गीता ज्ञानयोग - स्वामी सत्यमित्रानंद जी गिरी


· जब कोई मूर्छित हो जाता है, तब उसको सचेत करने के लिए जोर से पानी के छींटे भी दिए जाते हैं | जब किसी साधक पर प्रभुकृपा होती है, भगवान भी एक दो बार ऐसा ही कुछ करते हैं | भगवान जब झटकते हैं, तो कालान्तर में जमी हुई धूल और बुद्धि के ऊपर पडा हुआ आवरण हट जाता है, और धीरे धीरे विवेक जागने लगता है, मूर्छा खुल जाती है और साधक अपनी साधना में तत्पर हो जाता है | होश में आये अर्जुन ने अपनी व्यथा भगवान को सुनाई |

· क्षतात त्रायते ईति क्षत्रियः जो धर्म और समाज को क्षति से बचाता है, वह क्षत्रिय |

· परमात्मा के अचिन्त्य भाव में तर्क न लगाते हुए साधना के साम्राज्य में प्रविष्ट होकर अनुभव करने से ही कुछ प्राप्त हो सकता है | मानव का बाह्य ज्ञान कितना ही बढ़ा चढ़ा हो, प्रकृति की सूक्ष्म बात समझना कई बार कठिन होता है | कई बार परिवार के छोटे से बालक का ऊटपटांग प्रश्न के उत्तर देने में भी दिमाग चकरा जाता, तो फिर परमात्मा की लीलाओं की समीक्षा करते बैठना कहाँ तक उचित है | श्रद्धा की बेल को सदा हरी भरी रखिये | विश्वास के बटवृक्ष पर उसे चढने दीजिये, कुतर्क की केंची से उसे काटने का यत्न मत करिए | यदि आप ऐसा कर सकेंगे तो आपको सुख मिलेगा, आनंद मिलेगा |

· एक सज्जन प्रतिदिन एक महात्मा के पास सत्संग को जाया करते थे | उनके मन में आया कि जबतक ये महात्मा यहाँ हैं, इनकी कुछ सेवा की जाए | अतः प्रतिदिन वे महात्मा जी के लिए घर से दूध लाने लगे | किन्तु परिवार का संचालन करने वाली जीवन संगिनी इतनी आस्थावान नहीं थी | साधू संतों पर उनकी कोई विशेष श्रद्धा नहीं थी, किन्तु पति की इच्छा जानकार उन्होंने कोई आपत्ति तो नहीं की, किन्तु दूध देते समय उनका प्रयत्न होता था कि उसमें दूध के ऊपर जमी मलाई न जाने पाए | एक दिन दूध पर मोटी मलाई जमी हुई थी तथा देते समय थोड़ी सी मलाई का अंश भी पात्र में गिर पड़ा | पत्नी के मुख से तुरंत निकला “उफ़” | जब वह व्यक्ति दूध लेकर महात्मा के पास पहुंचा तो साधू ने कहा, आज मैं दूध नहीं पिऊँगा | व्यक्ति को अचम्भा हुआ, उसने पूछा – क्या हुआ महाराज क्या दूध में कुछ गिर गया है | साधू ने उत्तर दिया हाँ कुछ गिरा है | व्यक्ति ने सावधानी से पात्र को देखा और कहा – महाराज दूध तो पूर्ण निर्मल है, इसमें कुछ नहीं गिरा है | साधू ने मुस्कुराकर कहा – तुम्हारी सावधानी में कोई चूक नहीं है, किन्तु इसमें हाय डल गई है और साधू को कोई ऐसा पदार्थ ग्रहण नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी की हाय लग गई हो | सात्विक अर्जुन को भी रुधिर से सना राज्य स्वीकार नहीं था, अतः वह युद्ध से विमुख हो रहा था |

· अर्जुन के मन पर बोझ है | बोझ के साथ जीना बड़ा कठिन होता है | स्टेशन पर बोझ ढोने बाला कुली बिना सामान के साथ चलने बाले यात्री से जल्दी चलने का आग्रह करता है | और जब स्टेशन से बाहर आकर बोझ को निर्दिष्ट स्थान पर रख देता है, तब राहत की लम्बी साँस लेता है | हममें और आप में कई लोग बड़े विचित्र हैं, जो जीवन को जीवन की तरह जीने के स्थान पर बोझ की तरह ढो रहे हैं | परमेश्वर ने जीवन प्रसन्नता के साथ जीने के लिए दिया है, लेकिन जगत की कठिनाईयां मनुष्य को विवश करती हैं कि जीवन अनजाने में बोझिल हो जाता है | अर्जुन भी मेरा और आपका प्रतिनिधि है | अतः बोझ का अनुभव करते हुए थक गया है |

· उपनिषद् ने कहा है – एकं अक्षरम अविदित्वा अस्माद लोकात प्रहिति सः कृपणः | जो अद्वितीय परमात्मा को जाने बिना इस संसार से चला जाता है, वह कृपण है | आध्यात्मिक तत्व की सबसे बड़ी उपलव्धि यह है कि वह मानव को शोक सागर से पार करता है | ‘तरति शोकम आत्मवित’ आत्म तत्व को जानने वाला शोक से ऊपर उठ जाता है, तर जाता है | गीता अंततोगत्वा अर्जुन को शोक से उबार लेगी |

