सन्यासी योद्धा - प.पू. श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर (जन्मदिवस पर विशेष)



श्री गुरू जी कहते थे कि डाक्टर साहब द्वारा दिए गए मन्त्र की व्याख्या करने बाले हिंदू समाज के संगठन से ही भारत का कल्याण होगा ! डाक्टर साहब और श्री माधव सदाशिव राव गोलवलकर “गुरूजी”, दोनों में भिन्नता थी ! एक हृष्टपुष्ट तो दूसरे साधुसंत, एक क्रांतिकारी तो दूसरे आध्यात्मिक ! डाक्टर साहब ने राजनैतिक, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा क्रांतिकारियों के साथ काम करते हुए संघ की स्थापना की ! गुरूजी ने संघ चालक बनने के पूर्व ऐसा कोई जीवन नहीं जिया ! किन्तु ५-७ वर्षों में ही डाक्टर साहब के अन्तरंग को आत्मसात कर लिया ! कुछ समानताएं भी थीं ! दोनों गरीब परिवार से, वेदपाठी परिवार से ! श्रेष्ठ संस्कार बचपन से ही दोनों को मिले ! दोनों को व्यायाम से मोह ! खिलाड़ी, तैराक, मलखम्ब पटु ! दोनों ने समाज के बारे में सोचकर व्यक्तिगत जीवन जिया !
१९ फरवरी १९०६ माघ कृष्ण विजया एकादशी को जन्मे श्री गुरू जी के पिता जी का नाम सदाशिवराव तथा माँ का नाम लक्ष्मी बाई था | कोंकण महाराष्ट्र के गोलवली नामक स्थान के मूल निवासी होने के कारण आगे चलकर वे गोलवलकर कहलाये | वे अपने माता पिता की ९ संतानों में से एकमात्र जीवित संतान थे | बचपन से मातृभूमि भक्ति के संस्कार माँ से उन्हें मिले | एक बार जमीन में कील ठोकते देखकर माँ ने कहा जिस प्रकार मैं तुम्हें जन्म देने वाली माँ हूँ उसी प्रकार भूमि भी हम सबकी माँ है | पिताजी पहले डाकतार विभाग की सेवा में थे, परन्तु जब माधव केवल दो वर्ष का था तब उन्होंने अपनी रूचि के अनुरूप शिक्षक बनना तय किया | इसके लिए उन्हें छत्तीसगढ़ के एक छोटे से ग्राम में रहना पड़ा | जो ज्ञानपिपासा पिता में थी वही आगे चलकर माधव में प्रगट हुई | 
गुरूजी की प्रारंभिक शिक्षा चंद्रपुर में हुई | इंटर की परिक्षा में अंग्रेजी में विशेष योग्यता के चलते उन्हें पुरष्कृत किया गया | 1922 से उन्होंने हिस्लॉप महाविद्यालय में आगे की पढाई की | भारतीय संस्कृति के अनुरूप शिक्षा देने हेतु प. मदनमोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में चार वर्ष रहकर 1928 में प्राणीशास्त्र में एम.एस.सी करने के बाद उन्होंने मत्स्य जीवन पर शोध कार्य चेन्नई में रहकर किया | यद्यपि यह कार्य अपूर्ण रहा | युवावस्था में भरपूर व्यायाम किया | मलखम्ब, तैराकी उनके प्रिय शौक थे | विद्यापीठ के ग्रंथालय का लाभ उठाकर उन्होंने इतिहास, समाजशास्त्र के साथ तत्वज्ञान का भी अध्ययन किया | स्वामी विवेकानंद को पढ़ने का अवसर मिला, रामकृष्ण परमहंस के जीवन से परिचय हुआ | प्रखर राष्ट्रभक्ति और आध्यात्मिकता दोनों का समुच्चय बनाते गए माधव सदाशिवराव गोलवलकर | भगतसिंह, राजगुरू और सुखदेव ने जब लाहौर में अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की ह्त्या की तथा वह समाचार जंगल में आग की तरह सब दूर फैला, तब गुरूजी ने अपने मित्रों को लम्बे चौड़े पत्र लिखे : “लाहौर का विस्फोट सुना, अपरंपार धन्यता का अनुभव हुआ | अंशतः ही क्यों न हो, उन्मत्त विदेशी शासकों द्वारा किये गए राष्ट्रीय अपमान का परिमार्जन हो गया |”
