राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मध्यभारत - कुछ अनोखे और यादगार प्रसंग



· १९४३ में द्वारिका प्रसाद तिवारी बैतूल में तहसील प्रचारक थे ! टिमरनी में प्रचारकों की बैठक में पूजनीय गुरूजी भी उपस्थित थे ! सह विभाग प्रचारक मोरोपंत जी पिंगले ने जब संपत की आज्ञा दी, उस समय लघुशंका के लिए खेतों में गए हुए थे ! संपत की आज्ञा सुनते ही वे एकदम दौड़े ! हडबडाहट में उनके पैरों में कांटे भी चुभ गए, किन्तु उन्हें निकाले बिना ही वे जाकर खड़े हो गए ! संपत के बाद मंडल और फिर उपविश और फिर परिचय भी प्रारम्भ हो गया, किन्तु उन्हें कांटे निकालने का अवसर नहीं मिला ! जब द्वारिका प्रसाद परिचय देने खड़े हुए तब गुरूजी का ध्यान उनके पैरों में चुभे हुए बहुत सारे काँटों पर गया ! उन्होंने अचम्भे से पूछा की तुम्हारे पैरों में इतने कांटे चुभे हुए हैं, इन्हें निकाला क्यों नहीं ! तिवारी जी ने इस प्रकार कहा जैसे कुछ हुआ ही न हो कि संपत की आज्ञा हो जाने के कारण निकालने का अवसर नहीं मिला ! गुरूजी ने उदगार प्रगट किये कि “ एसे ही स्वयंसेवकों की देश को आवश्यकता है ”! 


बैतूल में काम जमाने के लिए कई अभिनव प्रयोग किये ! बरसात में ताप्ती के किनारे खेडीघाट में प्राथमिक वर्ग का आयोजन हुआ ! सब स्वयंसेवक मिलकर चाय नाश्ता खाना अपने हाथों से बनाते थे ! केवल दोनों समय शाखा का समय निश्चित था ! शेष समय गीली लकडियों से खाना बनाते ही बीत जाता ! फिर भी अक्सर एक ही समय भोजन हो पाता ! वर्षाकाल में गीली लकडियाँ जंगल से बीनकर उनपर भोजन बनाना कोई आसान काम तो था नहीं !



वर्ष में दो बार साईकिलों से १०० १०० की.मी. की यात्रा आयोजित होतीं ! रास्ते में पडने बाले गाँवों में अनौपचारिक कार्यक्रम ने संघ की जड़ें जमाने में बड़ा योगदान दिया ! झल्लार गाँव में कांग्रेसी सरपंच सुबोध कनाठे से संपर्क आया ! बहां शाखा लगाते समय किसी की शिकायत पर पुलिस पहुँच गई ! पर इसके पहले की कोई बखेडा होता कांग्रेसी सरपंच ढाल बन गया और बोला यह लोग मेरे गाँव में आये हैं ! मेरे मेहमान हैं ! इन्हें परेशान करोगे तो ठीक नही होगा ! बाद में उनका छोटा भाई नरेंद्र कनाठे अच्छा स्वयंसेवक बना !

इसी प्रकार एक बार ३० ३५ स्वयंसेवक दाल बाटी का सामान लेकर साईकिलों से निकले ! जब कुछ लोग ट्रेन मार्ग में पडने बाली एक सुरंग (बोगदा) को पार कर रहे थे की तभी ट्रेन आ गई ! गनीमत रही की कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई ! फिर भी कुछ साईकिलें कुचल गईं तो कुछ स्वयंसेवकों के पैर में मोच आदि आ गई ! इस दुर्घटना के बाद साक्षात मौत के मुंह में से निकलने के बाद भी कार्यकर्ताओं की मस्ती में कोई कमी नही आई ! दाल बाटी भी बनी और शाखा भी लगी !

यावलकर जी ने संघ कार्यालय के लिए कमरा तो निशुल्क उपलव्ध करा दिया था किन्तु बहां ना तो पानी की व्यवस्था थी और ना ही शौच आदि की ! एसे में प्रचारक नाना धर्माधिकारी जी के घर पर शौच आदि के लिए जाते तो जहां से नगर को पानी सप्लाई होता था बहां जाकर स्नान करते ! धीरे धीरे आसपास के दुकानदारों से मित्रता होने पर पीने के पानी की व्यवस्था उनके सहयोग से होने लगी ! कुछ समय अनिल राजपूत के यहाँ शौचादि के लिए जाना शुरू हुआ ! तभी श्री डी.एन. वर्मा के यहाँ १०० रु. मासिक पर कमरा किराए पर उपलव्ध हुआ, और इन असुविधाओं पर विराम लगा ! यह बह समय था जब जिला कार्यवाह भी ५ रु. गुरू दक्षिणा करते थे ! इस कारण अत्यंत कठिनाईयों से प्रवास तथा प्रचारक की दैनंदिन व्यवस्थाओं का प्रवंध होता था ! फिर धीरे धीरे गुरू दक्षिणा का महत्व समझ में आने पर स्थिति में सुधार हुआ !

सर कार्यवाह माननीय शेषाद्री जी का प्रवास जिले में हुआ ! जिला सम्मलेन, कालेज विद्यार्थियों की बैठक, प्रमुख कार्यकर्ताओं के साथ बैठक आदि कार्यक्रम हुए ! अरुण जी के कार्यकाल में भाऊराव देवरस भी बैतूल पधारे ! वनवासियों के बीच काम शुरू करने के लिए ताप्ती वनवासी आश्रम के नाम से छात्रावास प्रारम्भ किया गया ! किन्तु प्रारंभिक दौर में एक रोचक प्रसंग आया ! श्री विहारीलाल जी के साथ प्रवास कर छात्रावास के लिए बच्चों को प्रेरित किया गया ! कुछ बच्चे आये भी ! किन्तु अचानक उनके अभिभावकों में भ्रान्ति फ़ैल गई की ये लोग बह्चों को ईसाई बना देंगे ! बहुत समझाने पर भी वे लोग अपने बच्चों को वापस ले गए ! इस द्रश्य से कुछ परेशानी भी हुई तो वनवासी वन्धुओं की सजगता देखकर सब को अच्छा भी लगा ! धीरे धीरे वातावरण बदला और छात्रावास ठीक से चलने लगा !

· स्वतन्त्रता आंदोलन के समय हरदा के श्री शिवदत्त दधीचि जेल में प.पू. डाक्टर हेडगेवार जी के संपर्क में आये ! डाक्टर साहब से उन्हे संघ की स्थापना, उद्देश्य व कार्यपद्धति की जानकारी मिली ! वे बहुत प्रभावित हुए और जेल से निकलने के पश्चात १९३६ में उन्होंने छीपाबड में गाँव के बच्चों को एकत्रित कर शाखा लगाना शुरू कर दिया ! डाक्टर जी ने उन्हें बताया था कि संघ में भगवा धवज को ही गुरू मान्यकर उसकी गरिमामय उपस्थिति में ही संघ के कार्यक्रम होते हैं ! गाँव में दधीचि जी को भगवा कपड़ा ना मिलाने पर उन्होंने घर से खादी की एक सफ़ेद धोती ली और उसे गेरू से रंगकर भगवा बनाया ! इतना ही नही तो यह ध्वज संघ का है यह स्पष्ट करने के लिए उन्होंने नील से उस पर बीच में अंग्रेजी में आर.एस.एस. भी लिखबाया ! लंबे समय तक यह अनोखा ध्वज लगाकर छीपाबड शाखा चलती रही !

· विजयादशमी पर आयोजित होने बाले प्रगट उत्सव में अध्यक्षता हेतु बैरागढ़(हरदा) में एक कांग्रेसी नेता को बुलाया गया ! वे सबसे अंत में भाषण देने खड़े हुए और लगभग पोन घंटे बोले ! स्वयंसेवक शान्ति से सुनते रहे ! कार्यक्रम के अंत में अधिकारियों ने उन्हें सविनय बताया कि विजयादशमी के स्थान पर उन्होंने अपना पूरा उद्वोधन श्रीमती विजयालक्ष्मी पंडित पर दिया है ! नेता जी शर्मिन्दा तो हुए साथ ही स्वयंसेवकों द्वारा अप्रासंगिक भाषण चुपचाप सुन लेने से अत्यंत प्रभावित भी हुए ! स्वयंसेवकों के अनुशासन ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे पूर्णतः संघमय हो गए !

· डबरा के श्री सरनामसिंह रावत नियमित प्रभात शाखा पहुँचने बाले स्वयंसेवक हैं ! संघ से प्रभावित होने की दास्तान वे स्वयं इस प्रकार वर्णन करते हैं - एक बार जब वे सर्दियों के मौसम में तत्कालीन प्रचारक श्री वाल मुकुंद झा को जगाने गए तो उन्हें एक धोती में ठिठुरकर सोते हुए देखा ! इस द्रश्य ने उन्हें श्रद्धा से अभिभूत कर दिया तथा उन्होंने आजीवन नियमित शाखा जाने का वृत ले लिया ! उनकी आजीविका का साधन एकमात्र चिकित्सा व्यवसाय है, किन्तु संघ शिक्षा वर्ग हेतु उसे बंद कर उन्होंने तीनो वर्ष का संघ शिक्षण वर्ग किया! द्वितीय वर्ष के दौरान वे फेलसीफेरम से पीड़ित हो बुखार में भी रहे किन्तु अपनी जीवटता के कारण वे शिक्षा वर्ग करके ही लौटे !

· डबरा के बडेरा गाँव का एक ट्रेक्टर गन्ने लादकर ओवर ब्रिज पर जा रहा था कि तभी उसका एक पहिया फट गया, जिसके कारण ट्रेक्टर एक ओर को झुक गया तथा ट्रेक्टर पर गन्नों के ऊपर बैठा क्लीनर रतन सिंह रावत गन्नो के साथ ३० फुट की ऊंचाई से पुल के नीचे जा गिरा ! ट्रेक्टर चालक घवरा कर मौके से भाग गया ! कोई भी घायल क्लीनर की मदद को आगे नही आया ! सबको पुलिस जांच में फंसने तथा गवाही के लिये कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने का भय था ! किन्तु स्वयंसेवक श्री निखिल पाल घायल नव युवक को कंधे पर लादकर डा. सचदेवा के क्लीनिक तक लेकर गए तथा उनके सुझाव पर दो अन्य स्वयंसेवक श्री हरीश जैन वा दीपक चौधरी की मदद से रिक्शे में अस्पताल पहुंचाया ! परिजनों के आने तक उसका इलाज करबाया तथा देखभाल की ! तब तक कमलेश जी वा अन्य स्वयंसेवक भी बहां पहुँच गए ! बाद में घायल नवयुवक के परिजन आये ! वे आज भी संघ स्वयंसेवकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं !

१४ नवम्बर १९७५ से संघ द्वारा पूरे देश में आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह की योजना बनाई | भिंड में भी जत्थे सर्व श्री रसाल सिंह, केशव सिंह भदौरिया और रणवीर सिंह भदौरिया "भोला भाई साहब" के नेतृत्व में निकले | आपातकाल ख़तम करो, इंदिरा तेरी तानाशाही नही चलेगी, मीसावंदी रिहा करो जैसे नारे गुंजाते इन लोगों के साथ भय के उस माहौल में भी सेंकडों की संख्या में आमजन शामिल थे | कलेक्ट्रेट में प्रदर्शन करते इस माहौल से प्रभावित होकर एक शासकीय कर्मचारी रतीराम जाटव भी पुलिस लपेटे में आ गया | उस बेचारे का कसूर सिर्फ इतना था कि उसने नारे लगाते एक कार्यकर्ता को प्रोत्साहित करते हुए एक नया नारा सुझा दिया था | पुलिस को लगा कि यही वास्तविक नेता है जो स्वयं पीछे रहते हुए सत्याग्रहियों को मार्गदर्शन दे रहा है | फिर क्या था बेचारे पूरे १५ महीने अकारण ग्वालियर केन्द्रीय काराग्रह की हवा खाते रहे | संयोग से रतीराम जी की पत्नी का नाम रामरती था, जिनको याद करते गमजदा रतीराम जी मीसावंदियों के करुणा दया के साथ चुहल के भी पात्र थे |

• भिंड में संघ कार्यालय को प्रशासन द्वारा सील्ड कर दिया गया था | जब आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तब साइक्लोस्टाइल मशीन से हस्तलिखित स्टेंसिल द्वारा जन जागरण हेतु पर्चे छापने का तय हुआ | किन्तु समस्या थी कि इस छोटी सी किन्तु उपयोगी मशीन को रखा कहाँ जाए | क्योंकि कार्यकर्ताओं के यहाँ रखने पर उसके पकडे जाने और परिवार को परेशान होने की आशंका थी | तब स्वयंसेवकों ने एक अद्भुत उपाय सोचा | कार्यालय के बगल में स्थित श्री रामनारायण गुप्ता के मकान की छत से कार्यालय की छत पर और बहां से जीने उतरकर कार्यालय में अन्दर पहुंचा गया | और बाहर से सील्ड कार्यालय के ही एक कमरे में स्वयंसेवकों का छोटा सा छापाखाना शुरू हो गया | अधिक सुरक्षा की दृष्टि से उपयोग करने के बाद उस कमरे को ताला लगा दिया जाता था | छपे हुए जन जागरण के पर्चों को रात के समय घरों में और नगर की दुकानों में डाल दिया जाता था | आपातकाल के विरुद्ध जन आक्रोश निर्मित करने में यह अभियान अत्यंत उपयोगी साबित हुआ | पर्चे छापने से लेकर उन्हें वितरित करने में सर्व श्री सुरेश जैन, छेदी लाल जैन, सुशील गुप्ता, नरेंद्र जैन सहित दस स्वयं सेवकों की टोली रहती थी |

१९४६-४७ में ग्वालियर के श्री गोपाल राव टेम्बे जी मुरैना के जैन विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक नियुक्त हुए थे ! उस विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ने बाला केवल एक ही विद्यार्थी था ! प्राचार्य के सहयोगी रुख के कारण बह भी टेम्बे जी के आवास पर ही आकर पढ़ जाया करता था ! इस कारण टेम्बे जी को विद्यालय जाना ही नही पड़ता था और उन्हें संघ कार्य के लिये पर्याप्त समय उपलव्ध हो जाता था ! टेम्बे जी ने प्रयत्न पूर्वक सायं शाखा प्रारम्भ की ! 
जाहर सिंह शर्मा जैसे जोशीले नौजवान को आधार बनाकर टेम्बे जी ने काम शुरू किया ! जाहरसिंह जी के परिवार का आढत का काम था, जिसके कारण उनके परिवार का मुरैना में अच्छा प्रभाव था ! इसी दौरान रामप्रकाश भट्टजीबाले, उनके दोनों भाई तथा गेंदालाल गोलस, जोटाईबाले केदारनाथ भी स्वयंसेवक बने ! टेम्बे जी दंड और खड्ग में सिद्ध हस्त थे ! इसी कारण शाखा में आने बाले स्वयंसेवकों की संख्या निरंतर बढ़ती ही गई ! 
टेम्बे जी ने अपने रहने के लिये जो आवास बनाया, बही मुरैना का पहला कार्यालय बना ! देश भर के संघ कार्यालयों के इतिहास में यह सबसे अनूठा था ! लोहिया बाज़ार में बाबूलाल छंगाराम के मकान में ग्राउंड फ्लोर पर दूकाने थी तथा पहली मंजिल पर रुई का गोदाम तथा दूसरी मंजिल पर एक कमरा था ! उस गोदाम में आग लग जाने कारण ऊपर जाने बाली सीढी पूरी तरह टूट गई थी ! तीसरी मंजिल पर जाना किसी पहाडी पर चढ़ने के समान था ! तीसरी मंजिल का बही कमरा स्वयंसेवक होने के नाते गृह स्वामी बाबूलाल जी ने टेम्बे जी को बिना किराए के दे रखा था ! टेम्बे जी ने कमरे तक पहुँचने के लिये एक रस्सा सीढी के पास बांध दिया था ! उस रस्से के सहारे ही बचीखुची सीढियों पर पाँव टिकाते उस आवास तक पहुँचना सम्भव हो पाता था ! यही था उनका आवास और मुरैना का पहला संघ कार्यालय !

सन १९५७ में सर्व प्रथम श्री कृष्ण कुमार जी अष्ठाना, श्री राजेन्द्र गुप्ता और राम प्रकाश गुप्ता(सर्राफ) ने जयपुर से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग किया ! कुछ तो मुरैना में संघ कार्य बिलम्ब से शुरू हुआ और कुछ यह इलाका दस्यु प्रभावित भी रहा, इस कारण संघ शिक्षा वर्ग जाने का सिलसिला कुछ बिलम्ब से शुरू हुआ ! अष्ठाना जी को भी बिना परिवार की अनुमति लिये कालेज टूर का बहाना बनाकर ही प्रथम वर्ष जाना पडा ! मार्गव्यय के लिये भी मित्रों से उधार लेकर व्यवस्था की ! किन्तु अगले वर्ष १९५८ में उनकी दृढ इच्छा देखकर पिताजी ने अनुमति तो दे दी किन्तु आवश्यक व्यय इस बार भी बाबूलाल जी गुप्ता से उधार लेकर ही सम्भव हुआ ! १९५९ में अष्ठाना जी अडोखर में शिक्षक नियुक्त हो चुके थे ! विगत दो वर्षों में ली गई उधारी भी पटाई जा चुकी थी, किन्तु बहिन की शादी के लिये प्रयत्न पहले करने की पिताजी की इच्छा थी ! सहकर्मी चिकटे जी और ग्वालियर के तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री मिश्रीलाल जी तिवारी जी के साथ तृतीय वर्ष करने के संकल्प के कारण अष्ठाना जी इस बार भी जैसे तैसे पिताजी के कहे वाक्य "जैसा ठीक समझो करो" को अनुमति मानकर नागपुर रवाना हो ही गए !

सन १९६२-६३ में प.पू.सर संघ चालक श्री गुरूजी का मुरैना प्रवास हुआ ! ग्वालियर जिले के स्वयं सेवकों को भी इसमें सम्मिलित होना था ! इस कारण अनेक धर्मशालाओं तथा सार्वजनिक स्थानों पर आवास व्यवस्था की गई ! कार्यक्रम के लिये पंचायती धर्मशाला का अहाता तय हुआ ! कई दिन तक ठेलों से मिट्टी आदि डालकर स्थान को समतल बनाया गया तथा सामर्थ्य भर सजाया संवारा गया ! किन्तु तभी आई भीषण वारिश ने मैदान में बिछाई गई मिट्टी को कीचड़ में बदल दिया ! बैठने लायक स्थान भी नहीं बचा ! दोपहर बाद वर्षा थमने पर धर्मशाला की छत पर कार्यक्रम किया गया !
बौद्धिक से १५ मिनट पूर्व स्वयंसेवकों को कार्यक्रम स्थल पर पहुँचने की सूचना थी ! किन्तु बसती गृह की अधिक दूरी तथा स्थान ढूँढने में कठिनाई होने के कारण ग्वालियर के कुछ स्वयं सेवकों को बिलम्ब हो गया ! प्रवेश द्वार पर व्यवस्था में तैनात कार्यकर्ताओं ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया ! प्रांत प्रचारक केशवराव जी गोरे ने नगर कार्यवाह श्री कृष्ण कुमार अष्ठाना जी से कहा की "तुम चाहो तो बाहर खड़े स्वयं सेवकों को अन्दर आने की अनुमति दे सकते हो ! अभी श्री गुरू जी के आने में समय है ! इन लोगों से बाद में बात करेंगे ! कार्यकर्ता को गढ़ने में बहुत समय लगता है , तोड़ने का काम तो एक झटके में हो जाता है !" अष्ठाना जी ने द्वार खुलवा दिया और गोरे जी द्वारा कहे गए शब्दों को सूक्ति वाक्य के रूप में ह्रदय में बसा लिया ! गोरे जी चाहते तो स्वयं द्वार खुलबा सकते थे किन्तु व्यवस्था की जिम्मेदारी देख रहे अष्ठाना जी से ही यह कार्य करबाना उचित समझा ! यही पद्धति है संघ की ! स्वयं को पीछे रखकर कार्यकर्ता को गढ़ने की !

* सन १९७५ में आपातकाल के समय अनेकों स्वयंसेवक जेलों में बंद थे | आम तौर पर जेल में बंद लोग कुछ स्वार्थी हो जाते हैं, किन्तु संघ स्वयंसेवक तो किसी और ही मिट्टी के बने होते हैं | भोपाल में स्वयंसेवक जेल के अन्दर भी शाखा लगाते और बाहर के समान ही ६ उत्सवों को मनाते | कारावास की अवधी के दौरान ही गुरू पूर्णिमा आई और उत्सव मनाने की योजना बनने लगी | किन्तु जेल में बंद स्वयंसेवकों के सामने मुख्य प्रश्न था गुरू दक्षिणा का | किन्तु जहां चाह है बहां राह है | जेल में भोजन सामूहिक ही बनता था तथा उस हेतु जेल मेनुअल के अनुसार एक समय की खुराक हेतु राशि तय थी | स्वयं सेवकों ने तय किया कि हम लोग एक समय ही भोजन करेंगे और एक समय भोजन ना करने से जो राशि बचेगी उसे गुरू पूर्णिमा के दिन गुरू दक्षिणा के रूप में ध्वज के सम्मुख अर्पित करेंगे | भोपाल जेल के १५० स्वयंसेवक इस योजना में शामिल हुए और इस प्रकार गुरू दक्षिणा कर एक अनोखा आनंद व समाधान प्राप्त किया |

* भोपाल महानगर व्यवस्था प्रमुख बाबू सचदेवा निसंतान थे | घर में केवल वे तथा उनकी पत्नी | पत्नी के देहांत के बाद उन्होंने ११ नंबर स्टाप के पास स्थित अपना एम.आई.जी घर सेवा भारती को समर्पित कर दिया | अपने लिए केवल एक कमरा भर रखा | बाद में पार्किन्सन के कारण हाथ पैरों में जब कंपन बढ़ गया तो वे अपने रिश्तेदारों के पास महाराष्ट्र चले गए | जहां उनका बाद में स्वर्गवास हो गया | उनके दिए मकान का उपयोग बाद में सेवा प्रमुख विष्णु जी की प्रेरणा से चार मंजिला छात्रावास बनाकर किया गया |

* इसी प्रकार बैरसिया के स्वयंसेवक चंदर सिंह सामान्य ग्रामीण परिवार के थे | उनके पास ८ एकड़ कृषि भूमि थी | घर में केवल एक स्वयंसेवक पुत्र और पुत्री | दुःख की बात यह की एकमात्र पुत्र अर्जुन की विद्युत करेंट से मृत्यु हो गई | पुत्री के विवाह के बाद उन्होंने अपनी आधी जमीन तो पुत्री को दे दी तथा शेष आधी का ट्रस्ट बनाकर तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री शरद जी मेहरोत्रा को सोंप दी | खुद संघ कार्यालय जाकर रहने लगे | आज उनकी जमीन पर आवासीय सरस्वती शिशु मंदिर संचालित है |
* श्री जगदीश बसंतानी प्रताप जिले की विवेकानंद शाखा के मुख्य शिक्षक हैं | जनवरी २००९ में उन्हें सुबह ४ बजे मुरैना के एक परिचित ट्रांसपोर्ट व्यवसाई का फोन आया कि व्याबरा वाईपास पर उनके एक ट्रक का एक्सीडेंट हो गया है | उन्हें तो ४०० किमी चलकर बहां पहुँचने में समय लगेगा, किन्तु वसंतानी जी केवल १०० किमी दूरी पर होने के कारण पहले पहुंचकर कुछ मदद कर सकते हैं | जगदीश जी अपने एक मित्र श्री राजकुमार खीमानी को लेकर तुरंत रवाना हो गए | निजी वाहन होने के कारण केवल सवा घंटे से भी कम समय में वे दुर्घटना स्थल पर पहुँच गए | बहां जाकर उन्होंने देखा कि दो ट्रकों की आमने सामानी भिडंत हुई है तथा ट्रकों में आग लग गई है | पांच लोग तो स्थल पर ही दम तोड़ चुके थे, जिनमे से तीन तो जलकर कंकाल मात्र दिखाई दे रहे थे | केवल एक व्यक्ति की साँस चल रही थी | मौके पर पहुंचे पुलिसकर्मी उस जीवित व्यक्ति को भी मृत तुल्य ही मान रहे थे किन्तु जगदीश जी ने उसे तुरंत भोपाल ले जाकर इलाज कराने की इच्छा व्यक्त की | जैसी की परिपाटी है पुलिस कर्मियों ने कागजी खानापूरी इत्यादि औपचारिकताओं में समय लगाना चाहा, किन्तु जगदीश जी ने आनन् फानन में उच्चाधिकारियों से फोन पर चर्चाकर उस घायल व्यक्ति को भोपाल ले जाने की अनुमति प्राप्त कर ही ली | वे उस घायल ड्राईवर को लेकर अविलम्ब भोपाल के पीपुल्स हास्पीटल पहुंचे तथा उसे बहां समुचित उपचार प्राप्त हुआ | समय पर उपचार मिल जाने के कारण उस ड्राईवर के प्राणों की रक्षा हुई | उसके परिजनों के आने तक श्री जगदीश वसंतानी जी ने ही सार संभाल की | अंततः डेढ़ माह बाद स्वस्थ होकर मौत के मुंह से बापस लौटा बह ड्राईवर अब जगदीश जी के गुण गाता नहीं थकता |

* वरिष्ठ अधिकारियों का आचरण और व्यवहार ही बस्तुतः कार्य विस्तार का आधार होता है | एसा ही १९४५ का एक अद्वितीय प्रसंग है | माननीय एकनाथ जी रानाडे ब्यावरा प्रवास पर पधारने बाले थे | शुजालपुर का कार्यक्रम पूर्ण करके ब्यावरा जाने के लिये जब वे बस स्टेंड पहुंचे तो मालूम हुआ कि बस निकल चुकी है तथा अब कोई साधन नही है | उन दिनों आज की तरह आवागमन के पर्याप्त साधन नही थे | शुजालपुर के कार्यकर्ताओं ने आग्रह किया कि एकनाथ जी शुजालपुर ही रुक जाएँ | किन्तु एकनाथ जी इसे कैसे स्वीकार करते ? उनके आगमन की सूचना हो जाए और वे नहीं पहुंचें, यह उन्हें गवारा नही था | उन्होंने एक कार्यकर्ता से साईकिल ली और उससे ही ब्यावरा तक की यात्रा की |