· ईसाई तथा अन्य धर्मों की चिंतन धारा स्वर्ग तक ही सीमित है | मोक्ष की बात केवल हिन्दू धर्म में ही कही गई है | स्वर्ग को हमारे यहाँ केवल प्रेय ही माना है जो सत्कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त होता है | श्रेय तो मोक्ष ही है | इसी श्रेय की प्राप्ति के लिए अर्जुन प्रभुशरण में आया है |

· अहंकार, शरीर, मन, बुद्धि रूपी इस संघात का अभिमानी जीव जब अपने सामने उपस्थित विषम परिस्थितियों का समाधान करने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तब बुद्धि रूपी सारथी, मन रूपी बागडोर को खींचकर इन्द्रिय रूपी अश्वों की गति रोक देता है और तब शरीर रुपी रथ रुक जाता है | इसका स्वामी अपने क्रिया रुपी गांडीव का परित्याग कर निस्तेज हो रथ के भीतर चुपचाप बैठ जाता है | उस अवस्था में यदि उसके पूर्व सुकृत जाग जाएँ, तो वह अपने अहम् को पूर्ण रूप से त्यागकर, अपने नित्य सखा, शुद्ध, बुद्ध ज्ञानस्वरुप, अपने अन्दर विराजमान, अपनी ही आत्मा के शरणागत होकर, उसी को अपना सारथी, अपना कर्णाधार बना लेता है | तब वह आत्मा उसे संसार रूपी धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र के युद्ध में अधर्म पर विजय दिलाकर जीव को संसार सागर से मुक्त करा देता है, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है |

· फक्र बकरे ने किया मैं के सिवा कोई नहीं,

मैं ही मैं हूँ इस जहां में दूसरा कोई नहीं |

मैं बढ़ा तो गोस्त, हड्डी और चमडा जिस्म का,

कुछ लुटा कुछ बिक गया, था आसरा कोई नहीं |

रह गईं आतें फकत मैं मैं सुनाने के लिए

तो ले गया लद्दाक उसे धुनकी बनाने के लिए

तो दर्द के सोंटे से इकदम आनत घबराने लगी,

तो मैं मैं के बदले तू ही तू की सदा आने लगी ||

· भगवान दत्तात्रय परिव्राजक थे | उन्हें जहाँ से भी कोई तत्व की बात प्राप्त होती थी, उसे वे गुरू मान्य कर लेते थे | एक दिन उन्होंने एक व्यथित स्त्री को देखा जो अर्ध रात्री को भी अपने कक्ष में दीप जलाये अपने प्रिय के इंतज़ार में बैठी थी | वह बारबार दरवाजे पर आती, सत्रष्ण नेत्रों से मार्ग को निहारती, सजल नयन लम्बी सांस ले फिर अन्दर जाकर बैठ जाती | लेकिन जिसका इंतज़ार था, वह दूर दूर तक दिखाई नहीं देता | उसने बहुत इंतज़ार किया अंततः थककर उसने द्वार बंद किया दीप बुझाकर अपने पलंग पर सो गई | त्रेतायुग के आदि जगद्गुरू दत्तात्रय ने उस पिंगला को भी अपना गुरू मान्य किया और कहा - “आशा-दासो जगतदासः निराशी अवनीपति” | आशाओं का दास जगत का दास है, आशाओं से दूर रहने वाला अवनीपति सम्राट है | आकांक्षाएं ही मनुष्य को बांधती और रुलाती हैं | जब तक वह स्त्री आशा के पाश में बंधी थी, तब तक वह व्यथित थी, अशांत और उद्विग्न थी, किन्तु जैसे ही आशा निराशा में परिवर्तित हुई, वह शांत होकर सो गई | संसार में जिसकी इच्छाएं जितनी अधिक होंगी, वह उतना अधिक शोक ग्रस्त होगा | यदि कोई शोक से बचना चाहता है, तो कम से कम अपेक्षाएं रखे |

· “यथा अरः चन्दन भारवाही, भारस्य वेत्ता नतु चन्दनस्य” | यदि किसी गधे पर चन्दन लाद दिया जाये, तो भी वह बोझ का ही अनुभव करता है, चन्दन की सुगंध का नहीं | उसी प्रकार यदि शास्त्र ज्ञान यदि आचरण में न उतरे, उसकी सुगंध जीवन में न छा जाए, तो वह भार ही है | जैसे बार बार औषधियों का नाम लेने से रोग नहीं मिटता, उसी प्रकार शास्त्र कंठस्थ कर लेने से काम नहीं चलता |

