भारत विभाजन की व्यथा-कथा - स्व.श्री कुप.सी. सुदर्शन (भाग 1)



महात्मा गांधी के जीवन में दो भयंकर भूलें हुईं हैं। उनमें पहली है -‘खिलाफत आन्दोलन का समर्थन’ । यह ठीक है कि महात्मा गांधी ने इस आन्दोलन का समर्थन इस भावना से किया कि इस समय अँग्रेजों का विरोध कर रहे हिंदु और मुसलमान दोनों मिलकर देश को स्वतंत्र कर सकते हैं। महात्मा जी के पीछे दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह करके तत्रस्थ अफ्रीकी व भारतीय नागरिकों को समान आधिकार प्राप्त करा देने की ख्याति विद्यमान थी। पर उन्होंने जिन शौकत अली और मोहम्मद अली जैसे मौलवियों को अपने दाएँ-बाएँ रखकर सारे भारत का भ्रमण किया, वे अत्यंत कट्टरपंथी थे। उन दिनों डाक्टर हेडगेवार भी काँग्रेस में थे और उन्होंने नागपुर में आयोजित काँग्रेस के अधिवेशन की सुव्यवस्था के लिए डॉ. ना.सु.हार्डीकर के साथ मिलकर एक स्वयंसेवक दल खड़ा किया था और अधिवेशन की समाप्ति पर सभी से प्रशंशा भी पाई थी। उन्हें ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ का शब्द प्रयोग खटकता था और वे इस विषय पर महात्मा गांधी से मिले। उन्होंने प्रश्न किया कि ‘‘वास्तव में तो हिन्दुस्थान में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि अनेक लोग रहते हैं। उन सबकी एकता की कल्पना रखने के स्थान पर आप यही क्यों बोलते हैं कि हिन्दु-मुस्लिम एकता होनी चाहिए?’’ इस पर गांधी जी ने उत्तर दिया-‘‘इसके द्वारा मैंने मुसलमानों के मन में देश के संबंध में आत्मीयता उत्पन्न की है और आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि वे इस राष्ट्रीय आन्दोलन में हिन्दुओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहे हैं।

डाक्टर जी का महात्मा जी के इस उत्तर से समाधान नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि ‘‘हिन्दू-मुस्लिम एकता शब्द-प्रयोग प्रचार में आने के पूर्व भी अनेक मुसलमान राष्ट्र के संबंध में अपने प्रेम के कारण लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में काम करते थे। बैरिस्टर जिन्ना, डॉ. अंसारी, हकीम अजमल खाँ आदि कई नाम लिखे जा सकते हैं। इस नए शब्द प्रयोग से मुझे आशंका है कि मुसलमानों में एकता के स्थान पर अलगाव की भावना ही बढ़ेगी।’’ महात्माजी ने केवल इतना कहकर कि -‘‘मुझे तो ऐसी कोई आशंका नहीं है’’, डाक्टर जी से छुट्टी ले ली। किन्तु आगे के इतिहास ने बता दिया कि डाक्टर जी की आशंका ही सत्य निकली। उनकी अचूक दृष्टि से भविष्य के गर्भ में छिपी भयावह सम्भावनाएँ छिप नहीं सकती थीं। 

