे हमारी वार्ता त्रासदयी रही। वे हमारे सामने पिस्तौल ताने खड़े रहे। एक के हाथ में राजशक्ति और मशीनगनें तो दूसरे के हाथ में असहयोग और विराट् सविनय अवज्ञा आन्दोलन का डंडा। इसका तो उत्तर देना ही होगा । हमारी जेब में भी पिस्तौल है।’’ 

16 अगस्त को प्रातःकाल लीग ने भयानक विशाल जुलूस निकाले । उनका नारा था ‘लड़ के लेंगे हिन्दुस्थान’। उसके बाद मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक विशाल सभा हुई। उसमें एक के बाद एक वक्ता ने काफिरों के खिलाफ जेहाद की घोषणा की। लौटती हुई भीड़ ने हिन्दुओं पर अत्याचार शुरू कर दिये। बड़े पैमाने पर हत्या, लूटपाट, आगजनी ओर बलात्कार किये। पूरे दो दिनों तक यह दानवता चलती रही। कोई रोकने वाला नहीं था। कलकत्ते को जीभर रौंदा गया। स्वयं मुख्यमंत्री सुहरावर्दी पुलिस नियंत्रण कक्ष में बैठकर उपद्रवों का संचालन कर रहा था। अँग्रेज गर्वनर एफ. बरोज अपने कक्ष में पत्थर बनकर बैठा रहा पर जब हिन्दुओं ने आत्मरक्षा में प्रतिप्रहार करना चालू कर दिया और गर्वनर ने देखा कि मुसलमान पिटने लगे हैं तो दंगे शान्त करने के नाम पर उसने सेना बुला ली। कलकत्ते की सड़कों पर 10 हजार से अधिक नर-नारी और बच्चों की हत्या हुई थी और बुरी तरह क्षत विक्षत लोगों की संख्या 15 हजार थी।

अक्टूबर 1946 के दूसरे सप्ताह में पूर्वी बंगाल के नोआखाली और टिपरा जिलों में भयानक अराजकता और गुंडागर्दी का ताण्डव नृत्य हुआ। आचार्य कृपलानी अपनी पत्नी सुचेता कृपलानी के साथ नोआखाली के त्रस्त गाँवों में उनका दुःख दर्द जानने गये और उनकी करुण-गाथाएँ और गुहार सुनीं। बाद में वे गर्वनर से मिले और नोआखाली के हिन्दुओं की दुर्दशा से उन्हें अवगत कराया तथा कठोर पग उठाने का आग्रह किया। गवर्नर ने संक्षिप्त सा उत्तर दे दिया कि मुख्यमंत्री ने जो वहाँ विद्यमान थे, उन्हें सूचित किया है कि स्थिति पर पूरा नियंत्रण हो गया है और नोआखाली में शान्ति-व्यवस्था फिर से स्थापित हो गई है। जब कृपलानी ने विशेष रूप से हिन्दू महिलाओं के बड़े पैमाने पर अपहरण की चर्चा की तो गवर्नर ने धृष्टता से उत्तर दिया-‘‘इसमें अस्वभाविक क्या है, हिन्दू महिलाएँ मुस्लिम महिलाओं से अधिक सुन्दर होती ही हैं।’’ यह सुनकर आचार्य कृपलानी तिलमिला उठे। उनके मनमें विचार उठा कि गवर्नर को धुन डालें। पर उन्होंने स्वतः पर नियंत्रण किया।

डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी प्रथम नेता थे जो उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में पहुँचे। उन्होंने हिन्दुओं को आत्मरक्षा का पाठ पढ़ाया। उन्हें सान्त्वना प्रदान की। गांधी जी भी ज्वाला शान्त करने और हिन्दुओं को शांत करने के लिए नेताओं के साथ नोआखाली और टिपरा पहुँचे। किन्तु दो मास के भीतर ही उन्हें समाचार मिला कि कलकत्ता और नोआखाली के नर संहार के उत्तर में बिहार में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी है तो अहिंसा सिद्धांत का अतिरेक करने वाले महात्मा गांधी हिन्दुओं के आक्रोष को ठंडा करने बिहार पहुँच गए। प्रचार ये किया गया कि बिहार का प्रतिशोध बर्बरता में नोआखाली से कम नहीं था। किन्तु स्वयं आचार्य कृपलानी ने बिहार के दंगों की उत्पत्ति के बारे में जो लिखा है वह आँखे खोलने वाला है। वे लिखते हैं - ‘‘24 नवंबर 1946 को बंगाल के पीड़ितों से सहानुभूति प्रगट करने के लिए हिन्दू लोग दीपावली को काली दिवाली के रूप में शोक दिवस के नाते मनाने वाले थे। छपरा के एक स्थानीय मुस्लिम नेता ने अपने अनुयायियों को भड़काया कि वे अपने घरों में प्रकाश जलाकर हर्ष मनाएँ। 25 नवंबर को जब बंगाल की घटनाओं का विरोध प्रगट करने के लिए हिन्दुओं ने सभा की तो पूरे बेग से दंगे भड़क उठे और पाँच दिनों तक चलते रहे।’’

आचार्य कृपलानी ने आगे लिखा-‘‘कलकत्ते के दंगों में पहले तो मुसलमानों का बोलबाला रहा।... जहाँ तक बंगाल की लीगी सरकार का संबंध था उसने मुस्लिम दंगाईयों की सहायता की। वह तभी चेती जब हिन्दुओं ने स्वयं पग उठाया। बिहार में हिन्दुओं का बहुमत था। उन्होंने मुसलमानों के आक्रमण की प्रतीक्षा नहीं की। उन्होंने मुसलमानों से प्रतिशोध लेना प्रारंभ कर दिया। उनके घरों को लूटकर जला दिया गया। कुछ की हत्या कर दी गई।’’ 

आचार्य कृपलानी ने इसके बाद बताया कि बंगाल की तुलना में बिहार में सरकार और अन्य केंद्रीय नेताओं के आचरण में आकाश-पाताल का अंतर दिखा। उन्होंने लिखा है-‘‘नोआखाली के हिन्दुओं को गांधी जी के आगमन से अपने घरों को लौटने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिला। किन्तु बिहार के मुसलमानों के बारे में वैसी बात नहीं हुई। गांधी जी के कहने से अनेक हिन्दू उनके साथ शिविरों में गए और मुसलमानों को वापस उनके ग्रामीण घरों में ले आए। हिन्दुओं ने मुस्लिम शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए चंदा दिया, यहाँ तक कि महिलाओं ने गांधी जी को अपने आभूषण दान में दे दिए, मुसलमानों को खिलाया-पिलाया और उनकी देखभाल की।’’आगे वे लिखते हैं-‘‘सहायता और पुर्नवास का काम एक मुस्लिम मंत्री अब्दुल कय्यूम अंसारी को सौंप दिया गया। परन्तु गांधी जी का काम मुस्लिम लीग के कार्यकर्ताओं के कारण, जिन्हें बिहार सरकार ने शिविर-संचालन के कार्य में लगाया था, कठिन हो गया। शीघ्र ही शिविर षड्यंत्र के अड्डे बन गए और पुर्नवास के काम में भारी रुकावट पड़ने लगी। क्योंकि लीगियों ने शरणार्थियों को इस बात के लिए मना लिया कि वे अपने घर वापस न जाएँ। उधर बंगाल के मुस्लिम लीग मंत्रिमंडल ने मुस्लिम शरणार्थियों को बिहार में अपने घर वापस जाने से रोका। वे चाहते थे कि अधिक से अधिक संख्या में बिहारी मुस्लिम शरणार्थियों को रोक लिया जाए ताकि उन्हें उन सीमावर्ती जिलों में बसाया जा सके जहाँ हिन्दुओं का बहुमत है।’’ 

अँग्रेज उस समय इस स्थिति में नहीं थे कि किए-कराए पर पानी फिर जाए और वे आनन्द से बैठे तमाशा देखते रहे। उन्होंने तो भारत छोड़ने का मन बना लिया था। किन्तु वे चाहते थे कि द्वितीय महायुद्ध में उनकी जर्जर खस्ता हालत हो जाने के कारण भारत की लूट का जो धन उन्होंने बैंकों में जमा रखा था उसे सुरक्षित बनाए रखने हेतु ऐसे किसी व्यक्ति को सामने लाया जाए जो उनके हितों के प्रति सहानुभूति रखने वाला हो। उन्होंने पं. नेहरू को चुना क्योंकि अपनी 5 वर्ष की उमर में ही वे इंग्लैण्ड चले गये थे और वहाँ के विश्वविद्यालयों में शिक्षा पूरी होने तक वे एक अँग्रेज महिला के पालकत्व में रहे। अँग्रेजों ने घोषणा की कि वे काँग्रेस अध्यक्ष को सत्ता सौंपेंगे। उस समय काँग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद थे किन्तु भारत छोड़ो आन्दोलन में चार वर्ष बंदीवास में रहने के कारण बीच में चुनाव नहीं हो पाए थे और वे ही अध्यक्ष बने रहे। उनकी इच्छा आगे भी बने रहने की थी किन्तु गांधी जी ने कहा कि वे चार साल अध्यक्ष रह चुके हैं अतः नया अध्यक्ष चुना जाएगा।

15 ब्रिटिश प्रांतों की काँग्रेस कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल का नाम, दो ने बाबू राजेंद्र प्रसाद का नाम और एक प्रांत ने आचार्य कृपलानी का नाम सुझाया। पंडित नेहरू का नाम किसी ने नहीं सुझाया। रियासतों की काँग्रेस कमेटियों में से भी केवल चार ने ही नेहरू का नाम सुझाया। यदि जनतंत्र के सिद्धांतों का सही परिपालन किया गया होता तो सरदार पटेल ही काँग्रेस के अध्यक्ष होते और वे ही देश के प्रधानमंत्री बनते। किन्तु यहाँ महात्मा गांधी ने दूसरी गलती की। उन्होंने सरदार पटेल से कहा कि वे काँग्रेस के अध्यक्ष न बनें,, जवाहर को बन जाने दें। क्योंकि उसे अध्यक्ष नहीं बनाया तो वह काँग्रेस के बाहर चला जाएगा और ज्यादा खतरनाक हो जाएगा। सरदार पटेल को अच्छा नहीं लगा क्योंकि 1927 व 1937 के बाद तीसरी बार उनका दावा खारिज किया जा रहा था। पर उन्होंने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया और इंडियन नेशनल काँग्रेस के उपाध्यक्ष बन गए।

25 जून, 1945 को शिमला में एक सम्मेलन हुआ जिसमें 11 प्रांतों के पूर्व प्रधानमंत्री केंद्रीय सभा और राज्य परिषद् के विभिन्न दलों के नेता, सिख समुदाय और दलित समुदाय का एक-एक प्रतिनिधि, मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलों के दो-दो नेता और जिन्ना और महात्मा गांधी तथा मौलाना आजाद सम्मिलित हुए। हिन्दु महासभा को जानबूझकर नहीं बुलाया गया क्योंकि वह वायसराय लार्ड वेवेल की योजना को हिन्दू-विरोधी, अजनतांत्रिक और राष्ट्रीयता को नकारने वाली मानती थी। जनसंख्या के 54 प्रतिशत तथा-कथित उच्च जातीय हिन्दुओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए काँग्रेस ने मौलाना आजाद को भेजा, उसके साथ बराबरी बताने के लिए 22 प्रतिशत मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए जिन्ना को बुलाया गया तथा 21 प्रतिशत जनसंख्या वाले तथाकथित दलितों के लिए एक प्रतिनिधि दिया गया।

25 जून 1945 को जब शिमला सम्मेलन शुरू हुआ उसी समय इग्लैण्ड के चुनाव में वहाँ का मजदूर दल भारी बहुमत से विजयी हुआ और सर क्लीमेण्ट एटली प्रधानमंत्री तथा लार्ड पेथिक लारेंस भारतीय मामलों संबंधी सचिव ‘‘सेकेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया’’ बने। लार्ड वेवेल जब उनसे चर्चा करने के बाद भारत लौटे तब चुनावों की घोषणा की और कहा कि चुने हुए नए निकायों के साथ भविष्य संबंधी सारी वार्ताएँ की जाएँगी। इसलिए सभी राजनैतिक दल चुनाव की तैयारियों में लग गए। नवंबर 1945 के अंत में केंद्रीय धारा सभा के चुनाव हुए जिसमें काँग्रेस अपने विशाल सांगठनिक ढाँचे के बल पर पूरे उत्साह के साथ चुनाव में उतरी और मुस्लिम लीग अपनी ‘पाकिस्तान निधि’ के सहारे ‘या तो पाकिस्तान या सर्वनाश’ इस नारे के साथ चुनाव में कूदी। हिन्दू महासभा के पास पैसा तो था नहीं ऊपर से कांग्रेस द्वारा साम्प्रदायिकता का बिल्ला लगाकर उसे बदनाम करने में कोई कसर नहीं रखी गई थी। फिर भी वह इस नारे के साथ कि ‘काँग्रेस को वोट देने का अर्थ होगा पाकिस्तान को वोट देना’ चुनावी संग्राम में उतरी। किन्तु स्वातंत्र्य वीर सावरकर के बीमार हो जाने के कारण इस चुनावी दंगल में उसका सफाया हो गया। श्री मानवेंद्र नाथ राय के ‘रेडीकल डेमोक्रेटिक पार्टी तथा डाक्टर बाबा साहेब अम्बेडकर की शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का भी वही हाल हुआ। मुस्लिम लीग ने काँग्रेस के सारे मुस्लिम प्रत्याशियों को हराकर धारासभा में 32 स्थान प्राप्त किये। काँग्रेस की ओर से मात्र एक मुस्लिम प्रत्याशी श्री आसफअली दिल्ली के हिन्दू बहुल क्षेत्रों से चुनकर आए। जिन्ना ने ‘गर्व’ से कहा कि जो हिटलर नहीं पा सका वह उसने पाया है।

दिसंबर 11को महात्मा गांधी ने काँग्रेस कार्यसमिति की बैठक में भाग लिया जिसमें दोगली कम्युनिस्ट पार्टी को जो जोंक की तरह जिपकी थी धता बताने का निर्णय कर लिया गया। ध्यान रहे द्वितीय महायुद्ध में जिस कम्युनिस्ट पार्टी ने नेताजी सुभाष को तोजो का कुत्ता तथा काँग्रेस को अँग्रेजों का दलाल कहा था उसी कम्युनिस्ट पार्टी की नजरों में काँग्रेस का आंदोलन तब जनता का युद्ध बन गया जब रूस का तानाशाह जोसेफ स्टेलिन पाला बदलकर ब्रिटिश-अमेरिका के खेमे में चला गया। नवंबर 1945 में बंगाल के प्रवासक्रम में गांधी जी की बंगाल के गवर्नर आर.जी. कैसे से पाँच बार भेंट एवं मुक्त चर्चा हुईं जिसके बारे में अपनी पुस्तक (एन आस्ट्रेलियन इन इंडिया अर्थात् भारत में एक आस्ट्रेलियाई) में उन्होंने लिखा-‘‘गांधी के अनेक अनुयायी उन्हें एक संत और राजनीतिज्ञ मानते हैं। वे दोनों ही नहीं है। यह कहा जा सकता है कि संतों में वे राजनीतिज्ञ हैं और राजनीतिज्ञों में संत।’’

इस सम्पूर्ण कथानक का पहला भाग स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान -
साथ ही जानें देश में राजनैतिक अस्थिरता, वैमनस्य, संघर्ष और भ्रष्टाचार का मूल कारण -
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