* प्रचारकों को कई बार मजेदार अनुभवों से गुजरना पड़ता है | एसा ही एक अनुभव श्री कमलाकर शुक्ल को राजगढ़ प्रचारक के रूप में अपने प्रथम जीरापुर प्रवास में हुआ | वे सदा खादी का सफ़ेद धोती कुरता व जाकेट पहनते थे | इसी वेश में जब वे उज्जैन से जीरापुर जाने को निकले तो संयोग से बस की पहली सीट पर जगह मिली | मार्ग में जब छापीहेडा कस्वा आया तब बस रुकते ही कुछ लोग हार फूल माला लेकर बस में चढ़े और अभिवादन करते हुए शुक्ला जी को मालाएं पहना दीं | पहले तो इन्हें आश्चर्य हुआ क्योंकि यह सब संघ की परंपरा में नही था, किन्तु फिर सोचा शायद पहली बार आने के कारण यह सत्कार हो रहा है | वे शांत भाव से स्वागतकर्ताओं के साथ चल दिए | किन्तु जब उन्हें एक मंच पर ले जाकर बैठाया गया तब उनका माथा ठनका तथा उन्होंने एक कार्यकर्ता को बुलाकर पूछा | तब स्थिति स्पष्ट हुई और मालूम हुआ कि वे लोग इन्हें कांग्रेस का एक नेता समझकर ले आये थे | तब बहां से निकलकर दूसरी बस पकड़कर कमलाकर जी जीरापुर पहुंचे |

* संघ कार्य के कारण समाज जीवन में स्वतः परिवर्तन हो जाता है, इसका उदाहरण है सारंगपुर की यह घटना | तहसील के मंडावता खंड में १००० आवादी का एक गाँव है झिरी | यहाँ संघ की अच्छी शाखा चलती थी | गाँव में पीने के पानी की समस्या को दूर करने के लिए स्वयंसेवकों ने प्रयत्न कर नलकूप खुदबाने तथा नलों द्वारा घर घर पानी पहुंचाने की व्यवस्था की | गाँव में गन्दगी वा कीचड़ ना हो इसलिये जल निकासी की समुचित व्यवस्था की गई | इतना ही नहीं तो घरों से निकले हुए पानी को नालियों द्वारा खेतों तक पहुंचाया गया | जिस खेत को यह पानी दिया जाता उससे इस पानी का भी शुल्क बसूला जाता | कोई व्यक्ति अगर व्यवस्था भंग करता तो उस पर जुर्माना भी लगता | सब लोग स्वेच्छा से इस व्यवस्था का पालन करते हैं | 

* दतरावदा राजगढ़ जिले का एक ग्राम है | राजपूत बहुल इस गाँव में छुआछूत का भाव अत्यंत प्रबल था | संघ शाखा प्रारम्भ होने पर सभी वर्गों के लोग शाखा पर आने लगे | हम सब हिन्दू भाव प्रबल हुआ तो समय ने करबट बदली | खंड कार्यवाह जी की मां का स्वर्गवास हुआ | तब तक या तो हरिजन समाज को आमंत्रित ही नहीं किया जाता था या उन्हें परोसा दे दिया जाता था | पंगत में बैठाकर भोजन कराने की तो कोई सोचता ही नही था | पर खंड कार्यवाह जी अड़ गए और अंततः परिजनों को भी मना ही लिया | और स्वयंसेवकों ने अपने हाथों से परोसकर सबको भोजन कराया तथा गाँव में नई परम्परा की शुरूआत हुई | 

* एक बार भंडावद गाँव में सभी कुए सूख गए, केवल तहसील कार्यवाह गिरिराज जी गुप्ता के कुए में ही पानी था | उन्होंने गाँव बालों से कहा कि मैं पानी दूंगा तो सबको बिना भेदभाव और छुआछूत के, अन्यथा किसी को नहीं | कुछ मजबूरी कुछ परिवर्तन की लहर, पूरे गाँव ने इसे स्वीकार किया और अब तो गाँव का मंदिर भी समाज के हर वर्ग के लिये खुल चुका है | इस प्रकार संघ की एक शाखा के कारण बिना डुगडुगी बजाये एक गाँव का रूपांतर हो गया |