· इदं शरीरं क्रमिजाल संकुलम, स्वभावदुर्गंधमशौचंध्रुवं |

रुजायुजम मूत्रपूरीषभाजनं, रमन्ति मूढः न ममंती पंडितः ||

· एक छोटी सी अगरबत्ती जलती है | वह जहां जलती है वहां सुवास बिखेरती है | वह इस बात की चिंता नहीं करती कि उसकी सुगंध कहाँ तक जा रही है | वह केवल जलती है और सुवास बिखेरती है | वह पूजा के कमरे को सुवासित करती है, बहुत हुआ तो बगल के कमरे में भी उसकी सुगंध पहुँच जाती है, किन्तु उसके बाद यदि वह चाहे कि पूरे मोहल्ले को सुवासित कर दे, तो नहीं कर सकेगी | लेकिन उसका पुरुषार्थ कम प्रशंसनीय नहीं है | उसने अपने को जलाया और जब तक पूर्णतः जलकर राख नहीं हो गई, वह अपना कर्तव्य करती गई, सुवास बांटती रही |

· कहा जाता है कि तीर्थ यात्रा में कष्ट पड़े तो कहना नहीं सहना | सहेंगे तो तपश्चर्या और कहेंगे तो पुण्य क्षय | तपश्चर्या का अपना अलग ही आनंद है | जीवन का अंतिम लक्ष्य भी तो प्रभुपाद तक पहुँचना ही है | तो क्या जीवन यात्रा तीर्थ यात्रा नहीं ?

· सबै भूमि गोपाल की, जामें अटक कहा,

जाके मन में अटक है, सोही भटक रहा |

· घट में जल है, जल में घट है, भीतर बाहर पानी |

फूटा घट जल जल में समाना, जाने सो है ज्ञानी ||

· आदि शंकराचार्य गंगा स्नान के पश्चात अपने शिष्यों के साथ बाबा विश्वनाथ के दर्शनों को जा रहे थे | तभी उनके सामने एक चांडाल अपने चार श्वानों के साथ आ गया | परम्परा में पले होने के कारण उनके मुंह से अचानक निकल गया दूर हट, दूर हट | इस पर चांडाल ने विनम्रता पूर्वक प्रतिप्रश्न किया –

अन्नमयादन्नमयमथवा, चैतन्यमेव चैतान्यात |

द्विजवर दूरीकर्तुम वान्छसि, किम ब्रूहि गच्छ गच्छेति ||

ओ महात्मन आप किसको किससे दूर हटाना चाहते हैं ? यदि आप इस पञ्चभौतिक अन्नमय शरीर को दूर हटाना चाहते हैं, तो संसार में जितने भी शरीर हैं, सबके सब पञ्च तत्व से निर्मित हैं | किन्तु यदि आप चेतन को चेतन से दूर हटाना चाहते हैं, तो वह कैसे हटाया जा सकता है, आप ही बताएं ?

किम गंगाम्बुनि बिम्बितेSम्बरमनौ चंडाल बाटी पय

पूरे वाSतरमस्ति कांचनघटी-मृतकुम्भयोर्वाSम्बरे |

प्रत्यग्वस्तुनि निस्तरंगसहजानन्दावाबोधाम्बुधौ

विप्रोयम श्वपचोSयमित्यपि महान कोSयं विभेदभ्रमः ||

भगवान् भास्कर का प्रतिबिम्ब पवित्र गंगाजल में दिखाई दे अथवा घाट पर एकत्रित दूषित जल में, मिट्टी के घड़े में या स्वर्ण कलश में, इन जड़ वस्तुओं के संयोग से भगवान सूर्य को कोई दोष कैसे स्पर्श कर सकता है ?

हे द्विज श्रेष्ठ | जो प्रज्ञानघन है, तरंगों से रहित सिन्धु के समान विक्षेपों से सर्वथा रहित परमानंद स्वरुप है, उसमें चांडाल और ब्राह्मण का भेद कैसा ?

भगवत्पाद श्री शंकराचार्य ने चांडाल रूप में पधारे आदिगुरू भगवान साम्ब सदाशिव को प्रणिपात किया और उनकी अर्चना में पांच श्लोकों की अलौकिक मंजरिका समर्पित की जिसमें हर श्लोक के अंत में कहा गया –

चांडालोSस्तु स तु द्विजोSस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम |

वह चांडाल हो या ब्राह्मण, वही मेरा गुरू है |

शंकराचार्य जी ने सही कहा है -

जन्मना जायते शूद्रः, कर्मणा जायते द्विजः |

वेदाध्यायि भवेद्विप्रो, ब्रह्मम जानाति ब्राह्मणः ||

· जब हम पट्टी पर लिखते हैं, तब अक्षर भिन्न भिन्न होते हैं, अक्षरों से मिलकर बनने वाले शब्द भी भिन्न और उनके अर्थ भी भिन्न होते हैं | जब पट्टी भर जाती है, तब लेख को मिटाकर नूतन लेख लिखा जाता है |

· कोई व्यक्ति अपने गंतव्य के लिए चलता है, उसके पदचिन्ह मार्ग पर बनते जाते हैं | बीच में नदी आने पर वह तैरकर पार करता है | नदी के उस पार पहुँच जब आगे यात्रा करता है तब पुनः उसके पदचिन्ह बनते हैं | कोई यदि नदी में पदचिन्ह ढूंढें तो क्या मिलेंगे ? हम शरीरधारी के रूप में जब प्रथ्वी पर रहते हैं तभी तक हमारी उपस्थिति का प्रमाण संभव है | प्रथ्वी तत्व ही स्थूल होने के कारण चिन्हांकन स्वीकार करता है, शेष चार जल, अग्नि, गगन और वायु सूक्ष्म होने के कारण अंकन स्वीकार नहीं करते |

· राम कथा सो कथा, शेष वृथा ओ व्यथा | “संसरति इति संसारः” जो चलता, बदलता रहता है, वह संसार है | यात्रा में कष्ट न हो यह संभव नहीं | जब तक मानव मोह के घेरे में रहता है, तब तक अमृतत्व की उपासना नहीं होती | क्योंकि मोह ही सब दुखों की जड़ है | फिर मोह चाहे स्वयं से हो अथवा संसार की किसी अन्य बस्तु से |

· पश्चिम के सुप्रसिद्ध कवी मिल्टन वृद्धावस्था में अंधे हो गए | उन्होंने अपनी दीन अवस्था पर पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा – ग्रहण, ग्रहण, महा ग्रहण (Eclipsa ! Eclipsa ! Total Eclipsa !) पृकृति में तो कभी कभी गृहण आता है, किन्तु मेरे जीवन में तो सदा सर्वदा के लिए गृहण छा गया है | चारों और अन्धकार ही अन्धकार दिखाई दे रहा है | सूर्योदय होने की संभावना ही समाप्त हो गई है और जीवन व्यर्थ हो गया है | किन्तु जब किसी ने सूरदास जी से पूछा – बाबा आपके नेत्र चले गए, आपको कैसा लगता है ? तब सूरदास ने उत्तर दिया – यदि नेत्र होते तो सत्य के दर्शन से वंचित रह जाता, अच्छा हुआ नेत्र चले गए | यही अंतर है भारतीय और पश्चिमी चिंतन में |

भारतीय दर्शन में सुख और दुःख इस संसार सिन्धु की दो तरंगे हैं, मानव को अपनी जीवन नौका इसी पर चलाना होता है | मृत्यु रूपी प्रचंड वायु भी चलती है, जो जीवन नौका को डूबा भी देती है | जिस प्रकार मृत्यु एक भय है उसी प्रकार जन्म भी भय है | क्योंकि जन्म लेने का अर्थ ही भय में प्रवेश करना है | जन्म मृत्यु से परे हो जाने की साधना ही भारतीय दर्शन है | अन्धकार में रज्जू को सर्प समझकर भय होता है, ज्ञान का आलोक जैसे ही उदय होता है, भय निर्मूल हो जाता है | रस्सी सर्प नहीं है यह समझ में आ जाता है | गीता में भगवान् कहते हैं “समदुःख सुखंस्वस्थः” जो सुख दुःख में समान रहता है वही स्वस्थ है | संसार में प्रत्येक मानव का कर्तव्य हैकि वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार दुःख निवारण का प्रयत्न करे, किन्तु दुःख आ ही जाए तो स्थिर बुद्धि से उसका सामना करते हुए प्रसन्न चित्त रहे |

· स्वर्ण से आभूषण निर्मित होते हैं, आभूषणों से स्वर्ण निर्मित नहीं होता | सृष्टि की समस्त आकृतियों के मिट जाने पर भी जो शेष रह जाए, वही आत्मा है, वही सत्य है |

· हेमू कालानी को मृत्युदंड दिया गया | उसकी अंतिम इच्छा पूछी गई तो उसने कहा कि पचास मील के अन्दर जितने अंग्रेज हैं, वे चाहे अधिकारी हों या व्यापारी, उन सबको मेरे सम्मुख बुलाईये | फांसी के पूर्व उन अंग्रेजों से मैं कुछ कहूँगा और वे सब दोहराएंगे | सब अंग्रेज एकत्रित हो पंक्तिवद्ध खड़े हो गए | फांसी के तख्ते से हेमू ने कहा – अंग्रेज भाई लोग मेरी बात पर ध्यान दें | जब मैं कहूंगा इन्कलाब, तब आप लोग कहेंगे जिन्दावाद | जब मैं कहूंगा स्वतंत्रता का आन्दोलन तब आप लोग कहोगे अमर रहे | तीन बार इसकी पुनरुक्ति होगी | यही मेरी अंतिम इच्छा है | नियम से बंधे अंग्रेजों ने विवश हो दोहराया | संसार में शायद ही कोई और क्रांतिकारी ऐसा हुआ हो जिसने अंग्रेजों से इस प्रकार कहलाया हो | हेमू अपने अंतिम समय में भी इतना शांत और स्थिर इसलिए रह पाया क्योंकि उसने गीता के गीतों को अपने जीवन का संगीत बना लिया था |

· स्वामी विवेकानंद जी से एक भक्त ने पूछा – स्वामीजी जिस शरीर से संसार के समस्त कार्य पूर्ण होते हैं, जीवन की अनुभव धारा का जो एकमात्र स्त्रोत है, उसके प्रति आसक्ति रहित होना असंभव प्रतीत होता है | स्वामीजी उस समय कुछ नहीं बोले, किन्तु कुछ दिन पश्चात सबको नौकाविहार के लिए लेकर गए | सब लोग नाव में बैठे हुए थे | आसपास और भी नावें चल रही थीं | स्वामी जी ने कहा – देखो यहाँ जितनी भी नावें चल रही हैं, सब सब जल पर ही चल रही हैं, जल ही इनका आधार है | वे अन्यत्र नहीं चल सकतीं | कल्पना करो कि नाव में जल भर जाए तो क्या होगा ? जल अन्दर आ गया तो नाव डूब जायेगी | ठीक इसी प्रकार मानव को संसार सागर में रहना है | आसक्ति रूपी जल को अन्दर नहीं आने देना ही जीवन की कला है | यदि मानव इस कला को नहीं अपनाता तो छिद्र युक्त नाव के समान संसार सागर में गोते लगाते रहना अनिवार्य हो जाएगा |

· एक वैज्ञानिक अपनी वसीयत में उत्तराधिकारी को अपनी प्रयोगशाला दे सकता है, परन्तु अपनी बुद्धि और चिंतन शक्ति नहीं दे सकता | एक कवी साहित्यकार अपनी रायल्टी दे सकता है, किन्तु कवित्वशक्ति और साहित्य सृजन क्षमता नहीं दे सकता | श्रीकृष्ण ने कहा अर्जुन संसार के लोग लौकिक वस्तु देते हैं, परन्तु जो मुझे भजते हैं, उन्हें मैं तत्वज्ञान देता हूँ |

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम |

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ||

· भर्तृहरि अपने समृद्ध राज्य और महान संपत्ति को त्याग कर ज्ञान प्राप्ति हेतु निकल तो पड़े, किन्तु एक वृक्ष के नीचे बैठे बैठे उन्हें अपने पूर्व वैभव की स्मृतियाँ विचलित करने लगीं | तभी वह वृक्ष उनसे बोला – तुमने जिस प्रकार स्थूल शरीर से स्थूल वस्तुओं को त्याग दिया है, उसी प्रकार अपने अन्तःकरण में स्थित सूक्ष्म पदार्थों की आसक्ति को भी त्यागना होगा | जब मैं एक छोटे पौधे के रूप में था, तब कुछ समय के लिए किसी व्यक्ति ने मेरी रक्षा अवश्य की होगी, लेकिन जब से मैं बड़ा हुआ हूँ, तब से बिना किसी भेदभाव के सबको कुछ न कुछ देता आ रहा हूँ | प्रारब्ध के अनुसार न मालूम कितनी बार कितनी भिन्न भिन्न योनियों में जन्म लिया, अब एक वृक्ष बनकर खड़ा हूँ | लोग आते हैं, मेरी छाया में विश्राम कर लेते हैं, मेरे फलों से अपनी क्षुधा भी शांत करते हैं, और जब उनके श्रम का बोझ कुछ हलका हो जाता है, तब मुझे देखकर उनके मन में विचार आता है कि यह शाखा तो बड़ी सीधी है, यदि इसे काटकर घर ले जाया जाये तो कुछ काम में आ सकती है | इसका ताना तो बहुत मोटा है, अनेक वस्तुएं इससे बनाई जा सकती हैं | इतनी कृतघ्नता की बात जान लेने के बाद भी मैं किसी से घृणा नहीं करता, अपितु जितना बन पड़ता है, देता ही रहता हूँ | ऐसे संसार से तुम आश्वासन पाना चाहते हो, यह तुम्हारी भूल है | भर्तृहरि ने विचार किया कि वास्तव में मनुष्य कितना परवश है जो अपने पूर्व अनुभव के संस्मरणों की स्मृति में निरर्थक खोया रहता है | भर्तृहरि जैसा व्यक्ति भी जब स्वयं को निस्सहाय मान लेता है, तब साधारण लोगों का तो कहना ही क्या ?

· स्थानभेद से शिष्टाचार में भी अंतर आ जाता है | सभा भवन का शिष्टाचार कुछ और होता है तो यज्ञ मंडप की मर्यादा उससे भिन्न होती है | गुरुकुल का शिष्टाचार भिन्न प्रकार का होता है | युद्धभूमि का शिष्टाचार सर्वथा भिन्न होता है | इसीलिए जब भीष्म पितामह के सम्मुख अपने गुरू परशुराम जी के साथ युद्ध करने का प्रसंग आया तब वे युद्ध से विमुख नहीं हुए अपितु गुरू से आशीर्वाद मांगकर युद्ध में प्रवृत्त हो गए |

