१८५७ के खलनायक या एक विवश तरुण जयाजीराव सिंधिया !



बेशक महादजी सिंधिया अत्याधिक प्रभावशाली नायक थे, किन्तु दुर्भाग्य से उनके कोई संतान नहीं थी, अतः 1794 में उनके स्वर्गवास के उपरांत उनके अल्प वयस्क भतीजे दौलत राव को ग्वालियर व सिंधियाओं के अधिपत्य के मालवा का नया शासक बनाया गया | दौलत राव पानीपत के युद्ध में मारे गए तुकोजी के नाती थे । यह वह समय था, जब मध्य भारत अत्याधिक अशांत था | जहाँ एक ओर पिंडारियों के आक्रमण, सिंधिया और होल्कर दोनों की सेनाओं को लगातार झेलने पड़ते थे वहीँ दूसरी ओर मराठों में भी आपसी सत्ता संघर्ष छिड़ा हुआ था | 

केन्द्रीय सत्ता पुणे में पेशबा माधवराव की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के प्रश्न पर दो गुट बन गए | बाजीराव द्वितीय और नाना फड़नवीस के बीच विवाद में होलकर ने नाना फड़नवीस का साथ दिया, तो दौलत राव, बाजीराव के सहयोगी बने । अंतिम परिणति युद्ध में हुई, जिसमें होलकर यशस्वी हुए व दौलत राव सिंधिया को नीचा देखना पड़ा | दुर्भाग्य ने दौलतराव का इतने पर ही पीछा नहीं छोड़ा, उन्हें द्वितीय आंग्ल-मराठा-युद्ध में भी अंगरेजों के हाथों परास्त होकर संधि करनी पडी | यह संधि सुर्जीअर्जन गाँव संधि के नाम से जानी जाती है, इसमें सिंधिया के अधिपत्य के बड़े भूभाग पर अँगरेजों का अधिपत्य हो गया । हाँ इस संधि से इतना अवश्य हुआ कि अंग्रेजों के भय से पिंडारियों का आतंक अवश्य शांत हो गया । नाना फड़नवीस के देहांत के बाद महाराष्ट्र का विराट मराठा साम्राज्य धीरे धीरे अस्ताचल को जा रहा था | इसी दौरान शक्तिहीन हो चुके दौलत राव की भी १८२० में मृत्यु हो गई।

जो भी हो सिंधिया राजघराने की राजधानी ग्वालियर के संस्थापक के रूप में दौलत राव महत्वपूर्ण हैं । मध्यक्षेत्र में मराठाओं के प्रवेश के शुरुआती दौर में उनका मुख्यालय उज्जैन था, और बाद में जब सिंधिया वंश की कीर्ति पताका दिगदिगंत में फहरा रही थी, तब महादजी सिंधिया, लगातार दिल्ली और पुणे के बीच मशगूल थे | 19 वीं सदी के प्रारम्भ में दौलत राव ही थे, जिन्होंने ग्वालियर किले के दक्षिण में एक स्थान पर स्थाई रूप से अपना सैन्य छावनी बनाई | चूंकि सैन्य छावनी को लश्कर कहा जाता है, अतः उस क्षेत्र को आज भी ग्वालियर के सर्वाधिक विकसित क्षेत्र लश्कर के नाम से ही जाना जाता है ।

निसंतान दौलत राव की मृत्यु के बाद उनकी विधवा, महाराणी बैजा बाई ने एक दूर के रिश्तेदार दो वर्षीय मगत राव को गोद लेकर उनके नाम से शासन सूत्र संभाले । बाद में मगत राव को जनकोजी के रूप में जाना गया । उनका सोलह वर्षीय शासनकाल भी संघर्ष पूर्ण ही रहा व उनके तत्कालीन अंग्रेज रीजेन्ट के साथ लंबे समय तनावपूर्ण संबंध रहे ।

