मेरा भारत महान - सांस्कृतिक शीलहरण का साक्षी धार


धार में प्रवेश के पूर्व ही पहाडी पर बना कालिका मंदिर दिखाई देता है | इस मंदिर का निर्माण परमार बंश के प्रतापी राजा मुंज द्वारा ई. 973-998 में करवाया गया था | मंदिर का मुख धार के उत्तर पश्चिम में स्थित मुंज सरोवर की ओर है | सरोवर के दूसरी ओर महान योगी निन्यानद स्वामी की समाधि स्थित है | किसी समय धार नगरी अद्भुत बैभव संपन्न रही होगी, इसका वर्णन मुंज के दरवारी कवि परिमल द्वारा रचित महाकाव्य “नवसाहसांक चरित” में मिलता है | कवि कहते हैं –

विजित्य लंकामपि वर्तते या,
यस्याश्च नायात्यलकाअपि साम्य,
जेतुःपुरी साप्यपरास्ति यस्याः,
धारेति नाम्ना राजधानी |

लंका यदि स्वर्ण की थी तो अलकापुरी धनाधिपति कुबेर की राजधानी, उससे धार नगरी की तुलना यह तो दर्शाती ही है कि यह नगरी बैभव संपन्न तो रही ही होगी | धार में राजा भोजदेव द्वारा बनवाया हुआ धारेश्वर महादेव मंदिर भी है | श्रावणमास के अंतिम सोमवार को निकलने वाले “धारनाथ के छबीने” में हर हिन्दू अपने घर के द्वार पर भगवान भोलेनाथ के नगर भ्रमण का स्वागत करता है | इस अवसर पर आनंद में डूबे लोगों का नृत्य, शस्त्रास्त्रों का प्रदर्शन करते अखाड़ों के पहलवान और कलाकार, भजन में डूबी हुई मंडलियाँ, गुलाल से लाल हुआ यात्रा मार्ग वह समां बांधता है कि हर कोई रोमांचित हो उठता है |

यह भोज नगरी धार एकाधिक बार आक्रान्ताओं के पैरों तले रोंदी गई | मुसलमान शासकों ने तो इसका सांस्कृतिक शील हरण ही कर लिया | अपने काल का सर्वश्रेष्ठ संस्कृति, शिक्षा और कला का केंद्र “भोजशाला” ध्वस्त कर मस्जिद में तब्दील कर दिया गया | इसके अतिरिक्त भी कई हिन्दू और जैन मंदिरों को मस्जिद बना दिया गया | धार भले ही पहले जैसा बैभवशाली न रहा हो किन्तु आज भी चारों ओर की पहाड़ियां इसे नैसर्गिक सौन्दर्य प्रदान करती हैं | परमार काल में नगर के चारों ओर बने सरोवर आज भी विद्यमान हैं, जिनके किनारे लगे हुए बृक्ष इस नगरी को रमणीक बनाते हैं | 

मालवा की बहुचर्चित कहावत “कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली” का जन्म भी धार से हुआ बताया जाता है | मालवा के प्रथम सुलतान दिलावर खान ने 1405 ई. में एक प्राचीन मंदिर को तोड़कर “जामा मस्जिद” बनवाई, जिसे आम बोलचाल में “लाट मस्जिद” कहा जाता है | इसका कारण यह है कि मस्जिद के सामने 24 फीट लम्बी व 4 फीट परिधि की एक चौकोर लाट पड़ी हुई है | लोहे की इस लाट को गंगू तेली की तराजू की डंडी बताया जाता है | पास पडी तीन चट्टानों को तराजू के बाँट माना जाता है | सदियों से यह लाट इसी प्रकार पडी हुई है, किन्तु उसमें जंग नहीं लगी है | 

यह तो हुई जनश्रुति की बात किन्तु इतिहासकारों की नजर में यह लाट एक विजय स्तम्भ है, जिसका निर्माण भोज ने कलचुरी नरेश गांगेय देव तैलप को पराजित करने की स्मृति में बनवाया था | वास्तव में गंगू गांगेय का तथा तेली तैलप का अपभ्रंश है | “इंडियन आर्कियोलोजी ए रिव्यू” के अनुसार गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने जब मालवा फतह किया तो इस स्तम्भ को गुजरात ले जाना चाहा | किन्तु खुदाई करते समय यह गिरकर टूट गया | तब से यह इसी प्रकार पड़ा हुआ है | लाल पत्थर के बने यहाँ के किले में ही पेशवा बाजीराव द्वितीय का जन्म हुआ था |

धार्मिक सहिष्णुता और वैभव का कोई चिन्ह आज धार में दिखाई नहीं देता | भोजशाला को अतीत का गौरव दिलाने की हिन्दू इच्छा और सम्पूर्ण भोजशाला को कमाल मौला मस्जिद का अंग मानने की मुसलमानों की जिद के कारण प्रायः हिंसक संघर्ष होते रहते हैं | भोजशाला में जिस स्थान पर सरस्वती प्रतिमा थी, वहां हिन्दू संगीनों के साए में  प्रति मंगलवार को पूजा अर्चना करते हैं, तो शुक्रवार को मुसलमान नमाज पढ़ते हैं | देश में शायद यह अपने किस्म का अनोखा प्रबंध है |
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