· उपनिषदों में मकडी ऊर्णनाभि के नाम से जानी जाती है | जब वह जाला बनाती है, तो अपने मुंह से एक के बाद एक तंतु निकालती है और एक सुन्दर सा जाल बना देती है | यह असंभव सी बात संभव होते हुए हम अपनी आँखों से देख सकते हैं | इसी प्रकार परमपिता परमेश्वर भी स्वयं इस जगत को प्रकट करता है, इसका पालन पोषण भी करता है, और इसको अपने में ही लीन भी कर लेता है |

· वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णति नरोSपराणि

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ||

जैसे मनुष्य फटे पुराने अनुपयुक्त वस्त्रों को त्यागकर अन्य नवीन उपयुक्त वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही देहाभिमानी जीव जीर्णावस्था को प्राप्त होने पर अनुपयोगी शरीर को त्यागकर अन्य नूतन और उपयुक्त शरीर को प्राप्त कर लेता है |

हम अपने दैनंदिन जीवन में प्रातःकाल भ्रमण को जाते हैं तो हमारा परिवेश कुछ होता है, जब हम अपने व्यवसाय में लगते हैं तब कुछ और वस्त्र धारण करते है, खेलकूद का परिधान अलग, प्रवास में कुछ और, विवाह समारोह में कुछ और भिन्न होता है | ठीक इसी प्रकार देहाभिमानी जीव अपनी विशिष्ट अनुभव धारा में अनुपयुक्त वर्तमान शरीर को त्यागकर नूतन अनुभव के उपयुक्त नवीन शरीर को धारण करता है | इस साधारण और स्वाभाविक परिवर्तन को हम लोग अज्ञानवश जन्म और मृत्यु मान लेते हैं | जैसे हम सबको वस्त्र आभूषण आदि आवश्यकतानुसार बदलने में कभी दुःख नहीं होता, वैसे ही देही को देहों के बदलने में कोई दुःख नहीं होता |

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः |

न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ||

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि जला नहीं सकती | इसको जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती |

· सुग्रीव ने भगवान श्री राम से कहा कि मैं आपकी पूरी सहायता करूंगा | सुनकर राम मुस्कुराए | लक्ष्मण को उनके मुस्कुराने का कारण समझ में नहीं आया | बाद में वर्षाकाल समाप्त होने पर भी सुग्रीव नहीं आये, जब जीव को सुविधाएं मिल जाती हैं, वैभव मिल जाता है, तब वह अपना उद्देश्य अपनी प्रतिज्ञा प्रायः भूल जाता है | यही जानते हुए प्रभु मुस्कुराए थे, यह रहस्य लक्ष्मण को समझ आया | राम ने लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा एक सन्देश के साथ – जिस वाण ने बाली को मारा था, वह अभी भी तरकस में विद्यमान है | सन्देश सुनते ही सुग्रीव दौड़ा दौड़ा आया, बोला – इन सांसारिक भोग विलासों ने मुझे अपने कर्तव्य बोध से च्युत कर दिया था | आपने स्मरण कराकर बड़ी कृपा की | जब कभी आपका भक्त अपने कर्तव्य को भूल जाता है, आप ठोकर देकर उसे सचेत कर देते हैं | भय बिन होई न प्रीती |

· सम्राट अकबर के मंत्री रहे भक्त कवि अब्दुल रहीम खानखाना ने पद प्रतिष्ठा सुख संपत्ति त्याग कर लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए एक भडभूंजे के यहाँ नौकरी कर ली | जब कार्य से निवृत्त हो जाते तो एक वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान् का ध्यान करते, श्रीकृष्ण के गुणानुवाद गाते | अकबर को मालूम पड़ा तो उनसे मिलने पहुंचे | रहीम उस समय भी भाड में चने भूंज रहे थे | शरीर पर मैले कुचैले वस्त्र, लगातार आग के सामने रहने से शरीर भी कृष्ण वर्ण हो गया था | अकबर ने उन्हें मंत्रीपद का दायित्व स्मरण कराने हेतु कहा – जाके सर अस भार है, सो कत झोंकत भाड | रहीम ने मुस्कुराकर उत्तर दिया – भाड झोंक सब भाड में, रहिमन उतारो पार | जय श्री कृष्ण |

· मानव का स्व अत्यंत सीमित होता है | साधारण श्रमिक को भी सायंकाल अपनी कुटिया स्मरण आती है, जैसे उड़ते हुए पक्षी को अपने छोटे से नीड की स्मृति सताती हो | औरों की बात जाने दें अर्जुन को भी धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में जो विषाद हुआ, वह अपने गुरुजन, परिवार जनों की आसन्न मृत्यु देखकर हुआ | अठारह अक्षौहिणि सेना में सम्मिलित साधारण सैनिकों व अन्यान्न व्यक्तियों के लिए नहीं हुआ | अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों के लिए चिंतित हुआ, अपने पूज्यों के प्रति सहानुभूति से द्रवित हुआ | युद्ध में उनके शरीर नष्ट हो जायेंगे यह सोचकर वह दुखी हुआ | किन्तु शेष सैनिक तथा पशुओं को लेकर उसके मन कोई संताप नहीं हुआ | इसलिए भगवान् ने कहा कि अर्जुन यदि तुम्हें सेना के प्रत्येक व्यक्ति की चिंता होती तो तुम्हे संत मानकर शायद मैं तुमसे सहमत हो भी जाता, किन्तु तुममें तो अपने पराये की भावना है | यह द्वैत व्यापार आत्म चिंतन में उपयोगी नहीं | सबके भीतर एक ही आत्मा है जो अविनाशी है और जितने भी देह हैं कभी न कभी नष्ट होने वाले हैं | अतः शोक का कोई कारण नहीं |

· रे मन रूपी भ्रमर तू अपना कोलाहल बंद कर दे | मैंने तेरा कोलाहल बहुत सुना है, परन्तु अब हरि चरणारविन्द के मकरंद रस का पान कर | यदि तू एक बार भी उसका पान करेगा तो फिर तेरी झंकार और कोलाहल सदा सर्वदा के लिए शांत हो जायेगी | उसके पश्चात तुझे पुष्पवाटिकाओं में रस की खोज के लिए भटकना नहीं पड़ेगा, न ही अपनी रूचि के अनुसार भिन्न भिन्न पुष्पों का चयन करना पड़ेगा |

· ग्वाला जब गाएं चराने जाता है, तो उसका प्रयत्न होता है कि गायें सीधे रास्ते पर चलें | किन्तु ग्वाले के थोड़ा सा असावधान होते ही गायें आसपास के हरे भरे खेतों में चरने को कूद पड़ती हैं | हरियाली की और भागना उनका स्वभाव है | उन्हें इस बात की चिंता नहीं होती कि खेतों का मालिक कौन है और उसका कितना नुक्सान होगा | इसी प्रकार मन रूपी ग्वाले के असावधान होते ही इन्द्रियाँ रूपी गायें भी उच्छ्रंखल होकर विषयों की और भागने लगती हैं | फिर मन रूपी ग्वाला भी इन्द्रियों रूपी गायों के पीछे भागते भागते अपनी शक्ति को कुंठित कर लेता है और स्वयं भी गायों के साथ उछलकूद में लग जाता है | अंतःकरण में विराजमान बुद्धि रूपी सारथी समय समय पर सावधान तो करता है किन्तु मन उसे प्रायः अनसुना कर देता है | इसलिये भगवान् अर्जुन को निमित्त बनाकर हम सबको सावधान कर रहे हैं कि अपने विषयों की ओर दौड़ाने में प्रवृत्त इन्द्रियाँ बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलपूर्वक इस प्रकार हरण कर लेती हैं, जैसे समुद्र में तैरती दुर्बल कर्णधार वाली नाव को वायु हर ले जाता है |

· एक राजा और एक संपन्न सेठ अच्छे मित्र थे | उनकी मित्रता वाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक कायम रही | सेठ चन्दन का व्यापार करते थे | एक बार व्यापार में मंदी आई | चन्दन के भण्डार भरे रह गए | इस घाटे को देखकर सेठ के मन में विचार आया कि अगर वृद्ध राजा का देहांत हो जाए तो नगर के सब लोग कम से कम एक एक सेर चन्दन अंतिम संस्कार के लिए जरूर ले जायेंगे और इस प्रकार मेरा सारा चन्दन बिक जाएगा | उधर राजा ने विचार किया कि अकाल के कारण इस बार कर तो आया नहीं उलटे अकाल पीड़ितों की सहायता में बहुत व्यय हो गया | अगर वृद्ध सेठ मर जाए तो निसंतान होने के कारण उसकी समस्त संपत्ति राजसात होगी और इस प्रकार खजाना फिर भर जाएगा | कुछ दिनों बाद दोनों मित्र मिले, किन्तु मन में वह आत्मीयता नहीं थी, कुछ अवरोध था | दोनों पुराने मित्र थे, स्पष्टवादी भी थे | जल्द ही दोनों ने अपने अपने मन के कुत्सित विचार एक दूसरे पर प्रगट भी कर दिए | तब दोनों को ज्ञात हुआ कि क्रिया की प्रतिक्रया कैसी होती है | इसीलिये संसार का सबसे अद्भुत शास्त्र गीता मानव की भावना शुद्धि को सबसे बड़ा तप मानती है |

· विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः |

रसवर्जं रसोSप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||

उपभोग न करने वाले के विषय निवृत्त हो जाते हैं, किन्तु लालसा नहीं | परमात्मा को देखने वाले स्थितप्रज्ञ की आसक्ति भी निवृत्त हो जाती है | (रस अपि अस्य = आसक्ति भी स्थितप्रज्ञ की, परं = परमात्मा)

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ||

हे कौन्तेय, ये प्रमथनशील इन्द्रियाँ, वास्तव में प्रयत्नरत विवेकी पुरुष के मन को भी प्रचंड वेग से बलात हर लेती हैं |

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त मासीत मत्परः |

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

उन समस्त इन्द्रियों को संयमित कर मेरे परायण होकर बैठे, जिसकी इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है | (प्रकारांतर से जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है, वही शांतचित्त होता है और वही प्रभु परायण हो पाता है |)