डाक्टर जी के जोरदार प्रचार और गरम भाषणों के कारण सरकार ने धारा 144 के अंतर्गत उनके ऊपर एक महीने का प्रतिबंध लगा दिया जिसमें किसी सार्वजानिक सभा में उपस्थित रहने या बोलने की मनाही थी और 5 व्यक्तियों से अधिक के समूह को सार्वजनिक सभा माने जाने की बात थी। डाक्टर जी ने उसे नहीं माना और इस कारण उनके विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया गया और उन पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। अँग्रेज न्यायाधीषों ने अपनी तथाकथित न्यायप्रियता की धज्जियाँ उड़ाते हुए किसी वकील को प्रतिपरीक्षण करने की स्वतंत्रता नहीं दी और जब डाक्टर साहब ने स्वतः प्रतिपरीक्षण करने की अनुमति माँगी तो उन्हें अपना उत्तर लिखित रूप में प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। अपने चतुःसूत्री लिखित प्रतिवेदन में उन्होंने प्रमुख मुद्दा यह उठाया - ‘‘मैंने अपने देशबांधवों में अपनी दीनहीन मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्तिभाव जगाने का प्रयत्न किया है। मैंने उनके हृदय में यह भाव अंकित करने का प्रयत्न किया है कि भारत भारतवासियों का ही है । यदि एक भारतीय राजद्रोह किये बिना राष्ट्रभक्ति के ये तत्व प्रतिपादित नहीं कर सकता तथा भारतीय और यूरोपीय लोगों में शत्रुभाव जगाए बिना यह साफ सत्य नहीं बोला जा सकता, यदि स्थिति इस कोटि तक पहुँच गयी है तो यूरोपीय तथा वे जो अपने आपको भारत सरकार कहते हैं, उन्हें सावधान हो जाना चाहिए कि उनके ससम्मान वापस चले जाने की घड़ी आ गई है।’’ इस पर न्यायाधीश की टिप्पणी थी कि-‘‘उनके मूल भाषण से यह प्रतिवाद ही अधिक राजद्रोहात्मक है।’’ किसी भी प्रकार की जमानत व मुचलका देने से इन्कार करने पर न्यायाधीश ने एक वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुना दी।

12 जुलाई 1922 को डाक्टर जी कारागृह से छूटे। असहयोग आन्दोलन इसके पूर्व ही बन्द हो चुका था और गांधी जी बंदी बना लिये गये थे। उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा नामक स्थान पर 5 फरवरी को एक क्रुद्ध भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला करके इक्कीस सिपाहियों और एक अधिकारी को मार डाला था और चौकी को आग लगा दी थी। इससे व्यथित होकर गांधी जी ने 12 फरवरी को असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया था। डाक्टर जी के सम्मान में उसी दिन एक स्वागत सभा व्यंकटेष नाट्यगृह में हुई जिसमें पं. मोतीलाल नेहरू, श्री विट्ठलभाई पटेल, हकीम अजमल खाँ, डॉ. अंसारी, श्री राजगोपालाचारी, श्री कस्तूरीरंगन अयंगार आदि उपस्थित थे। श्री ना.भा. खरे की अध्यक्षता में हुई इस सभा में डाक्टर जी के स्वागत का प्रस्ताव रखा गया जो तालियों की गड़गड़ाहट के बीच स्वीकृत हुआ। तत्पश्चात पं. मोतीलाल नेहरू व हकीम अजमल खाँ बोले और बाद में अपने स्वागत का उत्तर देते हुए डाक्टर जी ने अपने भाषण में कहा... ‘‘पूर्ण स्वतंत्रता से कम कोई भी लक्ष्य अपने सम्मुख रखना उपयुक्त नहीं होगा। ...स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए मृत्यु भी आई तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यह संघर्ष उच्च ध्येय पर दृष्टि तथा दिमाग ठण्डा रखकर चलाना चाहिए।’’1

डाक्टर जी जब जेल से छूटे तो मुसलमानों के मुँह से ‘वन्देमातरम्’ के स्थान पर ‘अल्लाहो अकबर’ के नारे गूँज रहे थे तथा सभाओं में मुल्ला-मौलवी ‘काफिरों’ के वध तथा ‘जिहाद’ का आदेश देने वाली कुरान शरीफ की आयतों को पढ़-पढ़ कर सुनाते थे। उन्होंने अलगाव का विषैला प्रचार बड़े जोरों से प्रारंभ कर दिया था। उस प्रचार का सामान्य मुसलमानों पर क्या असर हुआ यह दिखाने वाली एक घटना है। डाक्टर जी एक परिषद् के लिए जा रहे थे । वे उन दिनों सफेद खद्दर की टोपी पहनते थे। किन्तु उनके साथ जाने वाले श्री समीउल्ला खाँ के सिर पर लाल तुर्की टोपी थी। जब डाक्टर जी ने पूछा कि तुर्की टोपी, क्यों सफेद टोपी क्यों नहीं ? तो खाँ साहब का उत्तर था-‘‘मैं पहले मुसलमान हूँ तथा यह टोपी उसी की निषानी है। यह हमारी राष्ट्रीयता का प्रतीक है। अतः इसे छोड़ने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता।’’ इसी मानसिकता की परिणति मलाबार में मोपलाओं के विद्रोह के रूप में हुई।

