क्यों सत्य के लिए प्यासा अचानक भारत में उत्सुक हो उठता है ?

यह संयोग मात्र ही नहीं है कि जब भी कोई सत्य के लिए प्यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्सुक हो उठता है, अचानक वह पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है जितने पुराने प्रमाण और उल्लेख मौजूद हैं। आज से पच्चीस सौ वर्ष पूर्व, सत्य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था।

ईसामसीह भी भारत आए थे। ईसामसीह की तेरह से तीस वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्लेख नहीं है और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्योंकि तैंतीस की उम्र में तो उन्हें सूली पर ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से तीस तक के सत्रह सालों का हिसाब गायब है! इतने समय वे कहां रहे, और बाइबिल में उन सालों को क्यों नहीं रिकार्ड किया गया ? उन्हें जान-बूझकर छोड़ा गया है, कि वह एक मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसामसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्मे, यहूदी की तरह जिए, और यहूदी की तरह मरे। स्मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्होंने तो ईसा’ और‘ईसाई’ ये शब्द भी नहीं सुने थे। फिर क्यों उनके इतने खिलाफ थे ? यह सोचने जैसी बात है,आखिर क्यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक ठीक जवाब है, न ही यहूदियों के पास, क्योंकि इस व्यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। वे उतने ही निर्दोष थे,जितनी कि कल्पना की जा सकती है।

पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्म था। पढे लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्पष्ट देख लिया कि वे पूरब से विचार ला रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ला रहे हैं और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्हें समझ आएगा कि क्यों वे बार-बार कहते हैं - ” अतीत के पैगम्बरों ने तुमसे कहां था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे, तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्थर से देने को तैयार रहना, लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है, तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।’’ यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।

वे जब भारत आए थे, तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए, पर ने इतना विराट आंदोलन,इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्क उसमें डूबा हूआ था | उनकी करुणा, क्षमा, और प्रेम के उपदेशों को पिए हुआ था। जीसस कहते हैं कि ”अतीत के पैगम्बरों द्वारा यह कहां गया था” | कौन, हैं ये पुराने पैगम्बर ? वे सभी प्राचीन यहूदी पैगम्बर हैं - इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस, - ”कि ईश्वर बहुत ही हिंसक है, और वह कभी क्षमा नहीं करता !? ”

यहां तक कि उन्होंने ईश्वर के मुंह से भी ये शब्द कहलवा दिए हैं। पुराने टेस्टामेंट के ईश्वर के वचन हैं, ”मैं कोई सज्जन पुरुष नहीं चाचा नहीं। मैं क्रोधी और ईर्ष्यालु और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं हैं, वे सब मेरे शत्रु हैं।’’
और ईसामसीह कहते है कि ‘’मैं तुमसे कहता हूं - परमात्मा प्रेम है।’’ यह खयाल उन्हें कहां से आया कि परमात्मा प्रेम है ? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाय दुनिया में कहीं भी परमात्मा को प्रेम कहने का कोई और उल्लेख नहीं है।

उन सत्रह वर्षों में जीसस इजिप्त, भारत, लद्दाख, और तिब्बत की यात्रा करते रहे। और यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परम्परा में बिलकुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं से एकदम विपरीत थीं।

तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि अंततः उनकी मृत्यु भी भारत में हुई। और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे, तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्या हुआ ? आजकल वे कहां हैं ? क्योंकि उनकी मृत्यु का तो कोई उल्लेख है ही नहीं !

सचाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्योंकि यहुदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब अडतालीस घंटे लग जाते हैं। चूकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं, तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्वस्थ है तो साठ घंटे से भी ज्यादा लोग जीवित रहे ऐसे उल्लेख हैं। औसत अड़तालीस घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