ध्यायतो विषयान्पुन्सः संगस्तेषुपजायते |

संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोSभिजायते ||

विषयों का स्मरण करने वाले पुरुष की उनमें आसक्ति प्रगट हो जाती है | आसक्ति से कामना उत्पन्न होती है, कामना से क्रोध उत्पन्न होता है |

क्रोधादभवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः |

स्मृतिभ्रन्साद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||

क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रम, स्मृति भ्रम से विवेक नष्ट हो जाता है और विवेक के नाश से साधक का पतन हो जाता है |

रागद्वेषवियुक्तेस्तु विषयानिन्द्रियेश्चरन |

आत्मवश्येर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ||

राग के आकर्षण और द्वेष के विकर्षण से मुक्त, संयमित अंतःकरण वाला इन्द्रियजित साधक, विषय जगत में विचरण करते हुए भी परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है |

प्रसादे सर्वदुःखानं हानिरस्योपजायते |

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ||

शांत अंतःकरण वाले साधक की बुद्धि सभी प्रकार के दुखों और उत्पन्न होने वाली हानि में भी प्रसन्नचित्त रहते हुए आत्मा में स्थिर हो जाती है |

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना |

न चाभावयतः शांतिरशान्तस्य कुतः सुखं ||

अयुक्त को न बुद्धि होती है, न भावना, साथ ही शान्ति का भी अभाव | वस्तुतः अशांत को सुख कहाँ |

इन्द्रियाणां ही चरतां यन्मनोSनुविधीयते |

तदस्य हरति प्रज्ञां वायुनावमिवाम्भसि ||

जिनका मन केवल इन्द्रियों का ही अनुवर्तन करता है, उनकी प्रज्ञा (विवेक) का विषय उसी प्रकार हरण कर लेते हैं जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु |

तस्माद्यस्य महावाहो निगृहीतानि सर्वशः |

इन्द्रियाणिइन्द्रियार्थेम्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||

हे महावाहो, जिस मानव ने अपनी इन्द्रियाँ विषयों से उपरत की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है |

या निशा सर्व भूतानां तस्या जाग्रति संयमी |

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने ||

जो समस्त प्राणियों के लिए रात्री है, उसमें संयमी पुरुष जागता है, जब सम्पूर्ण प्राणी जागते हैं, तब तत्वदृष्टा मुनि के लिए रात्री है |(जब जगत अज्ञान के अन्धकार में डूब जाता है, तब संयम का आलोक आवश्यक होता है अतः महापुरुष उस हेतु सतत प्रयत्नशील रहते हैं | उनके परिश्रम के परिणाम स्वरुप जब सब और ज्ञान का प्रकाश फ़ैल जाता है तभी वे विश्राम लेते हैं |)

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत |

तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे, स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ||

जैसे जल परिपूर्ण किन्तु अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में प्रवेश करता है, वैसे ही जिसमें समस्त विषय प्रलोभन प्रवेश करके शांत हो जाते हैं, वही परम शान्ति को प्राप्त करता है, विषयासक्त मानव नहीं |

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमाँश्चरति निःस्प्रहः |

निर्ममो निरहंकारः स शंतिमधिगच्छति ||

जो समस्त कामनाओं को त्यागकर लालसा से रहित, ममत्व से मुक्त, कर्तृत्वाभिमान से विमुक्त होकर विचरण करता है, वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है |

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति |

स्थित्वास्यामन्तकालेपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ||

हे पृथापुत्र, परब्रह्म की इस स्थिति को प्राप्त करने वाला कभी मोहित नहीं होता | जो अंत समय तक इस स्थिति में रहता है वह ब्रह्मेकत्व को प्राप्त हो जाता है |

· एक निष्काम कर्मयोगी जुलाहे की ख्याति थी की वह कभी क्रोध नहीं करता | कुछ युवकों ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया | उनमें से एक उनके पास पहुंचा और एक धोती हाथ में लेकर उसका मूल्य पूछा | महात्मा ने कहा दो रुपये | युवक ने बीच से फाड़कर धोती के दो टुकडे कर दिए, तथा एक भाग का मूल्य पूछा | महात्मा ने शांत भाव से उत्तर दिया एक रूपया | युवक ने उसे भी फाड़कर आधा करके मूल्य पूछा | महात्मा ने कहा आठ आना | युवक और टुकडे करता गया और मूल्य पूछता गया | यहाँ तक कि महात्मा ने बताया दो पैसे | युवक शर्मिन्दा होकर पूरी धोती की कीमत देने लगा | महात्मा ने शांत मुस्कराहट के साथ कहा धोती का मूल्य तुम दे सकते हो, किन्तु किसान ने अपने देशवासियों के परिधान हेतु कपास उगाया था, उस भावना का मूल्य तुम कैसे दोगे | जिस संत ने इस प्रकार उस नवयुवक को तत्व ज्ञान की शिक्षा दी, वह थे दक्षिण भारत के महान संत सुप्रसिद्ध काव्यकार तिरुवल्लुवर |

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