28 फरवरी 1929 को एक पत्र में उन्होंने लिखा है, “मैंने संन्यास तो ले ही लिया है, परन्तु अभी वह दीक्षा पूरी नहीं हुई है | हिमालय में निकल जाने का मेरा पूर्व का विचार शायद उतना निर्दोष नहीं है | लौकिक जीवन में रहते हुए, जगत के सारे व्याप सहन करते हुए, सभी प्रकार के कर्तव्य उचित रीति से पूरे करते हुए, अपने रोम रोम में सन्यस्त वृत्ति आत्मसात करने का प्रयत्न अब मैं कर रहा हूँ |” 
माधव ने आगे लिखा है, “मैं अब हिमालय जाने वाला नहीं हूँ | हिमालय मेरे पास आयेगा | उसकी नीरव शान्ति मेरे ही अंतर में निवास करेगी | उस नीरव शान्ति की प्राप्ति हेतु अन्यत्र कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है |” एक बाईस वर्षीय नवयुवक के ये स्वतः स्फूर्त विचार, मानसिक धारणा की यह उड़ान सामान्य श्रेणी की नहीं कही जा सकती | उपरोक्त पत्र में वर्णित उदगारों में विवेकानंद जी के विचारों की स्पष्ट प्रतिध्वनी है | बाद में काशी में ही प्राध्यापक कार्य मिला | जरूरतमंद विद्यार्थियों की पठन पाठन में तथा आर्थिक मदद करते रहने के कारण इन्हें प्रेम और अपनत्व से गुरू जी कहा जाने लगा | उन्हीं दिनों भैया जी दानी अध्ययन व संघ कार्य के निमित्त काशी भेजे गए | वहीं गुरू जी का सर्व प्रथम संघ से संपर्क आया | बाद में पिता जी के सेवा निवृत्त व अस्वस्थ होने पर गुरूजी वापस नागपुर पहुंचे | नागपुर में अपने मामा जी की कोचिंग कक्षा में पढ़ाते व साथ में एल एल बी का अध्ययन भी करते रहे | 1935 में वकालत की परिक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उस व्यवसाय की नाम पट्टिका कुछ समय के लिए अपने आवास पर लगाई जरूर, किन्तु उनका मन लौकिक व्यवहार में रम नहीं रहा था | नागपुर में उनका संघ सम्बन्ध बना रहा | तुलसी बाग़ शाखा के कार्यवाह बने | डाक्टर साहब से भी सम्पर्क बढ़ा | १९३८ संघ शिक्षा वर्ग में सर्वाधिकारी बने |
मूल पिंड अध्यात्मिक था | काशी में ही रामकृष्ण मिशन से सम्बंधित हो गए थे | नागपुर से बिना किसी को बताये माता पिता को पत्र लिखकर विवेकानंद जी के गुरू भाई अखंडानंद जी के सारगाछी आश्रम पहुँच गए | आश्रम के सभी कार्य यथा सफाई, बर्तन मांजने आदि कार्य भी मन लगाकर करते | एक शिष्य ने एक बार अखंडानंद जी से कहा, यह एमएससी विद्यार्थी पीतल के बर्तन भी ऐसे चमकाता है मानो सोने के हों | अखंडानंद जी ने कहा कि यह जो भी कार्य करेगा उसे चमकाएगा |
१९३७ में गुरूजी जी की संन्यास दीक्षा हुई | अखंडानंद जी का स्वास्थ्य बिगड़ने पर उनके हाथ पैर दाबते, उनके सोने के बाद सोते, जागने से पहले जागते | अमिताभ महाराज के पूछने पर एक बार अखंडानंद जी ने कहा कि मुझे लगता है कि माधव राव डाक्टर साहब के साथ समाज कार्य ही करेगा |
