आस्था, विस्वास, भरोसा (यात्रावृत्त घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग) :- हरिहर शर्मा




September 23, 2010 at 14:09

१४ सितम्बर को बारहवे ज्योतिर्लिंग घुश्मेश्वर (घृष्णेश्वर) के दर्शनार्थ ट्रेन द्वारा झांसी से ओरंगावाद के लिए रवाना हुआ | 

ओरंगावाद पिछले दिनों फेसबुक पर काफी चर्चित भी रहा था एक मोलाना के पेम्पलेट को लेकर |

अतः एक उत्सुकता वह भी थी की क्या वहां सचमुच आज भी उस मौलाना जैसे सोलहवी सदी की मानसिकता के लोग बसते हैं |

खैर ओरंगावाद पहुंचने के तुरंत बाद  बस स्टेंड पहुंचकर घुश्मेश्वर जाने वाली बस पकड़ी और लगभग ४५ मिनिट की यात्रा कर दोपहर लगभग २ बजे भगवान शिव के उस विशाल मंदिर के सम्मुख पहुँच गया, जिसके दर्शन ११ ज्योतिर्लिंगों के दर्शन उपरांत सबसे अंत में करने का विधान है |

मंदिर के नजदीक ही स्थित भक्तनिवास नामक परिसर में ५०० रुपये का कमरा एक दिन को लिया और स्नान इत्यादि से निवृत्त हो दोपहर लगभग ३ बजे मंदिर प्रांगण में पहुँच गया |

विशाल प्रांगण में एक टेबिल कुर्सी पर बैठे सज्जन अभिषेक इत्यादि के लिए २५१ अथवा ५०१ की रसीद काट रहे थे |

मैंने भी रसीद कटवाई और पूजन सामग्री ले गर्भगृह की और बढ़ चला |

गर्भगृह के सामने पहुंचकर ज्ञात हुआ कि अन्दर जाने वाले पुरुषों को उत्तरीय पहनकर जाने की मनाही है , अर्थात कमर के ऊपर का भाग निर्वस्त्र होना चाहिए |

मैंने जो कुडता पाजामा पहना था, उसमें पाजामा जेब रहित था और यात्रा के निमित्त लाइ गई सम्पूर्ण धनराशी तथा मोबाइल मेरे कुडते की जेब में ही था |

थोड़ी चिंता तो हुई पर श्रद्धा ने विजय पाई और मैंने दरवाजे के पास कुडता और बनियान उतार कर रख दिया |

अन्दर बहुत ही सुयोग्य पुरोहित वृन्द थे जो अपने शुद्ध उच्चारण से रुद्री पाठ द्वारा शिवलिंग का अभिषेक भक्तों से करा रहे थे |

अत्यंत श्रद्धा भक्ति से मैंने भी भगवान भूतभावन महेश्वर के श्री विग्रह का पूजन अर्चन किया |श्री केदारनाथ, श्रीशैलम, महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर के वाद श्री घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग पर ही अपने हाथो से अभिषेक का सौभाग्य प्राप्त हो पाया , शेष स्थानों पर तो केवल दर्शन करने का अवसर भर मिला |

लगभग डेढ़ घंटे उपरांत भाव विव्हल अश्रु पोंछता हुआ गर्भगृह से बाहर निकला |

मेरे वस्त्र यथास्थान थे |

पूर्ण सुरक्षित |

मुझे विगत वर्ष का वैष्णोदेवी यात्रा प्रसंग याद हो आया, जब में अपने एक धनाढ्य मित्र के साथ वहां पहुंचा था | मित्रवर नीचे कटरा से किराए के जूते पहनकर ऊपर मंदिर दर्शनार्थ गए थे जबकि उनका एक कर्मचारी नंगे पांव मां के दर्शनों को गया था | लौटते में मैंने देखा की मित्र के जूते उनका कर्मचारी कुछ झुंझलाए अंदाज में पहना था और मित्रवर एक नई चप्पल अपने पैरों में डाले थे | मैंने उस कर्मचारी से रहस्य पूछा तो वह गुस्सा होकर अपने मालिक की बुद्धि को कोसने लगा जिन्होंने किसी भक्त की नई चप्पल वैष्णोदेवी मंदिर से चुरा ले थी | यह अलग वात है की सात दिन बाद ही एक एक्सीडेंट में मेरे उन मित्र को पेरों में फ्रेक्चर भी झेलने पड़े |

एलोरा की भव्य गुफाएं और गणपति के २१ पीठों में से एक लक्ष गणपति इस बेल्लूर तीर्थ स्थल पर विद्यमान हैं जिनके दर्शन का सुयोग भी गणपति महोत्सव के अवसर पर प्राप्त हुआ |

दूसरे दिन प्रातः काल उठकर स्नान इत्यादि उपरांत एक सवारी जीप से ओरंगावाद को रवाना हुआ | अपने निजी साधन से घूमने के स्थान पर मैं हमेशा सार्वजनिक वाहनों में देशाटन पसंद करता हूँ , उससे हमें वहां के रहन सहन व सोच के विषय में वहुमूल्य जानकारियाँ प्राप्त होती हैं | इस बार भी एसा ही हुआ | रास्ते में खुल्तावाद से सलाउद्दीन नामक एक बुजुर्ग सहयात्री के रूप में प्राप्त हुए | 

खुल्तावाद वह स्थान है , जहाँ क्रूरता और अत्याचार के प्रतीक रहे मुग़ल बादशाह ओरंगजेब को दफनाया गया था | सलाउद्दीन स्वयं को शहंशाह कहते हुए दावा कर रहे थे कि उनके कब्जे में २५० जिन्नात की बड़ी फ़ौज है | जो उनके इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहती है | खुद मिश्र के बादशाह ने उन्हें इज्जत देते हुए बुलाया है और इसी लिए वे मुंबई जाने को निकले हैं | मेरे यह पूछने पर कि क्या उनका बीसा और पासपोर्ट बन चूका है , उनका जवाब था कि इस्लामी देशों में जाने के लिए मुसलमानों को केवल पासपोर्ट की ही दरकार होती है और वह उनके पास है | उन महाशय का यह भी कहना था कि जानवर भी उनसे बात करते हैं और वे उनकी भाषा को समझते हैं | वे बोले हम तो गाय को केवल खाने के लिए ही मारते हैं लेकिन हिन्दू तो उन्हें पालने के वाद भी भूखा रखकर केवल दूध लेने से वास्ता रखते हैं | जो उन्हें जरूर दोजख की आग में जलाएगा | 

मेरी नजर में तो बुजुर्गवार केवल एक झक्की ही थे , किन्तु सहयात्री मुस्लिम उन्हें अदव से हाफिज जी संबोधित कर रहे थे | हाफिज जी की कार्ययोजना में इलाके की सात मस्जिदों पर कब्जा करना भी सुमार था , जिसका जिक्र वे बड़ी शिद्दत से कर रहे थे | मुझे समझ नहीं आया कि मस्जिदों पर कब्जे से उनका क्या मतलब है ? मेरे पूछने पर उन्होंने साफगोई से बताया कि वे शियाओं की हैं | मेने जानना चाहा कि मुसलमान होने के वाद भी शिया और सुन्नी में इतनी कटुता क्यों है | उन्होंने कोई साफ़ जवाब नहीं दिया , सिवाय इसके कि उनकी नजर में वे काफिर हैं |

घुश्मेश्वर से ओरंगावाद का सफ़र लगभग ४५ मिनिट का ही था , इसलिए मुझे सलाउद्दीन साहब से जल्द ही छुटकारा मिल गया | ओरंगावाद पहुंचकर मैंने होटल करने के स्थान पर पहले घूमना तय किया | १५० रु.में एक ऑटो वाले को तय किया कि वह मुझे बीबी का मकबरा और पनचक्की दिखा लाये | ब्रीफकेस ऑटो में ही रखकर मेने दोनों जगह का भ्रमण किया |

बीबी का मकबरा दक्षिण का ताज कहलाता है | ताज जितना सुन्दर तो नहीं बना पर भव्य जरूर है | जहाँ ओरंगजेब की मजार एकदम साधारण सार्वजनिक कब्रिस्तान में स्थित है , वहीँ उसकी बीबी रबिया उल दुर्रानी उर्फ़ दिलरस बानो वेगम की याद में बनी यह इमारत काफी उम्दा है | यह उसके बेटे आजम शाह की उसके प्रति स्नेह और श्रद्धा का प्रतीक है अथवा ग्रेट मराठा सरदारों के डर से ओरंगजेब की याद में कुछ ना बनबाते हुए मां के नाम पर बनवाया गया स्मारक, पता नहीं |


बीबी के मकबरे के बाद में पहुंचा पनचक्की देखने | पानी की धार से चलती हुई चक्की किसी जमाने में सूफी संत के कारिंदों के लिए आटा पीसने के काम आती थी |

ओरंगावाद में केवल ये दो ही जगह घूमने के वाद एक होटल में कमरा लिया और ऑटो चालक यूसुफ़ भाई को धन्यवाद देकर विदा किया | लगभग डेढ़ घंटे तक मेने इन दोनों जगह अपना ब्रीफकेस यूसुफ़ भाई के पास रहने दिया था | अगर वो चाहते तो बड़े आराम से रफूचक्कर हो सकते थे और मैं घनचक्कर भला क्या कर सकता था |

पहले मंदिर में कुडता और उसमे लावारिस रखे रुपये, बाद में यूसुफ़ भाई के हवाले रखा रहा ब्रीफकेस , इतना अनुभव ही पर्याप्त नहीं था | शेष कसर होटल वाले ने पूरी कर दी | जिस होटल में मैं रुका , उसके कमरों में ताला नहीं लगता था | साईं कृपा होटल | वाह ! आज के युग में इतनी इमानदारी |

इति यात्रावृत्त !दिनांक १६ सितम्बर २०१० 

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