महज पच्चीस वर्ष की आयु में, 1843 में जनको जी राव के देहांत के समय उनकी विधवा ताराबाई की उम्र केवल तेरह वर्ष थी | स्वाभाविक ही वे निसंतान भी थीं | महाराज को मरणासन्न देखकर अंग्रेज कूटनीति को समझने वाले सरदार आंग्रे ने त्वरित निर्णय लिया | वे उस मैदान में पहुंचे जहाँ मराठा सरदारों के बच्चे कंचे खेल रहे थे | सरदार आंग्रे ने देखा कि उनमें से एक आठ वर्षीय वालक का निशाना बहुत अचूक होता है | उन्होंने तुरंत उस बच्चे को अपने साथ घोड़े पर बैठाया और राजमहल लेकर पहुंचे | रियासत बचाने के लिए मराठा सरदार हनुमंत राव का वह बेटा भागीरथ राव, महाराज जनकोजी राव ने मृत्युशैया पर ही गोद लिया, और महाराज की मृत्यु के बाद उन्हें जयाजीराव के नाम से नया महाराज घोषित कर दिया गया |

लेकिन ब्रिटिश सरकार ने नए महाराज को मान्यता नहीं दी और प्रशासक के रूप में अपने एक बफादार दिनकर राव राजबाड़े को नियुक्त कर दिया | उसी दौरान शुरू हुआ १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम, जिसमें विवादास्पद भूमिका की वजह से उस समय का वह २२ वर्षीय तरुण विवादास्पद बन गया |

सिंधिया समर्थकों का आज भी यह मानना है कि उस समय तक जयाजीराव महाराजा घोषित नहीं हुए थे और उनके पास कोई कार्यकारी अधिकार नहीं थे | अतः उस समय के जो भी निर्णय हुए वह अंग्रेजों द्वारा नियुक्त दिनकर राव राजबाड़े द्वारा लिए गए | इतना ही नहीं तो दिनकरराव राजबाड़े की चालाकी की वजह से नाबालिग जयाजीराव को महाराजा की मान्यता के नाम पर अंग्रेजों से मोहना में एक संधि करनी पड़ी थी, जिसमें सिंधिया सेना को युद्ध की हालत में अंग्रेजों का साथ देने की शर्त थी।

किन्तु कुछ बातें हैं जो जयाजीराव को कठघरे में खड़ा करती हैं | जब रानी लक्ष्मी बाई का सैन्यदल ग्वालियर आया तो सिंधिया की निजी सेना की सहानुभूति उनके साथ थी | और उसका बड़ा हिस्सा स्वतंत्रता सेनानियों के साथ जा मिला । लिहाजा ग्वालियर पर महारानी लक्ष्मीबाई का कब्जा हो गया। इतना ही नहीं तो सिंधिया के खजांची अमरचंद बांठिया ने शाही खजाने से जरूरत का धन भी इन सेनानियों को प्रदान कर दिया ।

तब दिनकरराव राजबाड़े ने संधि का हवाला देकर अंग्रेज सेना का सेनापति जयाजीराव को घोषित कर दिया। और इसके साथ ही बाजी पलट गई और राजभक्त सिंधिया सेना ने महारानी लक्ष्मीबाई का साथ छोड़ दिया | इसके आगे का इतिहास तो भारत का बच्चा बच्चा जानता है कि महारानी लक्ष्मीबाई का बलिदान हुआ और उनकी मदद करने वाले खजांची अमरचंद बांठिया को ग्वालियर के सराफा बाजार में एक पेड़ पर सार्वजनिक रूप से फांसी दी गई ।

हालांकि इसके बाद भी अंग्रेजों ने लम्बे समय तक जयाजीराव को महाराज घोषित नहीं किया और प्रशासन यथावत राजबाड़े चलाते रहे | आखिरकार ईस्ट इंडिया कंपनी ने 15 लाख रुपए वसूल करने के बाद 1885 में उन्हें महाराजा के अधिकार सौंपे, साथ ही २१ तोपों की सलामी और जोर्ज की उपाधि भी । यह अलग बात है कि उसके एक वर्ष बाद ही 1886 में महाराजा जयाजी राव की मृत्यु हो गई !

एक अधिकार विहीन राजा को खलनायक भी माना जा सकता है और विवश भी | जैसा जिसका द्रष्टिकोण ! 

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