नमामि माँ नर्मदे





हमारा देश आज जैसा है, सदा वैसा ही नहीं रहा । आज जहाँ हिमालय है, करोड़ों वर्ष पूर्व वहॉं उथला समुद्र था । किसी भूकंप ने उसे हिमालय में बदल डाला, हालॉकि इसमें लाखों वर्ष लगे । इसी प्रकार आज जहाँ नर्मदा है, वहाँ चार करोड़ वर्ष पूर्व अरब सागर का एक सॅकरा हिस्सा लहराता था । इसीलिए नर्मदा घाटी में दरियाई घोड़ा,दरियाई भैसा, राइनोसोरस जैसे समुद्री पशुओं के जीवाश्म तथा मानव के विलुप्त पूर्वजों के अस्थि-पंजर भी पाए गए है ।

नर्मदा तट पर मोहन जोदड़ो या हड़प्पा जैसे 5,000वर्ष प्राचीन नगर नहीं रहे, लेकिन भीमबेटका में 20,000 वर्ष पुराने प्रागैतिहासिक चित्र पाये गए है । शायद इसका कारण यह रहा होगा क्योंकि नर्मदा तट पर दण्डकारण्य जैसे घने जंगलों की भरमार रही । नर्मदा आर्यावर्त की सीमारेखा बनी । भारतीय संस्कृति मूलतः आरण्यक संस्कृति है । नर्मदा के तटवर्ती वनों में मार्कण्डेय, भृगु,कपिल, जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे । यहाँ की यज्ञवेदियों का धुऑ आकाश में मॅडराता रहता था । ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा -तट पर ही करनी चाहिए ।

भारत की सात प्रमुख नदियों में से एक नर्मदा का पौराणिक गाथाओं में विशेष स्थान है । स्कन्दपुराण का रेवा-खंड तो पूरा नर्मदा को ही अर्पित है । पुराण कहते है कि जो पुण्य गंगा में स्नान करने से मिलता है,वह नर्मदा के दर्शन मात्र से मिल जाता है । भारत की अधिकांश नदियॉ पूर्व की ओर बहती है, किन्तु नर्मदा पश्चिम की ओर । अमरकंटक में दो नदियों का उद्गम है | नर्मदा और सोन का उद्‌गम पास-पास है लेकिन दोनों के बहाने की दिशा अलग अलग है | नर्मदा पश्चिम की ओर बहती है तो सोन पूर्व में - बिलकुल विपरीत दिशाओं में । इसे लेकर पुराणों में एक सुन्दर कहानी है । उसके अनुसार नर्मदा और सोन ( यानी शोणभद्र, जिसे उन्होने नद माना है ) का विवाह होने वाला था । पर शोण दासी जुहिला पर ही आसक्त हो बैठा, नाराज नर्मदा कभी विवाह न करने के संकल्प के साथ पश्चिम की ओर चल दी । लज्जित और निराश शोण पूर्व की ओर गया । 

चिरकुमारी नर्मदा को भक्तगण अत्यंत पवित्र नदी मानते हैं और उसकी परिक्रमा करते हैं । यह परिक्रमा भिक्षा मॉगते हुए नंगे पैर करनी पड़ती है और नियमानुसार करने पर इसमें 3 वर्ष,3 महीने और 13 दिन लगते हैं । पुरूषों के अलावा स्त्रियॉ भी यह कठिन परिक्रमा करती हैं ।
नर्मदा तट गिरि,जन और वन जातियों की प्राचीन लीला-भूमि रहा । आज भी यहाँ पर बैगा, गोंड,भील आदि माटी से जुड़ी जनजातियॉ निवास करती है । इनकी जीवन –शैलियों, नृत्यों तथा अन्य प्रथाओं ने दूर-दूर के लोगों को आकृष्ट किया है ।

अमरकंटक से निकली नर्मदा खडडों में कूदती, निकुंजों में धॅसती, चटटानों को तराशती और वन-प्रांतरों की बाधा तोड़ती भगती चली गई । मूसलाधार वृष्टि में उफनती, बसंत में मैं मंथर गति से बहती और गरमियों में तो इसकी बस सॉस भर चलती हैं । प्रत्येक नदी का सर्वाधिक मूल तत्व पानी होता है । लेकिन यही नर्मदा का सबसे कमजोर तत्व है । बरसात में तो उफन पड़ना , पर गरमी में सूखकर काँटा भर रह जाना इसकी नियति है ।