अखंडानंद जी के स्वर्गवास होने के बाद गुरूजी अनमने होकर वापस नागपुर आये | माता पिता का विवाह का आग्रह टालकर वे डाक्टर हेडगेवार जी के आग्रह को मान्यकर कुछ समय के लिए मुम्बई गए और वहां संघ कार्य विस्तार हेतु कार्य किया |
शिंदी में संघ के नए पुराने लोगों की बैठक में गुरूजी भी सम्मिलित हुए | आठ आठ घंटे बैठक चलती, एक एक विषय पर गंभीर विचार मंथन होता | कई बार गुरू जी का अभिमत न माना जाता, फिर भी गुरू जी शांत सामान्य रहते, बैठक उपरांत सबसे हंसते बोलते | बैठक के पश्चात रक्षाबंधन के कार्यक्रम में गुरू जी को सर कार्यवाह बनाया गया |
१९ जून १९४० को डाक्टर साहब के स्वर्गवास के बाद उनकी इच्छानुसार गुरूजी सर संघ चालक बने | डाक्टर साहब के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अप्पाजी जोशी के पास कुछ विघ्न संतोषी लोग पहुंचे तथा कहा कि आप जैसे वरिष्ठ व्यक्ति के स्थान पर माधव राव जैसे नए व्यक्ति को सर संघ चालक बनाया गया, यह ठीक नहीं हुआ | अप्पाजी ने कहा कि मैं अगर डाक्टर साहब का दाहिना हाथ था तो गुरू जी तो उनका ह्रदय हैं | विरोधी अपना सा मुंह लेकर रह गए |
प्रारम्भ में लोग गुरूजी को जानते नहीं थे ! लोगों ने सोचा अब संघ का क्या होगा ! व्यक्ति समाप्त तो संगठन समाप्त ! किन्तु गुरूजी ने कहा कि जिस सिंहासन पर बैठा हूँ, बहां से गडरिये का लड़का भी काम चला सकता है ! लोगों में विश्वास पैदा हुआ !
द्वितीय विश्वयुद्ध की उथलपुथल का लाभ ले मुसलमानों ने देश में दंगे प्रारम्भ किये ! कांग्रेस ने भी १९४२ में भारत छोडो आंदोलन की घोषणा की ! स्वयंसेवक संगठन के रूप में नहीं किन्तु व्यक्तिगत रूप से आंदोलन में सम्मिलित हुए ! अपरिपक्व नेत्रत्व और योजना के अभाव में आंदोलन असफल हुआ ! एसे समय में गुरूजी ने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन किया, उन्हें प्रेरणा दी ! हिन्दू मुस्लिम विवाद के कारण संघ कार्य तेजी से फैला ! १९४६ में मुस्लिम लीग ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा कर दी ! गुरूजी ने मुस्लिम अत्याचारों के खिलाफ हिंदुओं में चेतना जगाई ! १९४६ में ही गांधी ने कहा कि भारत विभाजन मेरी लाश पर होगा, किन्तु १९४७ में विभाजन हो गया ! 
विभाजन की त्रासदी में गुरूजी ने स्वयंसेवकों से कहा कि वे तब तक स्थान ना छोड़ें जब तक हर हिन्दू सुरक्षित ना हो जाए ! हजारों स्वयंसेवकों ने बलिदान दिया ! समाज में संघ एवं गुरूजी के प्रति आदर का भाव तथा सत्ता में नए नए पहुंचे नेतृत्व के प्रति अनास्था का भाव बढ़ने लगा ! बौखलाकर सत्ताधीशों ने झूठे आरोप में संघ पर प्रतिवंध लगा दिया ! ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम गोडसे ने सायं ५ बजे विरला भवन में गांधीजी की ह्त्या की ! गुरूजी उस समय मद्रास में थे ! उन्होंने कहा यह ठीक नहीं हुआ ! देहली के प्रचारक पी.एन. ओक, संघचालक लाला हंसराज गुप्त ने घटना पर शोक व्यक्त किया ! गुरूजी वापस नागपुर आये, किन्तु उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया ! उन जैसे सात्विक, आध्यात्मिक व्यक्ति पर धारा ३०२ में ह्त्या का मुकदमा दर्ज किया गया ! 