मृत्यु उपरांत भी गुरू दक्षिणा - 

स्व. डाक्टर बनाबारीलाल सुलोदिया होम्योपेथी पद्धति से उपचार करने बाले चिकित्सक एवं आदर्श स्वयंसेवक थे ! संघ की ओर से जो भी दायित्व उन्हें दिया जाता उसे बड़ी तन्मयता एवं लगन से पूर्ण करने का प्रयत्न करते ! सीहोर नगर की पिछड़ी बस्ती में चलने बाले निशुल्क चिकित्सालय का संचालन भी वे ही देखते थे ! ७८ वर्ष की आयु में वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए ! उन्हें लगने लगा कि जीवन की अंतिम घड़ी निकट ही है ! उस समय गुरू पूजन उत्सव को तीन माह का समय था ! सुलोदिया जी को लगा कि पूजन उत्सव के पूर्व कहीं जीवन लीला पूर्ण हो गई तो जीवन की अंतिम घड़ी में गुरू दक्षिणा करने से वंचित ना रह जाऊं ! उन्होंने जिला कार्यवाह शिवरतन पुरोहित को बुलाबाया और गुरू दक्षिणा की संकल्पित राशि उन्हें सोंपते हुए कहा कि -"अगर गुरू पूजन उत्सव तक जीवित रहा तो प्रत्यक्ष उपस्थित होकर गुरू दक्षिणा करूंगा ही, किन्तु यदि उत्सव के पूर्व भगवान का बुलावा आ जाए तो आप यह राशि ध्वज के सम्मुख अर्पित कर देना"! गुरू पूजन उत्सव के दो दिन पूर्व ही उनका शरीर शांत हो गया ! सुलोदिया जी की अंतिम इच्छा बताते हुए जिला कार्यवाह जी ने उनके द्वारा दी गई राशि ध्वज के सम्मुख अर्पित की ! सुलोदिया जी द्वारा अंतिम समय में भी स्वयंसेवक भाव को जागृत रखने के इस उदाहरण ने सभी को श्रद्धावनत कर दिया !

भोपाल में संघ के प्रारंभिक स्वयंसेवक श्री शंकर लाल शर्मा मध्यप्रदेश विद्युत मंडल की शासकीय सेवा में थे | स्थानान्तरण हुआ, तो संघ कार्य में व्यवधान आएगा, यह सोचकर नौकरी ही छोड़ दी | उन्हें अपने परिवार के साथ अत्यंत निर्धनता में जीवन निर्वाह करते देख, स्वयंसेवकों ने उनके जीर्ण शीर्ण भवन की मरम्मत हेतु धन संग्रह किया और उनके मना करने के बाद भी जबरदस्ती उसे बनबा दिया ! 

तू डाल डाल तो मैं पात पात ! बनने के बाद शंकर लाल जी कहने लगे कि मैं मकान में जाऊंगा ही नहीं ! बड़ी मुश्किल से मकान में गए तो इस शर्त पर कि मकान अब संघ का है, मैं किराया दूंगा ! उसके बाद आजीवन एम.एल.ए. रेस्ट हाऊस में सर्विस कर किराया भुगतान किया ! 

पी.एच.डी. तथा अर्थ शास्त्र के विभागाध्यक्ष रहे श्री प्रभाकर पाटनकर ६०-६१ में नगर प्रचारक बनकर आये ! विभीषण सिंह जी के साथ साईकिल से ही सब महाविद्यालयों में जाते और अपने प्रभावी व्यक्तित्व से सबको प्रभावित कर संघ से जोडते ! उस समय एक साथ तीन पी.एच.डी. संघ कार्य में जुटे हुए थे ! श्री पाटनकर के अतिरिक्त श्री हरिभाऊ वाकणकर तथा उज्जैन के श्री नन्द कुमार गर्ग ! भीम वेटिका में खाना खाते समय वाकणकर जी आलू को धुप से गरम वालू में दबाकर रख देते थे और मुलायम होने पर उदरस्थ कर लेते थे !
विहारी लाल जी लोकवानी टाऊन एवं कंट्रीप्लानिंग में डायरेक्टर रहते हुए संघ कार्य कर रहे थे ! स्थानान्तरण होने पर त्यागपत्र देकर उन्होंने संघ कार्य जारी रखा !
क्षेत्र प्रचारक रहे श्री गोपाल जी व्यास भी भिलाई में शासकीय सेवा छोड़कर प्रचारक निकले !

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