मोदीजी का आदर्श कौन - नेहरू या शास्त्री ?


1962 में चीन के हाथों हुई अपमान जनक पराजय के बाद पाकिस्तान को लगा कि भारत की सामरिक शक्ति कमजोर है, और वह स्वयं भी भारत को धुल चटा सकता है | भारत को पराजित कर सम्पूर्ण कश्मीर को हथिया सकता है | उसे अमरीका द्वारा खैरात में मिले हुए शस्त्रास्त्रों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा हो गया था | सितम्बर 1965 में इसी मानसिकता के चलते भारत पाकिस्तान युद्ध हुआ | यह अलग बात है कि लाल बहादुर शास्त्री जी के कुशल नेतृत्व और भारतीय जांबाज सैनिकों की बहादुरी से पाकिस्तान की हसरत पूरी नहीं हो सकी |

लेकिन इस युद्ध ने जो बातें स्पष्ट कीं, वे आज भी विचारणीय और ध्यान में रखने योग्य हैं | एक तो अमरीका की पाकिस्तान समर्थन की नीति, और दूसरे भारत के प्रति स्पष्ट दुर्भाव | युद्ध काल में अमरीका के कुछ जहाज भारत के लिए कुछ सामग्री लेकर, भारतीय तट की ओर बढ़ रहे थे | जब वे तट से मात्र 15 कि.मी. दूर रह गए थे, तब अमरीका ने उन्हें वापस लौटने का आदेश दे दिया | इतना ही नहीं तो जब भारतीय सैनिक पाकिस्तान की राजधानी लाहौर जीतने ही वाले थे, उस समय अमरीका ने भारत की खाद्य सामग्री रोकने कि धमकी देकर युद्ध विराम के लिए बाध्य किया | 

उस समय भारत में खाद्यान्नों की भारी कमी थी | उस स्थिति से निबटने के लिए शास्त्री जी ने “जय जवान-जय किसान” का नारा दिया | इतना ही नहीं तो खाद्यान्न की कमी से निबटने के लिए स्वयं एक समय उपवास करना और देश को भी उसके लिए प्रेरित करने जैसे कदम उठकर उस परिस्थिति का होंसले और हिम्मत से मुकाबला किया | आज अगर देश खाद्यान के मामले में आत्म निर्भर है तो उसके पीछे शास्त्री जी द्वारा किसानों का मनोबल उठाया जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण है | उस समय कि स्थिति का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध अर्थ शास्त्री श्री वी.पी.दत्त ने लिखा था – “पतली होती खाद्यान्न की टोकरी और लम्बी होती क्षुधा रेखा ने बड़ी मात्रा में खाद्यान्न का आयात आवश्यक कर दिया” |

लेकिन दुर्भाग्य पूर्ण तथ्य यह है कि उस समय की चुनौतियों से भारत ने कोई सबक नहीं सीखा | देश की विशाल आबादी को भोजन मुहैया कराने की चुनौतियों के बीच पिछले तीन दशकों में कृषि योग्य भूमि का रकबा 54 लाख हेक्टेयर कम हुआ है।

कृषि मंत्रालय की 2011-12 की रिपोर्ट के अनुसार, खाद्यान्न का उत्पादन 1990-91 में 42 प्रतिशत से घटकर 2009 -10 में 34 प्रतिशत रह गया । जाने माने कृषि वैज्ञानिक प्रो. एमएस स्वामिनाथन ने कहा कि अगर खाद्यान्न का उत्पादन नहीं बढ़ता है तो भारत को आने वाले समय में गंभीर समस्या का सामना करना पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि कृषि योग्य भूमि का रकबा घट रहा है, खेती में रूचि कम हो रही है और कृषि लागत बढ़ रही है। ऐसे में सरकार को किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए दीर्घावधि कृषि नीति तैयार करना चाहिए। 

1962 में भारत ने हरित क्रांति की रणनीति अपना कर खाद्यान्न उत्पादन में स्वावलंबन प्राप्त करने की दिशा में जो प्रगति की, इसके फलस्वरूप खाद्यान्न उत्पादन 1960-61 में 8.2 करोड़ टन से बढ़कर 2011-12 में 25 करोड़ टन हो गया। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कृषि योग्य भूमि के रकबे में लगातार गिरावट दर्ज की गई है। यह 1979 के 16.34 करोड़ हेक्टेयर से घटकर 2009 में 15.80 करोड़ हेक्टेयर रह गया है। पिछले तीन दशकों में कृषि योग्य भूमि का रकबा 54 लाख हेक्टेयर कम हुआ है।

वर्तमान नेतृत्व से बहुत आशायें थी, किन्तु जिस प्रकार विकास के नाम पर शहरीकरण की तात्कालिक अंधी दौड़ चल रही है, वह देश के दीर्घकालिक हितों से आँखें मींचने जैसा ही है | अमरीका आज भी भारत को आत्मनिर्भर देखना नहीं चाहता | यही कारण है कि कहीं पर्यावरण के नाम अमरीकी वित्त पोषित एनजीओ हल्ला मचाते हैं और सूखे ठूंठों के अभयारण्यों में कृषि कार्य की वर्जना हो जाती है | तो कहीं आलीशान कंक्रीट के जंगल बनाने के नाम पर कृषि भूमि का लगातार प्रत्यावर्तन जारी है | प्रत्यावर्तन चाहे आवासीय कॉलोनी बनाने के लिए हो, चाहे बड़े उद्योगों के लिए अधिग्रहण के नाम पर हो | शहरों का अंधाधुंध बढ़ना और गाँवों का सिकुड़ना लगातार कृषि भूमि को कम करता जा रहा है |

कहीं ऐसा न हो कि विश्व का भरण पोषण करने में समर्थ कहे गए भरत के देश भारत में पैदा होने वाले नौनिहाल अन्न के दानों को तरसने लगें | हम मोदी जी में लालबहादुर का अक्स देखना चाहते थे, किन्तु दुर्भाग्य से उन्होंने रास्ता नेहरू जी वाला ही चुन लिया है | काश वे समय रहते सचेत हो पाएँ | वे लगातार 14-15 घंटे देशसेवा के कार्य में जुटे रहते हैं, किन्तु अगर नीतियाँ ठीक न रहीं तो वह कहावत ही चरितार्थ होगी - "रात भर पीसा-कुए में धकेला" | उनका परिश्रम व्यर्थ न जाए, इसकी हर भारतवासी कामना भी करता है, प्रार्थना भी |

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