गांधी ह्त्या को निमित्त बनाकर स्वयंसेवकों की अकारण गिरफ्तारी हुई ! पुलिस रिकार्ड में इसे आर एस एस हंट नाम दिया गया ! सेक्शन ९ के अंतर्गत ३० हजार लोग गिरफ्तार किये गए ! बिदआउट वारंट, कहाँ ले जा रहे हैं परिवार को पता नहीं, कब छूटेंगे यह भी पता नहीं ! संघ कार्यालयों पर तथा स्वयंसेवकों पर आक्रमण हुए ! महाराष्ट्र में तो हर ब्राह्मण का घर जलाया गया ! १५०० गाँवों में डेढ़ लाख लोगों को सताया गया ! संघचालक भालजी पेंढारकर का फोटो स्टूडियो जला कर ख़ाक कर दिया गया ! पत्रकारों ने पूछा कि क्या अब भी संघ से जुड़े रहेंगे ? उन्होंने कहा संघ छोडने का प्रश्न ही नहीं ! एक स्वयंसेवक को शादी के मंडप से गिरफ्तार किया गया ! एक बेचारे नाई को पकड़ा गया, उसका कसूर सिर्फ इतना था कि उसकी दूकान का नाम राष्ट्रीय केश कर्तनालय था ! कोपरगांव के एक घर से पुलिस को एक कागज़ मिला जिस पर पैनबाम बनाने की विधि लिखी हुई थी ! पुलिस ने पैन बाम को पेन बम मानकर गृहस्वामी को बंद कर दिया ! अपनी मां की अंत्येष्टि में शामिल पुत्र को श्मशान से गिरफ्तार किया गया ! संघ चाहता तो उत्तर दे सकता था, किन्तु गुरूजी ने कहा हिन्दू समाज मेरा अपना है ! दांतों से जीभ कट जाए तो कोई दांत नही तोडता ! कोई प्रतिकार ना हो ! धैर्य से सबने कष्ट सहे, बलिदान दिए !
५ फरवरी को संघ पर प्रतिवंध घोषित हुआ और ६ फरवरी को गुरूजी ने संघ को विसर्जित करने की घोषणा की ! फिर भी स्वयंसेवक एकत्रित हो स्थिति की समीक्षा करते रहे ! लाल किले के खुले सभाग्रह में मुक़दमा चला ! तीन कमीशन बने ! न्यायमूर्ति आत्माचरण ने छः महीने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी ! उसमें गोडसे, सावरकर तथा ग्वालियर के मदनलाल पाहवा सहित दस लोगों के नाम थे ! संघ का कोई उल्लेख भी नहीं था ! नाथूराम गोडसे ने वयान दिया कि बह संघ का आलोचक था, क्योंकि संघ राजनीति में आने को तैयार नहीं था ! महात्मा गांधी जब जिन्ना से मिलने वर्धा जा रहे थे तब भी उसने उनके सामने प्रदर्शन किया था ! गांधीजी द्वारा अनशन कर पाकिस्तान को दिलबाये गए ५५ करोड रु. भी ह्त्या का कारण था !
हत्यारे पकडे गए, उन्होंने आरोप भी स्वीकार कर लिया, न्यायालय में सिद्ध भी हो गया ! नारायण आप्टे तथा नाथूराम गोडसे को फांसी, विष्णु करकरे एवं गोपाल गोडसे को आजन्म कारावास की सजा हुई ! सावरकर रिहा हुए ! ६ अक्टूबर १९४८ को गुरूजी भी मुक्त हुए, किन्तु अनेक प्रतिवंधों के साथ ! कहीं आने जाने पर प्रतिवंध, किसी से मिलने जुलने पर प्रतिवंध ! उन्होंने कहा कि – ओनली माय प्रिजन वाज एक्सपेंडेड ! गुरूजी ने प्रतिवंध समाप्त करने के लिए पटेल से दो बार मुलाक़ात की ! उन्होंने कहा संघ का कांग्रेस में विलय कर दो ! यह प्रस्ताव मानने का कोई प्रश्न ही नहीं था ! गुरूजी ने कहा भी कि संघ राजनैतिक नहीं सांस्कृतिक संगठन है ! सरकार अच्छे काम करेगी तो समर्थन करेंगे ! पर बात बनी नहीं ! 
