एक अकिंचन की राम कहानी - होकर से कम्प्युटर तक



रोहित की आत्महत्या के बाद राजनेता उनसे सहानुभूति जताने में परस्पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं ! तो मेरा निवेदन इतना भर है कि जीवन में संघर्ष हर व्यक्ति को करना होता है ! जरा मुलाहिजा फरमाईये रोजी रोटी के लिए इस हरिहर की संघर्ष गाथा ! 

कोलेज में अध्ययन करते करते ही कुछ न कुछ करता रहा ! संघ से सम्बन्ध बन ही गया था, सो अधिकारियों की इच्छानुसार 1972 में पांचजन्य मंगाना शुरू किया ! अब सवाल था, उसका वितरण कौन करे ? सो ज्यादा माथापच्ची न करते हुए साईकिल से चालीस पचास परिवारों में स्वयं ही पहुंचा आता ! बचपन से ही कोमिक्स और उपन्यास आदि पढ़ने की आदत थी और अक्सर खरीद कर ही पढ़ता था, सो काफी पुस्तकें इकट्ठी थीं, सोचा क्यों न एक पुस्तकालय खोल दिया जाए ! थोड़ी बहुत आय भी होगी और नई किताबें मुफ्त में पढ़ने को मिलेंगी सो अलग ! महादेव मंदिर के पीछे एक पुस्तकालय था, जिसमें धार्मिक पुस्तकें थीं, वहीं एक आलमारी में अपनी लाइब्रेरी भी प्रारम्भ हो गई ! आस पास के बच्चे और बड़े भी किराए पर पुस्तकें लेने आने लगे ! छोटी पुस्तकों और कोमिक्स आदि का किराया चार आना और बडे उपन्यासों का आठ आना मिलता ! 

फिर लगा कि किराए के आने वाले पैसों से नई किताबें खरीदना मुश्किल है, सो हमारे पारिवारिक भारतीय विद्यालय में अध्यापन शुरू कर दिया ! विद्यालय का संचालन धर्मवीर चाचा जी करते थे ! उन्हें बता दिया था कि यह काम में महज अपने पुस्तकालय की खातिर कर रहा हूँ, अतः उन्होंने अपने अध्यापकों की सूची में तो नहीं रखा, किन्तु मुझे हायर सैकेंडरी के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाने की जिम्मेदारी दी ! वेतन तय किया साठ रुपये मासिक ! चार छः महीने अध्यापन किया, किन्तु उस समय जिन विद्यार्थियों को पढाया वे आज भी जब कभी मिल जाते हैं, तो गुरूजी कहकर चरण स्पर्श करते हैं ! सच में अध्यापन कार्य अगर रूचि से किया जाए, तो उससे अधिक सम्मानजनक कोई कार्य नहीं है ! 

उन दिनों दैनिक स्वदेश समाचार पत्र का कार्य उत्तमचंद जी वकील साहब देखते थे ! सो 1973 में वकील साहब की प्रेरणा से दैनिक स्वदेश की एजेंसी ली, साथ ही एक काल्पनिक संगठन तरुण संघ के परिपत्र के रूप में साप्ताहिक क्रांतिदूत का प्रकाशन शुरू किया ! इस साप्ताहिक का वितरण भी मैं स्वयं ही करता था ! यह साप्ताहिक थोड़े ही समय में अत्यंत लोक प्रिय हो गया था ! इतना कि उसका वार्षिक शुल्क देकर लोग ग्राहक बन गए थे ! जबकि आम तौर पर साप्ताहिक समाचार पत्र महज विज्ञापनों की खातिर निकला करते थे ! किन्तु क्रांतिदूत समाचार और विचार का समन्वित रूप था ! 

खैर तब तक आपातकाल लग गया और क्रांतिदूत बंद हो गया ! मीसाबंदी होने व उसके बाद स्टेशनरी शॉप, जनरल स्टोर “वातायन” व तृप्ति जलपान गृह खोलने का उल्लेख पूर्व में कर ही चुका हूँ ! पार्षद बनने के बाद नगरपालिका में भ्रष्टाचार उजागर करने का खामियाजा भी मुझे उठाना पडा ! अपनी राजनैतिक व्यस्तता के चलते अपने एक आत्मीय बंधू को मैंने रेस्टोरेंट की व्यवस्था सोंप रखी थी, उन्हें मेरे विरोधी मित्रों ने बरगला लिया ! एक दिन मुझे ज्ञात हुआ कि वे स्वयं को शिकमी किरायेदार बताते हुए न्यायालय पहुँच गए हैं ! स्वाभाविक ही मेरी आमदनी का स्त्रोत एकबार पुनः समाप्त हो गया ! 