बड़ी अप्रत्याशित नदी है नर्मदा - आज कुछ,कल बिलकुल दूसरी । कब चौड़ी से सॅकरी, द्रुत से विलंबित, गहरी से अथली या नन्हीं-नाजुक में से जुझारू हो जाये कुछ कहा नहीं जा सकता । उद्‌गम-स्थल अमरकंटक में उसके दो प्रपात हैं - कपिलधारा और दूधधारा । जबलपुर के पास धुऑधार सबसे सुन्दर प्रपात हैं । यहाँ से चटटानी बाधाओं को काटती संगमरमर की संकरी घाटी में सिमट जाती नर्मदा का सौन्दर्य, नौकाविहार करते दर्शकों को अनायास बॉध लेता है, सम्मोहित कर देता है । धावड़ीकुंड के प्रपातों का सौन्दर्य भी कम नहीं । यहाँ से निकले शिवलिंग सारे देश में पूजे जाते हैं ।

ओंकारेश्वर और महेश्वर जैसे पवित्र तीर्थ और उसके बाद शूलपाण की झाड़ी । नाम झाड़ी, पर एक पेड़ नहीं । नंगी पहाडियों वाला यह प्रदेश आबादी से प्रायः शून्य है । यहाँ के गरीब भील आदिवासी किसी तरह अपना अस्तित्व बनाए हुए है ।

पश्चिम भारत का सबसे बड़ा बंदरगाह भरूच इसके ही मुहाने पर स्थित है । किसी जमाने में सौदागरों और जहाजियों की यहाँ भीड़ लगी रहती थी । किन्तु जिस पाट में कभी सैकड़ों जहाजों का आना जाना लगता रहता था, वही पाट आज खाली पड़ा है ।

अमरकंटक में नर्मदा की कैसी मामूली-सी शुरूआत थी । वहाँ तो एक बच्चा भी लांघ जाता, किन्तु अरब सागर से मिलन स्थल खंभात की खाड़ी में पाट 20 किलोमीटर चौड़ा है । यह तय करना कठिन है कि कहाँ नदी का अंत है और कहाँ समुद्र का आरंभ । एकदम मानव जीवन के समान | कभी घी घना तो कभी मुट्ठी चना |

आज नर्मदा किनारे वन्य एवं पर्वतीय रमणीयता बहुत कम रह गई है | घने जंगल जड़ से काट डाले गए हैं । पहले इन जंगलों में जगली जानवरों की गरज सुनाई देती थी, अब पक्षियों का कलरव तक सुनाई नहीं देता । उन दिनों तट पर पशु-पक्षियों का राज्य था, लेकिन उसमें अब आदमी का राज्य हो गया है, जिसमें पशु -पक्षी के लिए कोई जगह नहीं ।

पानी भी उतना निर्मल और पारदर्शी नहीं रहा ।
फुलों और दूर्वादलों से सुवासित स्वच्छ हवा भी नहीं रही ।

स्वच्छंद हरिणी-सी नर्मदा पर अनेक बाँध बांधकर उसकी स्वच्छंदता को छीन लिया गया है । कहा जा सकता है कि अकाल-ग्रस्त भूखे-प्यासे लोगों, पानी और चारे के लिए तड़पते पशुओं और बंजर पडे़ खेतों की खातिर ये बाँध बनाने आवश्यक हैं | इनसे निकली नहरों के माध्यम से खेतों की प्यास बुझेगी । धरती भी सुजला-सुफला बनेगी । किन्तु आज माँ नर्मदा के पावन जन्म दिवस पर (पता नहीं कितनी करोड़वी वर्षगॉठ) उसे निर्मल स्वच्छ रखने का संकल्प तो हम ले ही सकते हैं | 

याद रखो, पानी की हर बूँद एक चमत्कार है । हवा के बाद पानी ही मनुष्य की सबसे बड़ी आवश्यकता है । किन्तु पानी दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है । नदियॉ सूख रही है । उपजाउ जमीन ढूहों में बदल रही है । आए दिन अकाल पड़ रहे है । खेद हैं, यह सब मनुष्यों के अविवेकपूर्ण व्यवहार के कारण हो रहा है । अभी भी समय है । वन-विनाश बंद करों । बादलों को बरसने दो । नदियों को स्वच्छ रहने दो । समस्त प्रकृति के प्रति प्यार और निष्ठा की भावना रखो । क्योकि प्रकृति से हमें अनवरत प्यार दुलार मिलता रहा है । प्रकृति की खुशी से ही हमें खुशी मिल सकती है!


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