फिर सत्याग्रह की योजना बनी ! पत्र निकाला कि सर कार्यवाह भैयाजी दाणी के नेतृत्व में स्वयंसेवक सत्याग्रह करें ! आकाशवाणी पर घोषणा कर दी गई कि नवंबर १९४८ से संघ पुनः अस्तित्व में आया ! गुरूजी फिर गिरफ्तार कर लिए गए ! नागपुर में सोलिटरी कंसाइनमेंट ! एकदम अकेले ! भोजन पत्राचार सब जेलर के माध्यम से !
सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ ! सीधी सरल प्रक्रिया ! चोक में ध्वज लगाकर प्रार्थना होती, एक स्वयंसेवक का भाषण, फिर नारे – गुरूजी को रिहा करो, संघ पर से प्रतिवंध हटाओ ! आजादी की लड़ाई में हुई गिरफ्तारियों से भी अधिक गिरफ्तारी हुईं ! १५५०० गाँवों में सत्याग्रह हुआ ! छोटे बच्चे भी गिरफ्तार हुए ! बंगाल के चीफ जस्टिस का बेटा गिरफ़्तारी देने जाने लगा तो पिता ने कहा माफ़ी मांगकर मत आना ! अंततः सरकार झुकी ! लिखित संविधान की मांग का बीच का रास्ता निकाला गया ! वेंकटराव शास्त्री, बाला साहब देवरस, एकनाथ रानाडे, दीनदयाल उपाध्याय ने संविधान का ड्राफ्ट तैयार किया और संविधान शासन को भेज दिया गया ! ११ जुलाई को पत्र पहुंचा और १२ जुलाई को संघ पर से प्रतिवंध हटा दिया गया !
सुवर्ण तेज से संघ फिर समाज में प्रतिष्ठित हुआ ! नागपुर और दिल्ली में गुरूजी का अद्भुत स्वागत हुआ ! हर रेलवे स्टेशन पर अपार जन समूह उमडा ! बी.बी.सी. ने कहा कि नेहरू और पटेल से भी बड़ी सभाएं उनकी हुईं ! इस संकट से निकलने के बाद ५१ वीं जन्मतिथि पर देश भर में प्रवास कार्यक्रम हुए ! कश्मीर के विलय के मुद्दे पर गुरूजी ने बहां के राजा को प्रभावित कर उसे भारत के साथ विलयपत्र पर हस्ताक्षर हेतु राजी किया ! किन्तु दुर्भाग्य से नेहरू की गलती से यूएनओ में जाने कारण आधा काश्मीर आज भी विवादित है ! गुरूजी ने चीन को लेकर भी चेतावनी दी ! किन्तु दुर्लक्ष्य हुआ ! हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे लगते रहे और देश का ६४००० वर्ग कि.मी. भू भाग हाथ से निकल गया ! सबकी समझ में आ गया कि नेहरू की नीतियां गलत हैं ! १९६३ में ३००० गणवेशधारी स्वयंसेवक २६ जनवरी की परेड में शामिल हुए !
चीन से हुई भारत की पराजय देखकर पाकिस्तान के होंसले भी बढ़ गए और १९६५ में उसने भारत पर आक्रमण कर दिया ! विवेकानंद शिला स्मारक के माध्यम से हिन्दू समाज को आत्मगौरव की स्थिति में लाकर खडा करने का प्रयत्न हुआ ! १९७१ में पाकिस्तान के दो टुकड़े होने पर गुरूजी ने फिर चेतावनी दी और बंगलादेशी घुसपैठियों की समस्या को रेखांकित किया ! दुश्मन एक की जगह दो हो गए हैं, यह भी कहा !