उदर पोषण के लिए इस बार डिश एंटीना का व्यवसाय चुना ! 1987 में एक छोटे से कसबे बैराढ़ में यह डिस एंटीना लगाया ! अब नया व्यवसाय प्रारम्भ करना था तो उस कसबे में रहना भी पडा ! इस पहाडी कसबे में कोबरा सांप और बिच्छुओं की भरमार थी ! हालत यह थी कि मैं अपने पलंग के पायों के नीचे पानी की कटोरी रखकर सोता था, ताकि बिच्छू रात को मुझ तक न पहुँच पायें ! नीचे फर्श पर तो वे घूमते ही रहते थे ! जल संकट से यह कस्बा आज भी जूझ रहा है, उन दिनों तो स्थिति अत्यंत ही विकट थी ! मैं प्रातःकाल उठता तथा अपने निवास स्थान से तीन किलोमीटर दूर एक धार्मिक स्थल बैराज माता के मंदिर जाता, वहीं नित्यकर्म से निवृत्त होता, स्नान उपरांत देवी दर्शन करता, और फिर दिन भर के उपयोग के लायक पानी लेकर वापस लौटता ! यह क्रम मैंने लगभग एक वर्ष झेला ! फिर ऊबकर अपने ही एक स्थानीय आत्मीय मित्र विष्णू जैमिनी को एक लाख में वह जमाजमाया व्यवसाय सोंपकर लौटकर बुद्धू घर को आये ! 

अब सवाल था कि डिसएंटीना के एवज में प्राप्त हुए एक लाख की मदद से कौन सा व्यवसाय शुरू किया जाए ! बेरोजगार हरिहर को मित्रों ने सलाह दी कि मीसाबंदी काल में जो ज्योतिष अध्ययन किया है, उसका उपयोग करने के लिए कम्प्यूटर पंडित बन जाओ | शिवपुरी में हर वर्ष लगने वाले मेले में दूकान लगाना, कीमत तो मेले में ही निकल आयेगी | बात जंच गई, सो आनन् फानन में जा पहुंचे नेहरू प्लेस नई दिल्ली, और एक लाख रुपये में उठा लाये HCL कम्पनी का पीसी एक्सटी और एक डॉट मेट्रिक्स प्रिंटर | मजा यह कि इसके पूर्व कम्प्युटर चलाना तो दूर, देखा भी नहीं था | 

अब हुआ कुछ यूं कि मेला समाप्ति के बाद जिस टेंट हाउस से किराये पर टेंट लगवाया था, उसने धीरे से कहा - हरिहर जी, मैं आपसे टेंट का किराया नहीं लेना चाहता | मैंने आश्चर्य से पूछा - क्यों भाई ? उसने जबाब दिया कि मुझे मालुम है कि मेरा जितना किराया बनता है, उतना तो तुमने यहाँ कमाया भी नहीं है | हा हा हा 

बात सही भी थी | अब यक्ष प्रश्न सम्मुख था कि इस कम्प्युटर का किया क्या जाए ? कम्यूटर पंडिताई तो फेल हो गई | फिर किसी ने कहा कि एमपीईबी विभाग, कम्प्युटर से बिल बनवाने का इच्छुक है, सो उस दिशा में प्रयत्न करो | 

मरता क्या न करता | हरिहर फिर भागा जबलपुर, एमपीईबी के मुख्यालय शक्तिभवन की ओर | वहां भेंट हुई तत्कालीन ईडीपी मेनेजर शान्ति प्रकाश जी से | उनके सम्मुख प्रस्ताव रखा कि शिवपुरी जैसे पिछड़े जिले में मैं विद्युत् बिल बनाने का इच्छुक हूँ | उन्होंने कहा कि प्रारम्भ मैं तो हम आपको यह काम नहीं दे सकते | आप शुरूआत कर्मचारियों के पेबिल से करो | वह काम भी आपकी क्षमता देखकर दिया जाएगा | उन्होंने मुझे अपनी सहयोगी मेडम ताम्रकार जी के पास भेजा | 