इसका भयंकर और हृदयविदारक परिणाम केरल को भोगना पड़ा। सन् 1921 तक खिलाफत आन्दोलन पूरी तरह ठप्प हो चुका था। यह आन्दोलन भारत की भूमि पर तो जन्मा नहीं था अतः स्वाभाविक था कि उतनी ही तेजी से मुरझा जाता जितनी तेजी से वह उभरा था। लेकिन केरल में वहाँ के अपढ़ मोपलाओं में यह विषैला प्रचार किया गया कि ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया है और खिलाफत फिर से स्थापित हो गई है। अब समय आ गया है कि सभी काफिरों को समाप्त कर दारुल इस्लाम की स्थापना कर दी जाए। केरल के मुसलमानों ने शीघ्र ही किसी मोहम्मद हाजी को अपना खलीफा बना दिया और जेहाद की घोषणा कर दी। पहले तो उनका क्रोध अँग्रेजों पर उतरा। उग्र टक्करें प्रारंभ हो गईं। मोपला विस्फोट की भयंकरता का अनुमान इन आँकड़ों से लगाया जा सकता है।


मोपला विद्रोह में 2226 दंगाई मारे गए, 1615 घायल हुए, 5688 बंदी बनाए गए तथा 38,656 ने आत्मसमर्पण किया। अँग्रेजों से हारने के बाद कुंठित मोपलाओं ने निश्चिन्त बैठे हिन्दुओं पर अपना पूरा क्रोध उतारा। जो ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ की मीठी-मीठी लोरियों में सोये हुए थे वे सरलता से मोपला क्रोध के षिकार हो गए क्योंकि उनकी दृष्टि में हिंदु भी उतने ही काफिर थे जितने अँग्रेज। भारत सेवक मंडल की जांच समिति के प्रतिवेदन के अनुसार 1500 हिन्दू मार दिये गये, 20 हजार बलात् मुसलमान बना लिये गये और तीन करोड़ की सम्पत्ति लूटी गई। हिन्दू महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और उनके अपहरण का तो कोई ठिकाना ही नहीं रहा। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने कहा-‘‘मुसलमानों ने जीभरकर हत्याएँ की, लूटपाट की और सभी हिन्दुओं को मार डाला अथवा खदेड़ दिया गया। उस समय उनके तन पर केवल उनके कपड़े ही बचे थे। शेष सब छीन लिया गया था।’ किन्तु महात्मा गांधी ‘हिन्दु-मुस्लिम एकता’ की रणनीति में यहाँ तक चले गए कि उन्होंने मोपला दंगाइयों के संबंध में कहा ‘वे धर्मभीरु वीर लोग हैं जो उसके लिए युद्ध कर रहे हैं जो उनके विचार में धर्म है और उस रीति से युद्ध कर रहे हैं जो उनके विचार में धर्म-सम्मत है।’’ यही नहीं, कांग्रेस ने जो प्रस्ताव पारित किया उसमें कहा गया-‘‘जिन हिन्दु कुटुम्बों का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन किया गया वे माजेरी के रहने वाले थे तथा जिन धर्मान्ध व्यक्तियों ने यह कृत्य किया उनका खिलाफत तथा असहयोग आन्दोलन से विरोध था। यह भी जानकारी मिली है कि उसमें केवल तीन परिवारों के ऊपर ही यह जबरदस्ती की गई दिखती है।’’ कहाँ बीस हजार और कहाँ तीन परिवार।

अली बन्धुओं में से किसी ने अलगाववादी मुस्लिम आकांक्षाओं के प्रति अपनी आबद्धताओं को कभी नहीं छिपाया। मोहम्मद अली ने 1923 में काँग्रेस के अध्यक्ष पद से अलगाववादी मुस्लिम राजनीति के हर कार्य को उचित ठहराया। अली बन्धुओं ने एक बार नहीं अनेक बार अपनी निष्ठा निखिल इस्लामवाद के सिद्धांत के प्रति व्यक्त की थी। जब स्वदेशी के प्रसार के अंतर्गत विदेशी कपड़ों की होली जलाने का कार्यक्रम देशभर में चल रहा था तब खिलाफत के समर्थक मुसलमानों ने गांधी जी से यह अनुमति ले ली थी कि वे सभी विदेशी कपड़े तुर्क भाइयों के प्रयोग के लिए भेज दिए जाएँ। इससे स्वामी श्रद्धानंद को गहरा आघात लगा। दिसंबर 1922 में अहमदाबाद में खिलाफत आन्दोलन की अध्यक्षता करते हुए अजमल खाँ ने अखिल भारतीय साम्राज्य का भविष्य उज्वल बताते हुए कहा कि -‘‘एक ओर भारत और दूसरी ओर एशिया माइनर भावी इस्लामी महासंघ की लम्बी श्रृंखला के दो सिरे हैं। शनःशनः ये सिरे सभी मध्यवर्ती राज्यों को एक महासूत्र में पिरोने जा रहे हैं।’’

1924 में मौलाना मोहम्मद अली ने अलीगढ़ और अजमेर में एक विस्मयकारी वक्तव्य दे डाला कि-‘‘गांधी का चरित्र कितना भी शुद्ध क्यों न हो, धर्म की दृष्टि से वह मुझे किसी चरित्रहीन मुस्लिम से भी निकृष्ट दीख पड़ता है।’’ एक वर्ष बाद जब उनसे लखनऊ की सार्वजानिक सभा में प्रश्न किया गया तो उन्होंने अपने कथन को सत्य बताते हुए पुनः कहा कि - ‘‘अपने धर्म और विश्वास के अनुसार मेरी मान्यता है कि एक व्यभिचारी और पतित मुसलमान भी गांधी से श्रेष्ठ है।’’7 इस खिलाफत आन्दोलन के दुष्परिणामों की कथा यहीं समाप्त नहीं हुई । समय के साथ-साथ उसने नये-नये भयानक आयाम ग्रहण कर लिये। 1924 के बाद देशभर में दंगे शुरू हो गये। उस पर महात्मा गांधी की प्रतिक्रिया थी-‘‘मेरा निजी अनुभव इसी विचार की पुष्टि करता है कि मुसलमान स्वभाव से आक्रामक होता है और हिन्दू कायर।’’ हिन्दू को अपनी कायरता के लिए मुसलमानों को दोषी ठहराना चाहिए क्या ? कायर तो सदा पिटता ही रहेगा।... मुझे मुसलमान के अत्याचार पर उतना क्षोभ नहीं है, लेकिन एक हिन्दू के नाते मैं उनकी कायरता से लज्जित हूँ।’’

9 सितम्बर 1924 के बाद कोहाट और देश के अनेक स्थानों पर हुए दंगों ने गांधी जी को दुःखी कर दिया। कोहाट के हिन्दुओं पर अत्याचार हुए और हत्या, बलात्कार, लूट, अपहरण आदि का तांडव नृत्य हुआ। गांधी जी वहाँ के लोगों का दुःख-दर्द जानने के लिए कोहाट जाना चाहते थे। किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली। तब मौ. शौकत अली के साथ रावल पिंडी पहुँचे जहाँ सभी हिन्दुओं को शरण लेनी पड़ी थी। जब वे वहाँ पहुँचे तो पाया कि कोहाट से एक भी मुसलमान नहीं आया है। किन्तु दोनों ने जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किये उनमें भारी विरोधाभास था । गांधी जी ने कहा कि- ‘‘हिन्दू लोग हिन्दू पुरुषों और महिलाओं के धर्मांतरण से अप्रसन्न थे।’’, जबकि शौकत अली ने लिखा मुस्लिम जनकोप से रक्षा के लिए ही शुभचिन्तक मुसलमानों ने हिन्दुओं की चुटिया कटवाई और उन्हें मुस्लिम टोपी पहनाई।’’ शौकत अली ने दंगों के लिए हिन्दू और मुसलमान दोनों को बराबर का दोषी ठहराया।

गांधी जी ने कोहाट और अन्य स्थानों पर हुए दंगों से दुःखी होकर प्रायश्चित स्वरूप 21 दिन का उपवास रखा। उपवास के मध्य श्री महादेव भाई देसाई ने कि ‘वे अपनी किस गलती का प्रायश्चित कर रहे हैं ?’ तो गांधी जी का उत्तर था।-‘‘मेरी गलती ? क्यों, क्या मुझ पर यह लांछन नहीं लगाया जा सकता है कि मैंने हिन्दुओं के साथ विश्वासघात किया है ? मैंने उनसे कहा कि वे अपने पवित्र स्थानों की रक्षा के लिए अपना तन, मन, धन, मुसलमानों को सौंप दें। आज भी उनसे यह कह रहा हूँ कि वे अपने झगड़े अहिंसा के मार्ग पर चलकर निपटाएँ, भले ही वे मर जाएँ पर मारें नहीं।... मैं किस मुँह से कहूँ कि हिन्दू हर स्थिति में धैर्य धारण करें क्योंकि मैंने उन्हें आश्वासन दिया था कि मुसलमानों से मैत्री के अच्छे परिणाम निकलेंगे।... उस आश्वासन को मैं पूरा नहीं कर सका। मेरी कोई नहीं सुनता । किन्तु आज भी मैं हिन्दुओं से यही कहूँगा कि-‘‘भले ही मर जाओ पर मारो मत।’’ इलाहाबाद, लखनऊ तथा अन्य स्थानों पर भड़के दंगों में उपवास टूटने पर जब आपसी सौहार्द स्थापित करने के लिए एकता सम्मेलन बुलाया गया तो दिल्ली के मुसलमानों ने गांधी जी को पंच मानने से इन्कार कर दिया । गांधी जी ने एकान्त में स्वीकार किया कि मुस्लिम विरोध के कारण ही एकता वार्ता असफल हुई।

गांधी जी कि इस एकतरफा अहिंसा के दुष्परिणामस्वरूप जहाँ हिन्दु अपने आपको अधिकाधिक असुरक्षित अनुभव करने लगा वहाँ मुस्लिम धर्मान्धता अधिकाधिक कट्टर बनती गई। 23 दिसम्बर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद रुग्ण शैया पर लेटे थे। अब्दुल रशीद नाम का एक मुस्लिम युवक उनसे मिलने आया। उसने एक ग्लास पानी माँगा। जब सेवक पानी लेने चला गया तो रशीद ने अपना रिवाल्वर निकाला और स्वामी जी पर चार बार गोलियाँ चलाई और रुधिर से लथपथ बिस्तर पर ही स्वामी जी ने अंतिम साँस ली। जब अब्दुल रशीद पकड़ा गया और उस पर अभियोग चलाया गया तो मुसलमानों ने उसके बचाव के लिए काफी पैसा इकट्ठा किया। काँग्रेस के एक प्रमुख सदस्य आसिफ अली ने उसकी पैरवी की। अन्ततः रशीद का दोष सिद्ध हो गया और उसे फाँसी दे दी गई। उसकी शवयात्रा में पचास हजार से भी अधिक मुसलमान सम्मिलित हुए और मस्जिदों में विशेष नमाज अदा की गई। जमीयत-उल-उलेमा के अधिकृत मुखपत्र में तरह-तरह के तर्क देकर रशीद को ‘शहीद’ के सिहासन पर बैठाने का प्रयास किया गया। 30 नवंबर 1927 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार-‘‘स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद की आत्मा को जन्नत में स्थान दिलाने के लिए देववन्द के प्रसिद्ध इस्लामी कॉलेज के छात्रों और प्रोफसरों ने कुरान की पूरी आयतों का पाँच बार पाठ किया और निश्चय किया कि कुरान की आयतों के प्रतिदिन सवालाख पाठ किये जाएँ। उन्होंने दुआ मांगी कि-‘‘अल्लाह मरहूम (रशीद) को अलाये-इल्ली-ईम (सातवें बहिश्त की चोटी) में स्थान दे।’’ पर महात्मा गांधी की क्या प्रतिक्रिया थी ?