अन्य कार्यों के माध्यम से संघ को विस्तार मिला ! गौहत्यावंदी हस्ताक्षर अभियान में ८८००० गाँवों के लोग सम्मिलित हुए तथा एक करोड पिचहत्तर लाख हस्ताक्षर राष्ट्रपति को सोंपे गए ! बहुत बड़ी रैली दिल्ली में हुई ! १९५६ में भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन को गुरूजी ने दुर्भाग्यपूर्ण बताया ! उसके दुष्परिणाम आज सबके सामने हैं ! पंजाब में स्वयंसेवकों को अपनी भाषा पंजाबी लिखाने का आग्रह किया, जिसके कारण सामाजिक सद्भाव बढ़ा !
अस्प्रश्यता के खिलाफ गुरूजी ने सामाजिक समरसता की मुहिम चलाई ! साधू संतों को इस हेतु एक मंच पर लाये ! ६५ में संदीपनी आश्रम तथा उसके बाद ६६ के इलाहावाद कुम्भ में आयोजित धर्म संसद में सभी शंकराचार्यों एवं साधू संतों की उपस्थिति में घोषणा हुई – ना हिन्दू पतितो भवेत ! ऊंचनीच गलत है सभी हिन्दू एक हैं ! परावर्तन को भी मान्यता मिली ! गुरू जी ने सतत प्रवास व प्रयास कर १९६९ में उडुपी में जैन, बौद्ध, सिक्ख सहित समस्त धर्माचार्यों को एकत्रित किया | मंच से जब घोषणा हुई -
“हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत, मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता”
यादव राव जी के कथानानुसार कि यह वह अवसर था जब गुरू जी अत्यंत प्रसन्न देखे गए | गुरूजी ने उसे अपने जीवन का श्रेष्ठ क्षण बताया ! इस प्रकार हिन्दू समाज की कमियां दूर करने का प्रयत्न चलता रहा !
संघ कार्य राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति है, इस भावना से समाज के हर वर्ग को प्रभावित करने के लिए १९५० में राजनैतिक क्षेत्र में जनसंघ, मजदूर क्षेत्र में भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थीयों के बीच विद्यार्थी परिषद्, शिक्षाक्षेत्र में विद्याभारती, वनवासी क्षेत्र में वनवासी कल्याण परिषद्, धार्मिक क्षेत्र में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना हुई | आज ३६ से अधिक संगठन संघ प्रेरणा से चल रहे हैं |
1969 के अगस्त में गुरूजी के सीने पर एक छोटी सी गठान उभर आई है, यह बात ध्यान में आई | जब एक सन्यासी मित्र ने उन्हें गले लगाया तब फाउन्टेन पेन का दबाब ठीक उसी स्थान पर पडा, गुरूजी को असह्य वेदना हुई | उनकी दर्द भरी कराह से मालुम हुआ की गुरूजी केंसर से पीड़ित हैं | उस समय संघशिक्षा वर्ग चल रहे थे, अतः उनके समापन के बाद जुलाई में आपरेशन करवाया गया | आपरेशन सफल भी रहा और गुरूजी पुनः प्रवास करने लगे और विवेकानंद शिला स्मारक को मूर्त रूप दिया | 
दीनदयाल जी, अटलजी, नानाजी जैसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करने हेतु दिए गए ! समाज जीवन को प्रभावित करने बाले विविध कार्य गुरूजी कि प्रेरणा से प्रारम्भ हुए ! हर वर्ष दो बार पूरे देश का भ्रमण, हर विषय पर अधिकार पूर्वक बोलने की क्षमता, उनके इन प्रयत्नों से संघकार्य बढता ही गया ! ३५ वर्ष कार्य करने के बाद १९७३ संघ शिक्षावर्ग बंगलौर में उनका अंतिम बौद्धिक हुआ – विजय ही विजय ! ५ जून १९७३ को वे हमसे विदा ले गए | उन्होंने अंतिम तीन पत्रों में बाला साहब देवरस जी को सर संघ चालक बनाने, स्वयं का कोई स्मारक न बनाने की बात की और तीसरे पत्र में अपने द्वारा जाने अनजाने हुई गलतियों के लिए क्षमा माँगी |
विशेष –
दत्तोपंत ठेंगडी को गुरूजी ने श्रमिक क्षेत्र में कार्य करने के लिए कहा | किन्तु इसके लिए श्रमिक आन्दोलन कैसे चलता है, इसका अनुभव होना आवश्यक था | किन्तु यह संघ शिक्षा वर्ग में तो मिलने वाला नहीं था | इसके लिए उन्हें कांग्रेस के श्रमिक संगठन में जाना पड़ा | वहां का अनुशासन भिन्न प्रकार का होना स्वाभाविक था | गुरूजी ने उन्हें उस अनुशासन का पालन करने की सलाह दी | यदि अपने बुद्धि विवेक को वह उचित ना लगे तो संस्था से बाहर निकल आना चाहिए, किन्तु जब तक वहां हैं, अनुशासन भंग नहीं करना चाहिए | ट्रेड युनियन का काम कैसे होता है, उसका गहराई से अध्ययन करना चाहिए | इसी के साथ इस सम्बन्ध में कार्ल मार्क्स के सिद्धांत और गांधी जी के विचार भी भली भांति समझ लेना चाहिए | अध्ययन करने के मामले में थोड़ी भी लापरवाही नहीं चलेगी | केवल पुस्तकें पढ़कर ज्ञान नहीं मिलता | काम के सिलसिले में कहीं जाएँ तो किसी श्रमिक के घर में ही रुकें | उसके जीवन का वास्तविक दर्शन हमें इसी प्रकार हो पायेगा |
जब मेंग्नीज की खदानों में काम करने वाले तीस हजार श्रमिकों के प्रतिनिधि के रूप में इंटक की जनरल कोंसिल में दत्तोपंत जी का चुनाव हुआ तो गुरूजी ने प्रश्न किया कि, “आप चुने गए यह अच्छी बात है, परन्तु आप जिनका प्रतिनिधित्व करते हैं, उनपर आपका प्रेम है क्या ?” आगे गुरूजी ने कहा कि, “माता अपने बालक पर जैसा प्रेम करती है, बैसा उत्कट प्रेम उन श्रमिकों पर अपना होना चाहिए |” देश को, समाज को प्रेम करना, यह तो सर्वत्र सुना जाता है, किन्तु उनका वास्तविक अर्थ क्या है, यह इससे ध्यान में आता है |
गुरूजी को कलकत्ता में भारतीय मजदूर संघ के किसी कार्यकर्ता ने अमरीका के किसी संगठन द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक दी | गुरूजी ने कहा कि, “इस पुस्तक में अन्य सब बातों की जानकारी तो है, किन्तु श्रमिक को अपना काम पूरा समय देकर ईमानदारी से करना चाहिए, इसका उल्लेख कहीं भी नहीं है |” गुरू जी ने आगे यह भी जोड़ा कि अपना सारा आधार कर्तव्य का पालन यह होना चाहिए | यही भारतीय संस्कृति की सीख है | भारतीय मजदूर संघ से उनकी क्या अपेक्षा है, और अन्य श्रमिक संगठनों से वह किस प्रकार भिन्न होना चाहिए, यह इस उद्धरण से स्पष्ट होता है |
1954 में अकोला में व्याख्यान देते समय राजनीति की रपटीली डगर का जिक्र करते हुए गुरूजी ने कहा कि, “आजकल राजनीति यानी सत्तास्पर्धा और चुनाव, ये दो बातें ही लोगों के दिमाग में बैठ गई हैं | राजनीति के इस वातावरण ने मनुष्य को पशु बना दिया है | सतत समझौते और किसी प्रकार धका लेना यही एक बात सामने रहती है, जिसके कारण ध्येयनिष्ठ जीवन व्यतीत करने के लिए स्थान ही नहीं बचता |”
गुरूजी ने 1955 के पश्चात भिन्न भिन्न राष्ट्रीय समस्याओं पर अपना द्रष्टिकोण व्यक्त करना प्रारम्भ किया | स्वतंत्र भारत में सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग भी यह समझ गए थे कि संघ की उपेक्षा नहीं की जा सकती | गुरू जी का दृढ मत था कि किसी के भी प्रति आक्रामक भाषा व अपशब्दों का उपयोग किये बिना राष्ट्र के सम्मुख आने वाले संभावित खतरों से सत्ताधीशों और समाज को सचेत करना व योग्य समय पर सावधान करना अपना कर्तव्य है | 1950 के पश्चात पूर्व पाकिस्तान के हिन्दुओं की दशा बहुत ही दयनीय हो गई | डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी केन्द्रीय मंत्रिमंडल में थे, किन्तु उनके कहने का भी कोई असर नेहरू जी पर नहीं हो रहा था | तब गुरूजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि, पूर्व पकिस्तान में रह रहे डेढ़ करोड़ हिन्दू बंधुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी से भारत पल्ला नहीं झाड सकता | बेरूबाडी का क्षेत्र पाकिस्तान को देने का निर्णय हो अथवा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हाजी पीर दर्रे की जीती हुई चौकी भारत सरकार के आदेश के कारण भारतीय सेना द्वारा खाली किया जाना, गुरूजी ने सख्त टिप्पणी की |
गुरू जी ने चेताया कि सिन्धु नदी जल के सम्बन्ध में हुआ समझौता राष्ट्रीय हित में नहीं है | इसी प्रकार चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने के कारण उसकी सीमा भारत से जुड़ गई है, उसका दूरगामी दुष्परिणाम होगा, गुरूजी की यह चेतावनी भी कालांतर में सत्य सिद्ध हुई | गुरूजी ने स्पष्ट शब्दों में चेताया था कि, देश की पूर्वी सीमा पर नागा विद्रोहियों की गतिविधियाँ, पाकिस्तान सीमा से आने वाले घुसपैठिये और ईसाई बहुल मेघालय राज्य का निर्माण देश हित में नहीं है | 
1965 के भारत पाक युद्ध में भारतीय सेना ने उल्लेखनीय विजय प्राप्त की, किन्तु ताशकंद समझौते के तहत सेना पीछे हटाना स्वीकार किया गया, सैनिकों के सारे पराक्रम पर पानी फिर गया | गुरूजी को बहुत दुःख हुआ | श्री लालबहादुर शास्त्री की संदेहास्पद मृत्यु भी आँखों के सामने थी | इस युद्धकाल में पूरा देश एकजुट होकर खडा हो गया था | गुरूजी ने इस पर तो प्रसन्नता व्यक्त की किन्तु साथ ही कहा कि, “यह अपना स्थाई भाव नहीं है | विपत्ति के समय तो हम एकजुट हो जाते हैं, किन्तु बाद में गहन निद्रा में खो जाते हैं | राष्ट्रीय एकात्मता की भावना गहराई तक प्रवेश कर जानी चाहिए |


आबाजी गुरूजी के सहायक थे | उनके बाद वे बालासाहब के साथ भी रहे | कुछ समय अखिलभारतीय प्रचारक प्रमुख का दायित्व भी सम्भाला | जीवन के अंतिम दो वर्ष उन्हें शारीरिक कष्टों का सामना करना पडा | उनके पैर की हड्डी टूट गई | उस अवस्था में भी उन्होंने मद्रास की यात्रा की | अंत में उन पर लकवे का आक्रमण हुआ, शरीर का दाहिना हिस्सा बलहीन हो गया | फिर भी उन्होंने बाएं हाथ से लिखकर बालासाहब को एक पत्र दिल्ली से भेजा | ऐसे वह कर्मयोगी कार्यकर्ता थे | अंत तक स्थिर और पूर्ण शांत | गुरूजी की आध्यात्मिक धारणा का कुछ अंश आबा जी में भी संचारित हुआ था | उनकी दैनन्दिनी के अंतिम प्रष्ट पर उनके द्वारा लिखी हुईं चार पंक्तियाँ उनकी उत्कट देशभक्ति का प्रतीक हैं | उन्होंने लिखा है कि, “उत्तंग ध्येय के लिए पागल बन चुके लोगों को “विश्रांति” ये तीन अक्षर कभी नहीं मिलते | उनको विश्रांति लेने को बाध्य करने का और बल पूर्वक थपकी देकर सुलाने का सामर्थ्य केवल एक के ही पास होता है | उसका नाम है मृत्यु |” जीवन किस प्रकार व्यतीत करें और मृत्यु का स्वागत कैसे करें, यह उसका ही दिग्दर्शन है |

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