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यह एक मिलीभगत थी (जीसस के शिष्यों की) पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वह रोमन वायसराय था। क्योंकि जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्य के आधीन था, और इस निर्दोष युवक की हत्या में उसे कोई रुचि नहीं थी। उसके दस्तखत के बगैर यह हत्या नहीं हो सकती थी, और उसे अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए, वह एक जीसस मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था - यदि वह जीसस को छोड देता है, तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा, और यदि वह इस व्यक्ति को सूली देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा मगर उसके स्वयं के अंतःकरण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्यक्ति की हत्या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो उसने शिष्यों के साथ यह व्यवस्था की कि शुक्रवार को, जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूकि सूर्यास्त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार के कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्थगित किया जाता रहा, ब्यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया, और सूर्यास्त के पूर्व ही उन्हें जीवित उतार लिया गया, यद्यपि वे बेहोश थे, क्योंकि शरीर से रक्त स्राव हुआ था, और कमजोरी आ गई थी। फिर जिस गुफा में उनकी देह को रखा गया वहां का चौकीदार रोमन था | पवित्र दिन के पश्चात् यहूदी उन्हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे, मगर वह चौकीदार के कारण यह संभव हो सका उसके बाद शिष्यगण जीसस को बाहर निकाल लिए और फिर जूडिया के भी बाहर गए।

जीसस ने भारत में आना क्यों पसंद किया?

क्योंकि अपनी युवावस्था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्होंने अध्यात्म का और ब्रह्म का परम स्वाद इतनी निकटता से चखा था, कि उन्होंने वहीं लौटना चाहा। तो जैसे ही स्वस्थ हुए वे वापस भारत आए और फिर एक सौ बारह साल की उम्र तक जिए।

काश्मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रु भाषा में है। स्मरण रहे भारत में कोई यहूदी नहीं रहते। उस शिलालेख पर खुदा है ”जोशुआ” - वह हिब्रु भाषा में ईसामसीह का नाम है।’जीसस’ ‘जोशुआ’ का ग्रीक रूपांतरण है।’

जोशुआ यहां आए’

समय, तारीख वगैरह सब दी हैं।’ एक महान सद्गुरु, जो स्वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्यों के साथ शांतिपूर्वक एक सौ बारह साल की दीर्घायु तक यहां रहे।’ इसी वजह से वह स्थान ‘भेड़ों के चरवाहे का गांव’ कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है - ‘पहलगाम’, उसका काश्मीरी में वही अर्थ है- ‘गड़रिए का गांव ‘।

वे यहां रहना चाहते थे, ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्होंने मरना भी यहीं चाहा, क्योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां जीवन एक सौंदर्य है, और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां मरना भी अत्यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

इससे भी अधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में आकर देह त्यागी। उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सद्गुरु मूसा के बगल वाला स्थान स्वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्यों काश्मीर में आकर मृत्यु में प्रवेश किया?

मूसा ईश्वर के देश ‘इजराइल’ की खोज में यहूदियों को इजिप्त के बाहर ले गए थे। उन्हें चालीस वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्होंने घोषणा की कि ‘यही है वह जमीन, परमात्मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं तथा अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालो, अब तुम संभालो ।’ क्योंकि जब उन्होंने इजिप्त से यात्रा प्रांरभ की थी, तब की पीढ़ी लगभग समाप्त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए नए बच्चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ शुरुआत की थी, वह अब बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थे। उन्होंने युवा लोगों को शासन और व्यवस्था का कार्यभार सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्त्रों में भी, उनकी मृत्यु के संबंध में, उनका क्या हुआ इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। हमारे यहां (काश्मीर में) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रु भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।

मूसा भारत आना क्यों चाहते थे ? 

केवल मृत्यु के लिए ? कई रहस्यों में से एक रहस्य यह भी है कि यदि तुम्हारी मृत्यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं वरन् भगवत्ता की ऊर्जा-तरंगें हों, तो तुम्हारी मृत्यु भी एक उत्सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से, सारी दुनिया से साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्वी पर कहीं और नहीं है। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।

लतीफा, तुम ठीक कहती हो। सिर्फ थोड़ा और खुलो, शांत और शिथिल होओ, थोड़ा और समर्पण की भावदशा में डूबो, तो मनुष्य के लिए जो बड़े से बड़ा संभव है- ऐसा महानतम खजाना यह गरीब देश तुम्हें दे सकता है।
आज इतना ही।

- ओशो (‘रजनीश उपनिषद्’ से अनुवादित एक प्रश्नोत्तर— प्रवचनांश)

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