1926 में गुवाहाटी काँग्रेस में स्वामी जी के प्रति श्रद्धांजलि प्रस्ताव महात्मा गांधी ने प्रस्तुत किया और उसका अनुमोदन मोहम्मद अली ने किया। पट्टाभिसीतारमैया के अनुसार स्वामी की हत्या पर प्रकाश डालते हुए गांधी जी ने सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए कहा-‘‘अब शायद आप समझ गए होंगे कि किस कारण मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूँ। मैं तो उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता । वास्तव में दोषी तो वे हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा फैलाई।’’ गांधी जी के इसी एकतरफा अहिंसावाद ने भगत सिंह आदि देशभक्तों की जीवन रक्षा वाली याचिका पर उन्हें हस्ताक्षर नहीं करने दिया क्योंकि उनके अनुसार वे हिंसा में प्रवृत्त थे। इसी मानसिकता के कारण उन्होंने शिवाजी, राणा प्रताप तथा गुरुगोविन्द सिंह को पथभ्रष्ट देशभक्त कहा था।’’ किसी भी सद्गुण का अतिरेक भी दुष्परिणामी होता है।

कहा है कि -

अतिदानात् बलिर्बद्धो, अतिमानात् सुयोधनः।
विनष्टो रावणोलौल्यात्, अति सर्वत्र वर्जयेत्।।

(दान की अति करने से बलि राजा बद्ध हो गये, अत्यधिक घमंड करना दुर्योधन के लिए मँहगा पड़ा, अति कामातुरता के कारण रावण विनष्ट हुआ। अतः अति को टालना चाहिए।)

गांधी जी की एकतरफा अहिंसा की अति के परिणामस्वरूप मुस्लिम अलगाववाद का जो दानव खड़ा हुआ। वह आगे और आगे ही बढ़ता ही गया। स्वामी श्रद्धानन्द का अपराध (?) यही था कि हिन्दुओं के मतांतरण की बाढ़ रोकने लिए उन्होंने शुद्धि आन्दोलन चलाया था। उनके अदम्य साहस, सन्त स्वभाव और ओजस्वी भाषणों के कारण हजारों मतान्तरित लोग पुनः हिन्दू बनने लगे और 1923 की प्रथम छःमाही में ही संयुक्त प्रान्त के कुछ भागों में 18 हजार से अधिक मुसलमानों का परावर्तन हुआ। मुस्लिम मुल्लाओं को लगा कि उनके पैरों के नीचे की धरती खिसकने लगी है और वे इस्लाम विरोधी अभियान के लिए स्वामी जी को कोसने लगे। उनका सीधा तर्क था- ‘‘तब्लीग अर्थात् इस्लाम में मतांतरण उनका एक धार्मिक कर्तव्य-भार है जो कुरान ने उन पर डाला है। उनके इस एकमात्र दैवी अधिकार पर हिन्दु परावर्तन कर अपना अधिकार नहीं जता सकते।’’
आगे पढ़ें जिन्ना का अभ्युदय और डायरेक्ट एक्शन के नाम पर हुए नरसंहार की गाथा -

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