मेडम ने कहा कि पेबिल का सॉफ्टवेयर आपको बनाना होगा | आप एक सप्ताह बाद अपने सॉफ्ट वेयर का फ्लोचार्ट बनाकर लाईये | अगर हमें ठीक लगा तो आपको काम दे दिया जाएगा | सच बताऊँ तो उस समय यह फ्लो चार्ट किस चिड़िया का नाम है, यह भी पता नहीं था | 

खैर वापस आये, कुछ सॉफ्ट वेयर से सम्बंधित पुस्तकें पढीं | और विभागीय आवश्यकतानुसार डीबेस में एक सॉफ्टवेयर तैयार किया, और जा पहुंचे जबलपुर मेडम ताम्रकार से मिलने | मेडम को साफ़ बता दिया कि मेडम हम नहीं जानते कि फ्लोचार्ट क्या होता है, हमने तो यह सॉफ्ट वेयर बनाया है, आप उसकी हार्ड कॉपी देख लें | मेडम को अपने कानों पर भरोसा नहीं हुआ, पर मेरे परिश्रम को देखकर उन्हें दया आई | बोलीं कि हम आपको ट्रायल बेस पर एक डीसी का काम देते हैं | यदि सफल रहे तो आगे विचार करेंगे | 

उन्होंने एक पत्र इस हेतु से तत्कालीन एसई मंडलोई साहब को लिख दिया | पत्र लेकर अपने राम एसई साहब के पास गए, तो उन्होंने अपने सभी अधीनस्थ एक्जीक्यूटिव इंजीनियरों को लिख दिया कि पेबिल का कम्यूटराईजेशन होने वाला है, अतः सहयोग करें | 

पत्र का असर यह हुआ कि पहले ही महीने मेरे पास पूरे सर्किल का डाटा आ गया, जबकि ऑर्डर एक डीसी का था | मैंने भी बिना सोचे बिचारे पूरा डाटा फीड कर दिया और पेबिल बनाना शुरू कर दिया | तीन महीने बाद फिर पहुंचे जबलपुर मेडम ताम्रकार के पास | उन्हें सारी वस्तुस्थिति बताई, और भुगतान के लिए निवेदन किया | उन्होंने हैरत से कहा - क्या बात करते हो, आपने पूरे सर्किल का काम तीन महीने तक कर दिया ? उन्हें भरोसा नहीं हुआ और मेरे सामने ही एसई महोदय को फोन लगाया | एसई महोदय ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन्हें सूचित किया कि सारा काम बडा व्यवस्थित हो रहा है, विभाग का बड़ा सरदर्द कम हो गया है | 

मेडम ने ईडीपी मेनेजर शान्तिप्रकाश जी को जानकारी दी | उन्हें भी आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई | और हमारा पेमेंट तो हो ही गया | 

बैसे सच कहूं कि उन दिनों व्यस्तता की पराकाष्ठा थी | पेबिल का पूरा डाटा अकेले ने फीड किया था | तो हालत यह थी कि मेरी बेटी शुभा ही मुझे भोजन अपने हाथ से कराती थी | मुझे ग्रास तोड़ने की भी फुर्सत नही हुआ करती थी | लगातार 15 - 15 घंटे कम्यूटर पर बैठा | 1989 से 1998 तक लगातार 9 वर्ष कम्यूटर ने मुझे व्यस्त रखा, सार्वजनिक जीवन से भी पूरी तरह पृथक | उन दिनों राजपरिवार की नाराजगी के चलते बैसे भी राजनीति से अलग रहना ही था | बाद में जब श्री कैलाश जी जोशी ऊर्जा मंत्री बने तब विद्युत बिल का काम भी मिल ही गया | 

क्यों हैरत हुई ना ? जिन कैलाश जी की बात न मानकर मैंने शिवपुरी विधानसभा चुनाव में पार्टी के अधिकृत प्रत्यासी सुशील बहादुर अष्ठाना का विरोध किया, पार्टी से निलंबित हुआ, उन्हीं जोशी जी ने मुझे काम दिया ! और काम भी वह जिसे ग्वालियर में विवेक शेजवलकर जी(वर्तमान माहापौर), और इंदौर में मिलिंद महाजन (लोकसभा अध्यक्षा सुमित्रा महाजन जी के सुपुत्र) कर रहे थे ! स्पष्ट ही मेरे आचरण को संगठन ने सकारात्मक ही माना ! किन्तु मैंने स्वयं को राजनीति से अलग रखते हुए स्वयं को दण्डित किया !


एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें